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वर्चुअल दुनिया की सड़ांध

देश के तमाम कूड़ाघरों में जितना कचरा है अब उससे ज्यादा लोग सोशल मीडिया में उड़ेलने लगे हैं
फड़कती अभिव्यक्तियों का नया अड्डा

बहुत दिनों से फोन पर कोई भी सोशल मीडिया साइट खोलते हुए नाक बंद करने का दिल करता है क्योंकि ऐसा लगता है कि वहां से बदबू आएगी। यह वैसी ही आदत है जैसे किसी सार्वजनिक शौचालय के पास से गुजरते हुए आप बदबू की आशंका करें। इसकी वजह यह है कि लोग सार्वजनिक शौचालय में जो करते हैं वही सोशल मीडिया में करने लगे हैं। पहले जो संदेश सार्वजनिक शौचालयों की दीवारों पर लिखे मिलते थे वे अब यहां की “वॉल्स” पर मिलते हैं।

देश के तमाम कूड़ाघरों में जितना कचरा है अब उससे ज्यादा लोग सोशल मीडिया में उड़ेलने लगे हैं। और यहां कोई बिंदेश्वरी पाठक भी नहीं है जो कुछ साफ-सुथरे सुलभ शौचालय बना दे। यहां पर माहौल वैसा ही है जैसा हमारी नौजवानी के दिनों में शहर के कुछ फटीचर सिनेमा थिएटरों के पेशाबघरों का होता था। इन थिएटरों में “भटकती जवानी” किस्म की फिल्में लगा करती थीं और शहर के आवारा लड़कों की भटकती जवानियों की फड़कती हुई अभिव्यक्ति ईंट के टुकड़ों, कोयले वगैरह के जरिए दीवारों पर प्रकट होती थी।

अब ईंट के टुकड़े और कोयले की जगह स्मार्टफोन हैं। अब ऐसे थिएटर भी देखने में नहीं आते, लेकिन उन अभिव्यक्तियों को ज्यादा व्यापक मंच मिल गया है। कुछ और फर्क भी आया है। पहले दीवारों पर ऐसे संदेश लिखने वाले लोग चोरी छुपे ऐसा करते थे। उन्हें यह डर होता था कि कोई उन्हें देख न ले या पहचान न ले। अब लोग गर्व से सीना तान कर सोशल मीडिया पर ऐसा करते हैं और उन्हें सैंकड़ों, हजारों की तादाद में वाह-वाह करने वाले भी मिल जाते हैं। एक संकट यह है कि जैसे सरकार ने स्वच्छ भारत अभियान जैसा कुछ चला रखा है, प्रधानमंत्री से लेकर तो अमिताभ बच्चन और अक्षय कुमार जैसे लोग इसका प्रचार कर रहे हैं, वैसा कुछ यहां नहीं है। बल्कि यहां उल्टा हो रहा है। सोशल मीडिया पर गंदगी फैलाने का अभियान चलाया जा रहा है। जो लोग गंदगी फैला रहे हैं, वे यह मानकर फैला रहे हैं कि इस तरह वे देश और समाज की बड़ी सेवा कर रहे हैं।

कई लोग सुबह स्वच्छ भारत अभियान में भाग लेते हैं उसके बाद दिन भर सोशल मीडिया पर अस्वच्छ भारत अभियान में जुट जाते हैं।

यहां गंदगी को रिसाइकल करके और ज्यादा गंदगी पैदा की जाती है।

कभी यह सोच कर जरा सी तसल्ली हो जाती थी कि यह जो गंदगी है, वह वर्चुअल गंदगी है, यह बदबू भी वर्चुअल बदबू है, इससे सचमुच नाक बंद करने की जरूरत नहीं है। लेकिन अब यह लग रहा है कि यह बदबू तो सचमुच की बदबू से ज्यादा खतरनाक है।

इस वर्चुअल गंदगी की वजह से कितने लोगों को पीट-पीटकर मार दिया गया, समाज में कितना सचमुच का जहर इस वर्चुअल गंदगी ने फैला दिया। अफवाहें, गालियां, धमकियां ऐसे फैल रही हैं कि सारा समाज उन फटीचर थिएटरों में लगने वाली अश्लील फिल्म जैसा लगने लगा है, जिसके पेशाबघर में अनवरत ईंटों के टुकड़े और कोयले से लोग लिख रहे हैं।

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