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किताबी ज्ञान की कोठरी से निकलें

पश्चिमी मानकों को छूने के लिए भारतीय विश्वविद्यालयों की शोध व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव जरूरी
बस गिनती केः आइआइटी कानपुर देश के उन चुनिंदा संस्‍थानों में है जहां उच्चकोटि के अनुसंधान होते हैं

अमेरिका में शोधार्थी अजय सिंह (बदला हुआ नाम) का वहां के एक सरकारी विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर पद के लिए साक्षात्कार चल रहा था। चयन समिति ने उनसे कहा कि भारत में प्रकाशित शोध के बजाय वे अमेरिका, यूरोप और ऑस्ट्रेलिया में किए गए और प्रकाशित अपने शोध के बारे में बताएं। इससे भारतीय विश्वविद्यालयों के शोध-कार्यों के प्रति पश्चिमी शिक्षाविदों में गहरे अविश्वास का अंदाजा लगता है।

क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैकिंग के मुताबिक दुनिया के शीर्ष 150 विश्वविद्यालयों में कोई भारतीय संस्‍थान नहीं है। आइआइटी और आइआइएम के कुछ संकायों में उच्च कोटि का शोध होने के बावजूद सबसे ऊंची रैकिंग वाला आइआइटी-बॉम्बे सूची में 162वें पायदान पर है। जाहिर है, शोध की गुणवत्ता में तत्काल सुधार की जरूरत है, हालांकि इस राह में अनेक कांटे हैं।

शोध पर भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का एक फीसदी से भी कम खर्च करता है। इससे शोधकर्ताओं को पर्याप्त धन नहीं मिलता। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र और हार्वर्ड स्कूल ऑफ मेडिसिन में पोस्टडॉक्टोरल रिसर्चर सुबोध कुमार कहते हैं, “भारत के सरकारी संस्‍थानों को बिना किसी भेदभाव के शोध के लिए फंड देना चाहिए। वर्तमान में, भारतीय विश्वविद्यालयों में शोध का काम फंड बांटने में भेदभाव और सरकारी संगठनों के पास फंड की कमी से प्रभावित है।” उन्होंने बताया कि भारतीय विश्वविद्यालयों के कई शोध-पत्र निम्नकोटि की पत्रिकाओं में प्रकाशित होते हैं, इससे भी शोध के स्तर में गिरावट आती है।

अमेरिका की बेंटले यूनिवर्सिटी और आइआइएम-अहमदाबाद में पढ़ाने वाले डोनाल्ड चंद ने बताया, “किताबी ज्ञान से निकलकर अमेरिकी शिक्षा व्यवस्था ज्ञान की जिज्ञासा पैदा करने में बदल चुकी है। शोध वहां की पढ़ाई का प्रमुख हिस्सा है।” इसलिए, भारत के छात्रों में जिज्ञासा पैदा करने और नई जानकारी जुटाने के तरीकों से अवगत कराने का वक्त आ चुका है। इसके लिए पश्चिमी विश्वविद्यालयों से साझेदारी के अलावा भारतीय विश्वविद्यालयों के बीच आपसी सहयोग भी जरूरी है। यूनिवर्सिटी ऑफ टेनेसी में रिसर्च असिस्टेंट प्रोफेसर प्रियरंजन ने बताया कि ईंधन उत्पादन के क्षेत्र में अमेरिकी संस्थानों ने जिस तरीके से गठजोड़ किया उससे भारतीय विश्वविद्यालय सीख सकते हैं। अमेरिका के बॉयोएनर्जी सेंटर में सरकारी विश्वविद्यालयों और निजी संस्थानों के विशेषज्ञ मिलकर ईंधन उत्पादन के बेहतर तरीकों की खोज के लिए शोध करते हैं। कुमार ने बताया, “शोध के क्षेत्र में साझेदारी से कम समय में गुणवत्तापूर्ण रिसर्च संभव है और इससे एक ही तरह की परियोजनाओं के लिए विभिन्न विश्वविद्यालयों में संसाधनों का दुरुपयोग रुकता है।”

पश्चिमी विश्वविद्यालयों के साथ साझेदारी में छात्र और शिक्षक दोनों शामिल हो सकते हैं। पश्चिमी विश्वविद्यालयों के साथ एक हफ्ते से एक सेमेस्टर तक के शॉर्ट टर्म स्टूडेंट एक्सचेंज प्रोग्राम भारतीय छात्रों को अत्याधुनिक शोध के लिए प्रेरित करेंगे, जबकि अपने अमेरिकी समकक्षों का अनुकरण करते हुए भारतीय विश्वविद्यालय अंतरराष्ट्रीय शिक्षाविदों को एक सेमेस्टर से लेकर कुछ साल के लिए विजिटंग स्कॉलर के तौर पर लेटरल एंट्री दे सकते हैं। इससे अमेरिकी अकादमी के संपर्क में आने वाले शिक्षकों को एक्सपोजर और अमेरिकी विश्वविद्यालयों को अंतरराष्ट्रीय प्रतिभा का उपयोग करने का मौका मिलेगा।

हालांकि, साझेदारी में देश में शोध की गुणवत्ता को मजबूत करने की क्षमता है, लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि बीमारी गहरी है इसलिए बुनियादी स्तर यानी स्कूल और अंडरग्रेजुएट शिक्षा के स्तर पर इसका समाधान होना चाहिए। फोर्टिस मेमोरियल रिसर्च इंस्टीट्यूट के डॉक्टर गौरदास चौधरी ने बताया, “स्कूलों की पढ़ाई का तरीका रटंतू विद्या पर जोर देने वाला है, जिसे नए और अलग-अलग तरीके से सीखने की प्रक्रिया में बदला जाना चाहिए।” हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के जोसलीन डायबिटीज सेंटर के शोधकर्ता मनोज कुमार गुप्ता ने बताया, “विश्वविद्यालयों में अल्पकालिक ग्रीष्मकालीन कार्यक्रम हाईस्कूल के छात्रों के बीच शोध का माहौल तैयार करने में मददगार हो सकते हैं।” अमेरिका में ऐसी पहल लोकप्रिय है। रंजन ने बताया, “टेनेसी के ओक रिज नेशनल लैब (ओआरएनएन) में हाईस्कूल के छात्र तीन महीने के लिए आते हैं और संस्थान में चल रहे विभिन्न प्रकार के शोध के बारे में जानकारी हासिल करते हैं। यह शोधार्थी के तौर पर कॅरिअर बनाने के लिए उन्हें प्रेरित करता है, भले ही कई लोग ऐसा नहीं कर सकते।”

भारतीय विश्वविद्यालयों में निश्चित तौर पर स्नातक स्तर से ही जिज्ञासा की भावना को बढ़ावा देना चाहिए। विशेषज्ञों का कहना है कि भारतीय विश्वविद्यालय छात्रों को बुनियादी कौशल प्रदान करने पर ज्यादा जोर देते हैं, ताकि उन्हें नौकरी पाने में मदद मिले। गुप्ता ने बताया कि भारत के ज्यादातर अंडरग्रेजुएट और ग्रेजुएट पाठ्यक्रम शोध के लिए प्रेरित नहीं करते और इस तरह का पाठ्यक्रम तुरंत बदला जाना चाहिए। यह अमेरिकी विश्वविद्यालयों के काफी उलट है, जहां ज्यादातर सेमेस्टर, मास्टर लेवल के लंबे पाठ्यक्रम छात्रों के शोध आधारित आलेख, जो जर्नल में प्रकाशित हो सकते हैं, से समाप्त होते हैं। गुप्ता ने बताया, “शोध आधारित ज्ञान के मामले में भारत के मेरे अंडरग्रेजुएट दिनों के मुकाबले अमेरिका के अंडरग्रेजुएट छात्र ज्यादा बेहतर तरीके से तैयार होते हैं।” पश्चिम बंगाल के विश्वभारती यूनिवर्सिटी से रिटायर जूलोजी के प्रोफेसर परिमलेंदु हलदर ने बताया कि भारत में शोधकर्ताओं को डॉक्टोरल लेवल पर अमूमन उन विषयों को लेने के लिए मजबूर किया जाता है, जो वैश्विक स्तर पर काफी कम मायने रखते हैं। ऐसे छात्रों को अपने पर्यवेक्षक के द्वारा चुने गए विषय पर शोध करना पड़ता है। उनके मुताबिक डॉक्टोरल स्टूडेंट्स को शोध के अपने विचारों को आगे बढ़ाने की आजादी होनी चाहिए।

हालांकि, कई संकायों की प्राथमिकता नहीं होने के बावजूद शिक्षाविदों को अनुसंधान पर ध्यान केंद्रित किए जाने की उम्मीद है। चौधरी ने बताया, “भारत के मेडिकल कॉलेज में डॉक्टरों से रिसर्च के अलावा मरीजों का उपचार करने और पर्ची लिखने की उम्मीद की जाती है। एक डॉक्टर प्रतिदिन 60-70 रोगियों को देखने के बाद ही रिसर्च कर सकता है।” उन्होंने बताया कि शोध पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करने के लिए तत्काल विशेष संस्थानों की आवश्यकता है।

अमेरिका और यूरोप में हजारों भारतीय शिक्षाविद हैं जिनकी नियुक्ति भारतीय विश्वविद्यालय कर सकते हैं। हालांकि, यह कहने की ही बात है। चौधरी ने बताया, “कई भारतीय शिक्षाविद अपने वतन लौटना चाहते हैं, लेकिन उनके लिए भारतीय शिक्षा व्यवस्‍था में व्याप्त नौकरशाही से तालमेल बिठाना मुश्किल होगा।” अमेरिका में शोध कर रहे अपने लोगों को आकर्षित करने के लिए भारत चीन के मॉडल को अपना सकता है। अमेरिका और यूरोप से पीएचडी करने वाले शिक्षाविदों को चीन बेहतर वेतन और शोध को प्रोत्साहन देने की पेशकश करता है। इससे न केवल प्रतिभा का पलायन रुकता है, बल्कि यह चीन की शिक्षा व्यवस्‍था में नए विचार लाने में भी मददगार है।

जोखिम होने के कारण भारत में कुछ ही शिक्षाविद उच्च कोटि के शोध से जुड़ना चाहते हैं। चौधरी ने बताया कि शोध की पहल की कमी से निम्नकोटि के अनुसंधान को बढ़ावा मिलता है, जो केवल शिक्षाविदों के रेज्यूमे को और बेहतर करने के ही काम आता है। समस्या के केंद्र में भारतीय विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में संकाय की नियुक्ति का मसला है। कलकत्ता विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर ने अपनी पहचान जाहिर न करने की शर्त पर बताया, “देश भर की यूनिवर्सिटी में लेक्चरर की नियुक्ति प्रक्रिया पर गौर करें। नियुक्तियों में राजनीतिक दखलंदाजी से लेकर पक्षपात तक कुछ भी हो सकता है, लेकिन अकादमिक योग्यता नहीं।”

उन्होंने बताया कि शिक्षकों की खराब गुणवत्ता का नतीजा निम्नकोटि वाले शोध के तौर पर सामने आता है। व्यवस्था में एक बड़ी खामी जेआरएफ/एनईटी परीक्षा पास करने वाले असिस्टेंट प्रोफेसर की नियुक्ति पर जोर देना है। उनका कहना है कि ऐसा गुणवत्ता वाले शिक्षकों की भर्ती के लिए किया जाता है, लेकिन इससे शोध का मसला ठंडे बस्ते में चला जाता है। सरकारी संस्‍थानों से विश्वविद्यालयों को मिलने वाले अनुसंधान फंड की निगरानी को भी वे चिंता का एक बिंदु मानते हैं। वर्तमान में राज्य विश्वविद्यालयों की निगरानी की प्रणाली अपर्याप्त होने से धन की बर्बादी होती है।

विशेषज्ञों का कहना है कि केंद्रीय और राज्य विश्वविद्यालयों में शिक्षाविदों के कॅरिअर की उन्नति के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) को उच्चकोटि के जर्नल का प्रकाशन अनिवार्य कर देना चाहिए। वे शीर्ष अमेरिकी विश्वविद्यालयों की उस व्यवस्‍था की ओर इंगित करते हैं जहां नए असिस्टेंट प्रोफेसर को शोध पत्रिकाओं की एक सूची सौंपी जाती है जिसमें पदोन्नति के लिए अगले छह साल में उन्हें कई शोध प्रकाशित करने होते हैं। इस प्रकार प्रोफेसर को साफ पता रहता है कि उसका विभाग उससे क्या अपेक्षा रखता है।

(लेखक अमेरिका में शोधकर्ता और पत्रकार हैं)

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