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अनजाने रास्तों पर

एक ऐसी नौकरी जहां आपको रोजाना 500-600 कप चाय चखनी पड़े और उसके बदले अच्छाआ-खासा पैसा भी मिले! सुनने में बेहद दिलचस्प नहीं लगता? मगर टी टेस्टर बनने के लिए आपको किसी यूनिवर्सिटी या संस्थागन से प्रमाणित कोर्स करना होगा। इस पैकेज में हम भारत के शिक्षण संस्थाानों में चलाए जा रहे 8 सर्वाधिक अजीबोगरीब पाठ्यक्रमों से रूबरू करवाएंगे। इसमें कठपुतली कला में सर्टिफिकेट पाठ्यक्रम (मास्टकर्स कोर्स अब तक नहीं है) से लेकर फूड फ्लेवरिंग में डॉक्टसरेट तक तमाम ऐसे कोर्स हैं जो आपके कॅरिअर के लिए नया दरवाजा खोल सकते हैं।
कर‌िअॅर के नए दरवाजे

जन स्‍वास्‍थ्‍य कीटविज्ञान

विज्ञान में जंतुशास्‍त्र की विधा कीड़े-मकोड़ों के अध्‍ययन का जन स्‍वास्‍थ्‍य से क्‍या लेना-देना है? कीटों के अध्‍ययन और मानव समाज के विकास का रिश्‍ता प्रागैतिहासिक काल तक जाता है या कह सकते हैं उस दौर तक जब कृषि की खोज हुई, जिसके चलते दूसरे जीवों के माध्‍यम से कीटनाशकों के प्रयोग की जरूरत आन पड़ी। इसमें परजीवी कीटों के स्‍वाभाविक व्‍यवहार का मनुष्‍य ने कुशल प्रबंधन किया। इस क्षेत्र में निर्णायक मोड़ 1895 में आया जब अंग्रेजी फौज के डॉक्‍टर रोनाल्‍ड रॉस ने हिल स्‍टेशन ऊटी के करीब सिगुर घाट में दीवार पर चितकबरे पंखों वाला एक मच्‍छर देखा। इसके बाद वे इसकी पड़ताल में जुट गए और दो साल बाद उन्‍होंने मच्‍छर के पेट में मलेरिया पैदा करने वाले लार्वा यानी डिम्‍ब को खोज निकाला। इस खोज पर उन्‍होंने कुछ पंक्तियां लिखीं जिनका आशय कुछ यूं था, “मैंने लाखों लोगों को मौत का शिकार बनाने वाले बीजों को खोज निकाला है।” जन स्‍वास्‍थ्‍य के क्षेत्र में कीटविज्ञान के अनुप्रयोग की दिशा में रॉस की खोज ऐतिहासिक रही।

हमारे वक्‍त में अगर कोई रोनाल्‍ड रॉस की राह पर चलना चाहता हो तो वह उन कीटों का अध्‍ययन कर सकता है जो मानव स्‍वास्‍थ्‍य पर असर डालते हैं। इस काम में ऐसी तमाम कीट प्रजातियों के व्‍यवहार वगैरह पर शोध किया जाता है ताकि बचावकारी और प्रतिरोधक स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं में योगदान दिया जा सके। इस क्षेत्र में कई विश्‍वविद्यालय, सरकारी एजेंसियां और रसायन उद्योग प्रशिक्षित लोगों की खोज में रहते हैं ताकि उन्‍हें अपने यहां रोजगार दे सकें। पुदुच्चेरी यूनिवर्सिटी में वेक्‍टर कंट्रोल रिसर्च सेंटर दो साल का परास्‍नातक डिप्‍लोमा पाठ्यक्रम पब्लिक हेल्‍थ एन्‍टोमोलॉजी में संचालित करता है। यह इस क्षेत्र में सर्वाधिक प्रतिष्ठित प्रशिक्षण पाठ्यक्रम है। 

अलकोहल प्रौद्योगिकी

क्‍या आपने अपनी पसंदीदा शराब को कभी विश्‍व अर्थव्‍यवस्‍था में एक अहम योगदान देने वाली वस्‍तु के रूप में सोचा है? शराब का कारोबार काफी बड़ा है। दुनिया भर में मादक पेय पर बड़ी राशि खर्च की जाती है। शराब अधिकतर संस्‍कृतियों का सदियों से हिस्‍सा रहा है। इस उद्योग से काफी पैसा बनाया जा सकता है क्‍योंकि अंगूर के बगीचों से लेकर शराब की ब्रुअरी, डिस्टिलरी, वाइन निर्माताओं, बार, पब, रेस्‍त्रां और होटलों तक में आकर्षक रोजगार उपलब्‍ध हैं। तमाम ऐसे लोग हैं जो शराब बनाकर, बेचकर, परोस कर या उसकी सिफारिश करके जीवनयापन कर रहे हैं। इस कारोबार में ब्रुअर या डिस्टिलर बनने का विकल्‍प अपने आप में विशिष्‍ट है। इसके लिए तकनीकी कौशल की जरूरत होती है और विज्ञान या इंजीनियरिंग की पृष्‍ठभूमि आवश्‍यक है।

अलकोहल का कारोबारी इस्‍तेमाल खूब होता है और चीनी उद्योग से यह काफी करीब से जुड़ा है। भारत में इस क्षेत्र में सबसे ज्‍यादा मांग जिस पाठ्यक्रम की है वह है शुगर और अलकोहल प्रौद्योगिकी में चार साल का बीटेक। यह कोर्स वे लोग कर सकते हैं जिनकी इंटर तक की पढ़ाई भौतिकी, गणित, रसायन या अन्‍य किसी तकनीकी विषय में हुई हो (कंप्‍यूटर, जीवविज्ञान या जैव-प्रौद्योगिकी)। यह पाठ्यक्रम चलाने वाले कुछ ही संस्‍थान हैं, जैसे अमृतसर स्थित गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी जहां के पाठ्यक्रम में चीनी और अलकोहल के उत्‍पादन के हर पहलू को समग्रता से कवर किया जाता है। यहां दाखिला राज्‍यस्‍तरीय परीक्षा या फिर एआइईईई या जेईई जैसी राष्‍ट्रीय स्‍तर की प्रवेश परीक्षाओं से होता है। वैसे कुछ संस्‍थान क्‍वालिफाइंग परीक्षा के मेरिट के आधार पर ही दाखिला देते हैं। भारत अब दुनिया का “एथेनॉल केंद्र” बनकर कर उभर रहा है और आने वाले वर्षों में जैव-ईंधनों की मांग बढ़ेगी ही, लिहाजा रोशन भविष्‍य के लिए शुगर और अलकोहल प्रोडक्‍शन में बीटेक एक अच्‍छा निवेश साबित हो सकता है।

संग्र‍हालय विज्ञान

आप इसे अच्‍छा कहें या बुरा, लेकिन हमारे सार्वजनिक दायरे का कॉरपोरेटीकरण धीरे-धीरे एक स्‍वीकार्य सच्‍चाई में तब्‍दील होता जा रहा है। डालमिया समूह ने लाल किले को अपने नियंत्रण में ले लिया है। यह घटना मोटे तौर पर उस दिशा का आभास कराती है जिधर चीजें जा रही हैं- इसे कॉरपोरेट संरक्षण कहते हैं। अब यह हो चुका है तो इतना बुरा भी नहीं है। भारतीय पुरातत्‍व सर्वे (एएसआइ) ने बीते दशकों में कोई बहुत शानदार काम नहीं किया है। जल्‍द ही हम पाएंगे कि देश भर के संग्रहालय भी कॉरपोरेट के हवाले हो जाएंगे। रिमेम्‍बर भोपाल म्‍यूजियम में क्‍यूरेटर और संग्रहालयविज्ञानी तथा वाचिक परंपरा के इतिहासकार रमा लक्ष्‍मी कहती हैं, “भारत में निजी संग्रहालयों की बढ़ती संख्‍या के साथ यह पाठ्यक्रम अब शुरू होने को है। दुनिया भर के संग्रहालय परामर्शदाता भारत में काम शुरू कर चुके हैं। इस पेशे के शुरू होने के लिए यह वक्‍त बिलकुल उपयुक्‍त है।” यह निजीकरण चीजों को प्रतिस्‍पर्धी भी बनाएगा। लिहाजा, हम मान सकते हैं (और यह उम्‍मीद भी की जानी चाहिए) कि एएसआइ अपने क्षेत्र को बचाने के लिए अब कुछ हरकत में आए।

हमारे लिए इस सब में सर्वाधिक अहम बात यह होगी कि इससे पुरातत्‍व और क्‍यूरेशन के क्षेत्र में पेशेवरों की मांग बढ़ेगी। अच्‍छी बात यह है कि भारत में संग्रहालय विज्ञान के अध्‍ययन का इतिहास समृद्ध रहा है। भारत में यूनेस्‍को प्रायोजित 1965 के एक दौरे के दौरान शिक्षाशास्‍त्री फिलिप रॉसन ने कहा था, “भारत संग्रहालयशास्‍त्र के छात्रों के विश्‍वविद्यालयी प्रशिक्षण में दुनिया की अगुआई कर रहा है।” हम जानते हैं कि तब से लेकर अब तक चीजें सही दिशा में नहीं रही हैं लेकिन अब इन पाठ्यक्रमों की पड़ताल करने का सही समय आ गया है। इस क्षेत्र में विकल्‍पों की भी कोई कमी नहीं है- एमएसयू बड़ौदा 1952 से ही संग्रहालय विज्ञान में एमए का पाठ्यक्रम चला रहा है। कलकत्‍ता विश्‍वविद्यालय में यह कोर्स 1959 से जारी है। इसके अलावा दिल्‍ली का राष्‍ट्रीय संग्रहालय खुद कला, संरक्षण और संग्रहालयशास्‍त्र पर पाठ्यक्रम चलाता है। कई और ऐसे संस्‍थान देश में हैं।

पालतू पशुओं की देखभाल

पिछले जमाने में पेट ग्रूमिंग यानी पालतू पशुओं की देखभाल सुनते ही डिजनी के कुत्ते की छवि सामने आ जाती थी। हाल तक पेट ग्रूमिंग को ऊंचे लोगों के समाज के साथ जोड़ कर देखा जाता था। अच्‍छी बात यह है कि पशु प्रेमियों की इस नई पीढ़ी में पेट ग्रूमिंग अब एक नए कॅरिअर के बतौर सामने आया है और इसमें पैसे भी ठीकठाक हैं। पशुओं के व्‍यवहार को जानने वाली पेट ग्रूमर शिरीन मर्चेंट कहती हैं, “इंटरनेट अैर वि‌भिन्‍न मीडिया चैनलों का शुक्रिया कि भारत के लोग अब इस पेशे के प्रति जागरूक हो रहे हैं-हमारे पास ऐसे लोगों के सैकड़ों अनुरोध आते हैं जो पेट ग्रूमिंग को अपना कॅरिअर बनाना चाहते हैं।” मर्चेंट ‘केनाइंस कैन केयर’ नाम का एक स्वयंसेवी संगठन चलाती हैं जो कुत्तों के लिए काम करता है।     

आजकल पालतू पशुओं के व्‍यापारियों और खरीदारों को पशुओं के साथ अनुकूलन से जुड़ी अजीबोगरीब अपेक्षा रहती है। ऐसे में ग्रूमिंग का विकल्‍प उनके लिए राहत लेकर आया है। आज अच्‍छी खासी संख्‍या में ग्रूमिंग सेंटर देश भर में खुल गए हैं। इनके भविष्‍य में और बढ़ने की उम्‍मीद है।

पेट ग्रूमिंग प्रोफेशनल आपको चुनाव करते वक्‍त सतर्क रहने की सलाह देंगे क्‍योंकि यह क्षेत्र केवल उन्‍हीं के लिए है जो पशुओं को लेकर संजीदा होते हैं। आप यदि सतर्क हैं, तो वि‌भिन्‍न संस्‍थानों में अलग-अलग पाठ्यक्रमों को चुन सकते हैं। ऐसे अधिकतर संस्‍थान अपने आप में पेट ग्रूमिंग केंद्र का काम करते हैं। मुंबई का ‘केनाइंस कैन केयर’ ऐसा ही एक संस्‍थान है। दिल्‍ली का ‘स्‍कूपी स्‍क्रब’ भी इस क्षेत्र में प्रशिक्षण चलाता है।

कठपुतली कला

डोर से चलाई जाने वाली कठपुतलियां और उनका नाच एशियाई कल्‍पनालोक का पुराना अंग रहा है। इंडोनेशिया की वयांग कठपुतली कला जैसी परंपरा इसी का हिस्‍सा है जो रामायण के नाट्य मंचन के लिए मशहूर है। भारत में इन दिनों कठपुतली कला दोबारा जीवित हो रही है। अब पहले से ज्‍यादा मंचीय प्रदर्शन किए जा रहे हैं। आज इस कला के नए संरक्षक के रूप में ऐसे स्‍कूल उभरे हैं जिन्‍होंने शैक्षणिक संदेश देने के लिए इस कला को अपनाया है। लिहाजा ऐसे संस्‍थान भी खुल गए हैं जो कठपुतली कला में औपचारिक पाठ्यक्रम चला रहे हैं।

ऐसा पहला पाठ्यक्रम विश्‍व प्रसिद्ध कठपुतली कलाकार और बाल रंग निर्देशक मीना नाइक ने मुंबई यूनिवर्सिटी में शुरू किया था। आज वे यहां कठपुतली विभाग की प्रमुख हैं। यह स्कूल चार महीने का एक पाठ्यक्रम हर साल चलाता है जिसमें सैद्धांतिक विषय जैसे कठपुतली कला का इतिहास पढ़ाया जाता है। साथ ही व्‍यावहारिक प्रशिक्षण, जैसे वॉयस मॉड्युलेशन, पटकथा लेखन और मंचाचार आदि सिखाया जाता है। मूल्‍यांकन में व्‍यावहारिक पक्ष को ज्‍यादा तरजीह दिया जाता है। पूर्व छात्रा माधुरी काले कहती हैं, “बहुत से लोगों को यही पता है कि कठपुतली कला के पाठ्यक्रम में आपको कठपुतलियां बनाना सिखाया जाता है लेकिन एक अच्‍छी स्क्रिप्‍ट लिखना, शो की परिकल्‍पना और कठपुतलियों का अभिनय बराबर अहमियत रखता है।” यहां की फैकल्‍टी में पारंपरिक कठपुतली कलाकार और आधुनिक विशेषज्ञ दोनों ही हैं। कोलकाता पपेट थिएटर भी ऐसा एक कोर्स कथित रूप से शुरू करने जा रहा है।

परंपरागत रंगमंच के बाहर भी कठपुतलियों का कई तरीकों से इस्‍तेमाल किया जा सकता है- टीवी मनोरंजन और विज्ञापनों में, परंपरागत शैक्षणिक उद्देश्‍य के लिए जैसे भाषा शिक्षण, साथ ही पर्यावरण, यौन दुराचार आदि के बारे में जागरूकता पैदा करने संबंधी सामाजिक संदेशों के प्रसार के लिए। किस्‍सागोई के एक आसान लेकिन पुराने तरीके के रूप में यह कला उन लोगों के लिए आकर्षक है जो कोई रचनात्‍मक कॅरिअर चुनने की मंशा रखते हैं।

टी टेस्टर

आप चाय कहें या टी, उसका मिश्रण सही होना चाहिए। जाहिर है मिश्रण को चखने के लिए किसी की जरूरत भी होती होगी। चाय का जायका पकड़ने का कॅरिअर कुछ कुदरती गुणों की भी मांग करता है-मसलन आपके जायके वाली ग्रंथियां संवेदनशील होनी चाहिए। इन्‍हें दुरुस्‍त रखने के लिए जरूरी है कि आप धूम्रपान न करते हों, श‍राब न पीते हों और ज्‍यादा मसालेदार खाना न खाते हों। साथ ही पाठ्यक्रमों और वास्‍तविक तजुर्बे से आपको इन ग्रंथियों का पोषण भी करना होता है।

आपको यह कॅरिअर चुनने पर रोजाना पांच से छह सौ कप चाय चखनी पड़ सकती है और आपसे उम्‍मीद की जाती है कि आपका निर्णय मानकों पर खरा उतरे। पश्चिम बंगाल में चाय बागान की प्रबंधक अनन्‍या सान्‍याल कहती हैं, “गुणवत्ता के हर स्‍तर में बारीक फर्क होता है। एक टी टेस्‍टर को कुछ घूंट लेकर ही सही मूल्‍यांकन करना होता है।” यदि आप वनस्‍पतिशास्‍त्र, बागवानी या खाद्य विज्ञान में स्‍नातक हैं तो आपके लिए यह रास्‍ता आसान है। इसके बाद बस टी-टेस्टिंग में एक विशिष्‍ट कोर्स की जरूरत होती है। यह तीन महीने के सर्टिफिकेट पाठ्यक्रम से लेकर साल भर के डिप्‍लोमा तक हो सकता है जो कई संस्‍थानों में चलता है।

इनमें असम कृषि विश्‍वविद्यालय, कोलकाता स्थित डिप्रास इंस्टीट्‍यूट ऑफ प्रोफेशनल स्‍टडीज, दार्जिलिंग टी रिसर्च ऐंड मैनेजमेंट एसोसिएशन, दार्जिलिंग स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ नॉर्थ बंगाल, कोलकाता स्थित बिड़ला इंस्टीट्‍यूट ऑफ मैनेजमेंट ऐंड फ्यूचरिस्टिक स्‍टडीज और बेंगलूरू का इंडियन इंस्टीट्‍यूट ऑफ प्‍लांटेशन मैनेजमेंट शामिल हैं। टी स्‍टेट मैनेजमेंट में परास्‍नातक की डिग्री भी नियोक्‍ताओं के समक्ष आपको योग्‍य बना सकती है। शुरुआती वेतन 20,000 से 25,000 के बीच हो सकता है जो आगे जाकर 50,000 तक पहुंच सकता है। संभव है आप पूर्णकालिक चाय परिचारक ही बन जाएं।

कला संरक्षण

कलाकृतियों को संरक्षित करने का काम बहुत सूक्ष्‍म होता है। तस्‍वीरों, शिल्‍प कलाकृतियों और पांडुलिपियों में समय के साथ हुए नुकसान को कुछ इस बारीकी से दुरुस्‍त किया जाना होता है कि उनके मूल स्‍वरूप के साथ छेड़छाड़ न होने पाए। कला संरक्षण में कॅरिअर बनाने के लिए पुरातत्‍व या इतिहास में स्‍नातक की डिग्री के साथ कला और कलाकारों का कुछ ज्ञान जरूरी है। सीखने का ज्‍यादातर काम तो व्‍यावहारिक ही होता है और कला संरक्षक के तौर पर गंभीरता से लिए जाने के लिए आम तौर से संग्रहालयों और कला दीर्घाओं में काफी अनुभव की जरूरत पड़ती है। अपनी पसंद के काम से आजीविका चलाने की इच्‍छा रखने वाले कलाप्रेमी दिल्‍ली के राष्‍ट्रीय संग्रहालय, मैसूर विश्‍वविद्यालय, इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय या हरियाणा की कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी से संरक्षण में प्रशिक्षण ले सकते हैं। नौकरियों में सर्वाधिक मांग उनकी है जो लखनऊ, दिल्‍ली और कोलकाता स्थित राष्‍ट्रीय संग्रहालय के केंद्रों से और इंडियन नेशनल ट्रस्‍ट फॉर आर्ट ऐंड कल्‍चरल हेरिटेज (इनटैक) से पढ़कर निकले हैं। इनटैक एक शुल्‍क के बदले निजी संग्राहकों और अन्‍य संस्‍थानों को कला संरक्षण की अपनी सेवाएं देता है। इस क्षेत्र में प्रतिष्ठित होने के बाद पेशेवर कला संरक्षक चाहे तो अपनी कला संरक्षण एजेंसी भी खोल सकता है। ऐसे कारोबार की लागत हालांकि बहुत ज्‍यादा होती है लेकिन उसके बदले अच्‍छी कमाई भी होती है जो जोखिम लेने को प्रेरित कर सकती है। 

फूड फ्लेवरिस्ट

हर चीज छोटे-छोटे परमाणुओं से मिलकर बनी है। आप जो कुछ खाते हैं, उसमें भी परमाणु यानी मॉलेक्‍यूल्‍स होते हैं। आपकी जीभ जिस चिप्‍स या कैंडी या प्रसंस्‍करित मीट की आदी है, वह सब रसायनशास्‍त्र का खेल है और प्रसंस्‍करित भोजन को आए भी एक सदी हो चुकी। खाद्य संस्‍कृति से जुड़ी एक नई शाखा आई है “मॉलेक्‍यूलर गैस्‍ट्रोनॉमी।” इसका लेना-देना खाने की चीजों में स्‍वाद वाले इंजेक्‍शन देने और थाली में असामान्‍य रूप से रंगीन खाद्य वस्‍तुएं परोसने से है। जैसा सुनने में लगता है, यह काम उतना बुरा भी नहीं है। पेय पदार्थों में कॉकटेल होते हैं जो इस श्रेणी में आते हैं। कुल मिलाकर एक फूड फ्लेवरिस्‍ट या खाद्य परिचारक के लिहाज से यह समय काफी दिलचस्‍प है। परिचारक का मतलब ऐसा व्‍यक्ति जिसकी जीभ वह स्वाद पकड़ना जानती हो, जो कारोबार को ऊंचा उठाए। इसके लिए आपकी जीभ में स्‍वाद को पकड़ने की सलाहियत होनी चाहिए और व्यंजनों की बारीकियों में दिलचस्‍पी होनी चाहिए।

इसके अलावा स्‍कूल में विज्ञान की पढ़ाई ऐसे पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए अनिवार्य है। खाद्य रसायनशास्‍त्र के क्षेत्र में कदम रखने से पहले हो सकता है कि विज्ञान से स्‍नातक करने की भी जरूरत पड़े। फिलहाल, भारत में कोई विशिष्‍ट फूड फ्लेवरिस्‍ट पाठ्यक्रम अब तक नहीं उपलब्‍ध हैं लेकिन कुछ संबद्ध पाठ्यक्रम आपको वहां पहुंचा सकते हैं। मसलन, चेन्‍नै के लोयोला कॉलेज में फूड केमिस्‍ट्री और फूड प्रोसेसिंग में एमएससी का कोर्स चलता है। इसके अलावा कुछ आइआइटी संस्‍थानों में भी फूड केमिस्‍ट्री में परास्‍नातक कोर्स चलते हैं। आइएचएम-औरंगाबाद में भी फूड प्रोसेसिंग का एक कोर्स चलता है।

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