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नतीजों के राष्ट्रीय मायने

कर्नाटक के चुनाव इस यक्ष प्रश्न का जवाब नहीं देते कि 2019 के लिए सच्चे विकल्प की राह कैसे खुलेगी
नाटकीयता पूरीः मल्लिकार्जुन खड़गे, एच.डी. कुमारस्वामी, गुलाम नबी आजाद और सिद्धरमैया (बाएं से दाएं)

कर्नाटक के चुनाव आए और चले गए, लेकिन 2019 की डगर से धुंध और गुबार नहीं छंटा। कांग्रेस मुक्त भारत का भाजपा का अश्वमेध का घोड़ा रुका नहीं तो अटक जरूर गया है।

गुजरात के चुनाव में भाजपा का कमजोर प्रदर्शन, उसके बाद अनेक उपचुनावों में पार्टी की हार और अब कर्नाटक में बहुमत से पहले रुक जाना। इस सबको नरेंद्र मोदी से मोहभंग का पक्का सबूत तो नहीं माना जा सकता, लेकिन एक बात तय है कि पहले तीन साल मोदी का जादू जिस तरह ‌सिर चढ़कर बोला था, वह स्थिति अब नहीं है। मीडिया और देश को दिखाने के लिए मोदीजी भले ही जो दावे करें, लेकिन वे खुद जानते हैं कि विंध्य में भाजपा की शुरुआत 1991 में हो चुकी थी, कर्नाटक में उनके बिना 2008 में भाजपा इससे बड़ी सफलता हासिल कर चुकी थी। अगर मोदीजी की आंधी चल रही होती तो इस बार कर्नाटक में भाजपा वोट की संख्या में कांग्रेस से दो प्रतिशत पीछे नहीं रहती, बल्कि चार-पांच फीसदी आगे होती, उसकी सीटें 104 पर न अटकतीं, बल्कि 160 या 180  के करीब पहुंचतीं। साफ बात है तिलिस्म टूट रहा है। इसके साथ-साथ बढ़ रही है भाजपा खेमे की घबराहट।

उधर, कांग्रेस के लिए भी खबर अच्छी नहीं है। गुजरात में चुनाव हारने के बावजूद कांग्रेस ने अपनी वापसी का दावा ठोकना शुरू किया था। राजस्थान के उपचुनाव और सोशल मीडिया पर राहुल गांधी के तेवर से इस कहानी को बल मिला था। लेकिन कर्नाटक में इस दावे का भांडा फूट गया। कर्नाटक में कांग्रेस के पास एक जमीनी और सामाजिक आधार वाला नेता था, जिसका मुकाबला येदियुरप्पा जैसे बड़बोले और बदनाम नेता से था। कर्नाटक में कांग्रेस की तुलना में भाजपा में ज्यादा अंदरूनी खींचतान थी। कर्नाटक देश का शायद अकेला राज्य है, जहां येदियुरप्पा और रेड्डी बंधुओं के चलते भ्रष्टाचार के लिए भाजपा कांग्रेस से भी ज्यादा बदनाम है। प्रदेश में कांग्रेस ने अपने राज में कोई तीर नहीं मार लिए थे, लेकिन सत्ताधारी दल के विरुद्ध एंटी-इंकंबेंसी की आंधी नहीं चल रही थी। इस सबके बावजूद कांग्रेस कर्नाटक हार जाती है, तो वह भाजपा का मुकाबला कहां कर पाएगी।

कुल मिलाकर आगामी लोकसभा चुनाव में विकल्प की जरूरत पहले से बढ़ रही है। लेकिन विकल्प की संभावना पहले से मद्धिम हो रही है। भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता घट रही है, लेकिन उस अनुपात में कांग्रेस और राहुल गांधी की लोकप्रियता बढ़ नहीं रही है। क्षेत्रीय दल इस खाली जमीन के दावेदार हो सकते थे। लेकिन उनमें से अधिकांश की स्थिति कर्नाटक के जनता दल सेकुलर जैसी ही है। उन्हें सत्ता की लूट से मतलब है। ले-देकर यही संभावना दिखाई देती है कि अब सांप्रदायिकता विरोध के नाम पर सभी गैर-भाजपा दलों का महागठबंधन तैयार किया जाएगा।

सवाल यह है कि क्या ऐसा गठबंधन 2019 में देश को विकल्प दे पाएगा? आज भाजपा सरकार और संघ परिवार मिलकर भारतीय गणतंत्र की जड़ खोदने पर आमादा हैं। क्या विपक्षी दलों का गठबंधन गणतंत्र को इस भयावह खतरे से बचा पाएगा? भाजपा के मुकाबले एक देशव्यापी विकल्प खड़ा करने की चार शर्तें हैं। पहला, देश के लिए एक नई दृष्टि हो, नीतियां हों, समझ हो। दूसरा, चुनाव में भाजपा की चाणक्य नीति का मुकाबला करने की रणनीति हो। तीसरा, भाजपा की चुनावी मशीन का मुकाबला करने के लिए शीर्ष से लेकर पन्ना प्रमुख तक संगठन हो। चौथा, इस नए विकल्प को जनता के सामने पेश करने वाला एक नया विश्वसनीय चेहरा हो। विपक्षी गठबंधन की कवायद में इनमें से कोई भी शर्त पूरी होती दिखाई नहीं देती।

ऐसे में अगर उम्मीद बनती है तो वह संसद से नहीं, सड़क से है। पिछले चार साल में जनता के असंतोष और प्रतिरोध को आवाज देने का काम संसदीय विपक्ष ने नहीं, जनांदोलनों ने किया है। किसान आंदोलन, युवाओं का प्रतिरोध, दलित संघर्ष और महिलाओं की सुरक्षा को लेकर प्रदर्शन सब राजनैतिक दलों के दायरे से बाहर हुए हैं। क्या जन आंदोलनों की इस ऊर्जा को 2019 के चुनाव में सच्चा विकल्प खड़ा करने की आवश्यकता से जोड़ा जा सकता है? कर्नाटक का चुनाव इस यक्ष प्रश्न का उत्तर नहीं देता।

(लेखक स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं। लेख चंदन कुमार से बातचीत पर आधा‌रित है )

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