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सांस्कृतिक वर्चस्व और बहुजन प्रतिपरंपरा

महिषासुर परिघटना का जन्म ‘सांस्कृतिक उपनिवेश’ और ‘हिंसात्मक सांस्कृतिक प्रदर्शन’ के खिलाफ हुआ है
महिषासुर मिथक व परंपराएं

भारतीय जनतंत्र आज जिन चुनौतियों और उथल-पुथल से रूबरू है वे महज राजनीतिक और आर्थिक ही नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक भी हैं। लंबे समय तक वर्चस्वशाली परंपराओं द्वारा बेदखल श्रमशील समाज की परंपराएं अब अपनी सांस्कृतिक जड़ों की तलाश ही नहीं कर रहीं, बल्कि प्रभुत्वशाली संस्कृति की एकआयामी समझ को प्रश्नांकित भी कर रही हैं। फॉरवर्ड प्रेस बुक्स की महिषासुर–मिथक व परंपराएं (संपादकः प्रमोद रंजन) ऐसी ही पहल है। पिछले कुछ वर्षों में महिषासुर और उससे जुड़े मिथकों को लेकर विश्वविद्यालयों के प्रांगण से संसद तक गहमागहमी रही है। ऐसे में इस पुस्तक का प्रकाशन महिषासुर मिथक भेदन के साथ उसकी ऐतिहासिकता को तलाशने का जरूरी उपक्रम है। इसमें शामिल लेख महज अवधारणाओं और जनश्रुतियों का ही भाष्य नहीं करते बल्कि पुरातात्विक साक्ष्य, ऐतिहासिक संदर्भ, भौगोलिक भिन्नता और पौराणिक संदर्भों से गुजरते हुए महिषासुर के मिथक की तलाश करते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत जैसे बहुलवादी विशालकाय समाज में सांस्कृतिक बहुलता के घटाटोप में प्रायः अभिजन मुहावरे में ही सांस्कृतिक भिन्नता की चर्चा होती रही है। श्रमशील बहुजन समाज की संस्कृति और परंपरा को प्रायः असभ्य, सुरुचिविहीन और गैर-सांस्कृतिक करार देकर हाशिए पर ढकेलने की दुरभिसंधि होती रही है। महिषासुर-मिथक व परंपराएं इसके विरुद्ध बौद्धिक हस्तक्षेप सरीखा है।

कुल छह खंडों की इस पुस्तक का पहला खंड महिषासुर के चिह्नों की तलाश करते बुंदेलखंड, छोटा नागपुर, राजस्थान, कर्नाटक और महाराष्ट्र के इलाकों का शोधपरक यात्रा वृतांत है जिसमें इतिहास और संस्कृति के प्रसंगों को लोकस्मृति और पुरातात्विक साक्ष्यों के माध्यम से अनावृत्त किया गया है। इस यात्रापरक शोध का महत्वपूर्ण पहलू यह स्थापना है कि “आदिवासी परंपराएं ही रूपांतरित होकर अन्य पिछड़ी जातियों, दलित जातियों समेत अद्विज समुदाय के एक वृहत हिस्से तक पसरी हैं।” किंचित बदले हुए रूप में हिमालय के दुर्गम इलाके में भी महिषासुर की बहुजन श्रमण परंपरा की मौजूदगी इसके भौगोलिक विस्तार का ही द्योतक है। दूसरे खंड ‘मिथक व परंपराएं’ में गौरी लंकेश का महिषासुर के बारे में किया गया प्रश्न “महिषासुर दैत्य या महान उदार द्रविड़ शासक, जिसने अपने लोगों की लुटेरे-हत्यारे आर्यों से रक्षा की?” समूची बहस को दो-टूक लहजे में प्रस्तावित करता है। ज्योतिबा फुले और आंबेडकर के संदर्भ और कर्नाटक के स्थानीय लोगों के साक्ष्य के आधार पर गौरी लंकेश ने लिखा है, “बंगाल या झारखंड में ही नहीं, बल्कि मैसूर के आस-पास भी कुछ ऐसे समुदाय हैं जो चामुंडी का उनके महान उदार राजा (महिषासुर) की हत्या के लिए तिरस्कार करते हैं।” इसी खंड में बी.पी. महेश चंद्र गुरु ने महिषासुर को कर्नाटक की बौद्ध परंपरा से जोड़ते हुए कई मिथकों का भेदन किया है। तीसरे खंड में महिषासुर आंदोलन की सैद्धांतिकी को लेकर निवेदिता मेनन, नूर जहीर, अनिल कुमार और ओमप्रकाश कश्यप के लेख हैं। अनिल कुमार का यह निष्कर्ष ध्यान देने योग्य है कि “महिषासुर परिघटना का जन्म ‘सांस्कृतिक उपनिवेश’ और ‘हिंसात्मक सांस्कृतिक प्रदर्शन’ के खिलाफ हुआ है। भारत में यह सांस्कृतिक उपनिवेश ब्राह्मणवादी संस्कृति के रूप में है और इस उपनिवेश के शिकार बहुजन हैं। बहुजन इस उपनिवेश को चुनौती दे रहे हैं।” दरअसल, महिषासुर की परिघटना के विरोध और समर्थन के मूल में मिथकीय और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के साथ बहुजन समाज की वह मौजूदा प्रतिरोधी चेतना भी है जिसकी प्रेरणा के मूल में ज्योतिबा फुले, पेरियार और आंबेडकर शा‌मिल हैं।

पुस्तक में ‘असुर : संस्कृति और समकाल’ शीर्षक खंड के लेखों में ‘असुरों के जीवनोत्सव’, ‘शापित असुर : शोषण का राजनैतिक अर्थशास्‍त्र’, ‘कौन हैं वेदों के असुर?’ लेखों में असुर की वर्चस्वशाली अवधारणा का खंडन करके श्रमशील समाज के संदर्भों को उद्‍घाटित किया है। साहित्य खंड और परिशिष्ट की सामग्री भी बहुजन संस्कृति के अलक्षित प्रसंगों की ओर ध्यान दिलाती है। आज के समय में जब ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ की भेड़चाल में भारतीय समाज की बहुलवादी सांस्कृतिक पहचान का अस्तित्व संकट में है तब उम्मीद की जानी चाहिए कि महिषासुरः मिथक व परंपराएं नए संवाद की पहलकदमी में सहायक होगी।

(लेखक हिंदी के प्रतिष्ठित वरिष्ठ आलोचक हैं)

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