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शहरों को स्मार्ट होने का इंतजार

स्मार्ट सिटी मिशन का दो फीसदी फंड भी खर्च नहीं हो पाया
सोच में ही खोटः शहरों में बुनियादी ढांचे के अभाव पर ध्यान नहीं

“हम 100 नए शहर बसाने की शुरुआत करेंगे। नवीन तकनीक और बुनियादी सुविधाएं इस तरह की बनाई जाएंगी, जिससे सतत विकास की धारणा मजबूत हो।”

भाजपा के 2014 के चुनावी वादों की फेहरिस्त में यह बड़ी सुर्खियां बटोरने वाली घोषणाओं में एक थी। शहरों में बसी देश की करीब एक-तिहाई आबादी के लिए यह सुनहरा ख्वाब था जो बसने से पहले ही टूट गया। केंद्र की सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने 100 नए स्मार्ट सिटी बसाने के वादे को बदलकर 100 पुराने शहरों को स्मार्ट बनाने के मिशन में तब्दील कर दिया। शहरी नियोजन के विशेषज्ञ और अहमदाबाद की सेप्ट यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर शाश्वत बंदोपाध्याय कहते हैं, “100 नए शहर बसाना तकरीबन नामुमकिन काम था। शायद ज्यादा सोच-विचार किए बगैर 100 नए स्मार्ट सिटी बसाने का ऐलान कर दिया गया।”

बंदोपाध्याय की बात से इसलिए भी सहमत हुआ जा सकता है क्योंकि मोदी सरकार का पहला डेढ़ साल स्मार्ट सिटी की परिभाषा, दायरा तय करने और 100 शहरों के चयन की प्रक्रिया शुरू करने में निकल गया। जयपुर, जबलपुर, इंदौर, उदयपुर, लुधियाना और भोपाल समेत कुल 20 शहरों के चयन के बाद शहरों को स्मार्ट बनाने का काम 2016 में शुरू हो पाया। हालांकि, बंदोपाध्याय मानते हैं कि धीमी प्रगति और कई खामियों के बावजूद अहमदाबाद, पुणे जैसे कई शहरों में स्मार्ट सिटी के तहत कॉमन सर्विस सेंटर तैयार हुए हैं जो काफी अच्छा काम कर रहे हैं। लेकिन महानगरों की चुनौतियों को देखते हुए अभी बहुत कुछ करना बाकी है। 

स्मार्ट सिटी मिशन मोदी सरकार की उन घोषणाओं में शुमार है जिनका शुरुआती वर्षों में जोरशोर से ऐलान हुआ था, लेकिन हाल के महीनों में इसका ज्यादा जिक्र नहीं हुआ। न ही जमीन पर इसका खास असर दिखाई दिया। पिछले मार्च में वित्त मंत्रालय ने केंद्र सरकार के प्रमुख कार्यक्रमों का एक आंतरिक मूल्यांकन किया था, जिसमें स्मार्ट सिटी मिशन की प्रगति को बेहद धीमा पाया गया। शहरी विकास पर संसद की स्थायी समिति ने भी स्मार्ट सिटी मिशन के रफ्तार नहीं पकड़ पाने को लेकर केंद्र सरकार को चेताया था। अपनी रिपोर्ट में संसदीय समिति ने बताया कि शहरी विकास से जुड़े सभी मिशन में स्मार्ट सिटी में सबसे कम केवल 1.83 फीसदी (182 करोड़ रुपये) फंड खर्च हो पाया है। रिपोर्ट के मुताबिक, 100 स्मार्ट सिटी  को पांच साल में 48 हजार करोड़ रुपये की सहायता का भरोसा दिया गया था, लेकिन अब तक केवल 15 हजार करोड़ रुपये का बजट प्रावधान रखा गया है। पहले तीन साल में संशोधित बजट प्रावधान 10 हजार करोड़ रुपये रहा, जबकि जमीन पर वास्तविक खर्च इससे भी कम है। इतना ही नहीं, संसदीय समिति ने स्मार्ट सिटी मिशन की प्रगति पर चिंता जाहिर करते हुए माना है कि लोगों को अभी तक इसका असर दिखाई नहीं पड़ा है। 

शहरी विकास से जुड़े मामलों के जानकार इंदु प्रकाश सिंह कहते हैं कि शहरों की बदहाली, बुनियादी ढांचे के अभाव जैसी शहरी जनता की समस्याओं से ध्यान हटाकर जिस तरह स्मार्ट सिटी की कल्पना की गई, उसी में खोट था। अब खानापूर्ति करने का दौर चल रहा है। आंकड़ों के आईने में देखें तो स्मार्ट सिटी मिशन बहुत भव्य योजना नजर आती है। इससे भारतीय शहरों के कायाकल्प का भ्रम होता है। अब तक कुल 99 शहरों को इस मिशन के लिए चुना गया है, जिसमें दो लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की परियोजनाओं को चिह्नित किया गया है। इनमें केंद्र, राज्य और निजी भागीदारी से लागू होने वाले प्रोजेक्ट हैं।

स्मार्ट सिटी मिशन की धीमी प्रगति के लिए शहरी विकास मंत्रालय के अधिकारी राज्य सरकारों और नगर निकायों के ढुलमुल रवैए को जिम्मेदार मानते हैं। जबकि नगर निकायों की अपनी दुविधाएं हैं। मिसाल के तौर पर, स्मार्ट सिटी मिशन में शामिल हुए अजमेर को जिस प्राइवेट कंसल्टेंसी से मदद मिलनी थी, वही डिफॉल्टर निकली और उससे करार तोड़ना पड़ा।

नगर निकायों के अधिकारियों का कहना है कि स्मार्ट सिटी के तहत केंद्र ने बुनियादी ढांचे और सुविधाओं में सुधार पर जोर देने के बजाय आइटी आधारित प्रोजेक्ट लागू करने पर ज्यादा जोर दिया। इससे परामर्शदाता फर्मों पर निर्भरता बढ़ी और काम तेजी से आगे नहीं बढ़ पाया। इस धीमी प्रगति का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि जनवरी, 2018 तक स्मार्ट सिटी के तहत शुरू हुए प्रोजेक्ट में से दो फीसदी भी पूरे नहीं हो पाए थे। कई शहरों में प्रोजेक्ट मैनेजमेंट कंसल्टेंट की नियुक्ति में देरी की वजह से काम अटका। कई शहरों में नगर निगम और स्मार्ट सिटी मिशन को लागू करने के लिए बने स्पेशल परपज व्हीकल के बीच टकराव और खींचतान के चलते प्रोजेक्ट्स अटके हुए हैं। 

शहरी विकास मंत्रालय के पूर्व सचिव सुधीर कृष्‍णा का कहना है कि सरकार को एसपीवी मॉडल पर पुनर्विचार करना चाहिए। शहरों के विकास का जिम्मा नगर निकायों का होता है। लेकिन शहरी विकास के लिए दो समानांतर संस्थाएं होने से कई तरह की दिक्कतें आती हैं। दो अलग-अलग संस्‍थाओं से शहर में काम कराना आसान नहीं है। कई शहरों में स्मार्ट सिटी मिशन शुरू होने के बाद एसपीवी बनने में समय लगा। पहले नगर निगमों को स्मार्ट बनाने की जरूरत है। 

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