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वादों पर जवाबदेही की बेला

चार साल में किसानों और युवाओं की नाराजगी बढ़ी, 2019 के चुनाव में भाजपा को पेश आ सकती है मुश्किल, लेकिन ‌अभी भी विकल्पहीनता की स्थिति
सब चिंताएं सिर-माथेः प्रधानमंत्री मोदी के लिए फिर परीक्षा की घड़ी

आखिरी वर्ष! फिर अग्निपरीक्षा की बारी! किसी भी सरकार के मुखिया के लिए यह एहसास पैरों में सुरसुरी पैदा कर देता होगा, बशर्ते वह खुद को शाश्वत अपराजेय न मान बैठा हो। अब तक के राजकाज और अपने वादों का लेखाजोखा रह-रह कर पेशानी पर बल डालने लगता होगा। केंद्र में चार साल पूरे करके आखिरी वर्ष में प्रवेश कर रही नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा नीत एनडीए सरकार के लिए यह एहसास कुछ ज्यादा ही घना हो सकता है क्योंकि 2019 का आगाज 2014 जैसा तो नहीं ही होगा, जब भाजपा और नरेंद्र मोदी नई आकांक्षाओं और वादों की लहर पर सवार थे। उनकी चुनौती के आगे सभी पस्तहाल, आजमाए और बहुत हद तक नाकाम चेहरे थे।

लेकिन सत्ता में चार साल के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता ज्यों की त्यों बनी हुई है, यह कहना नाइंसाफी होगी। देश के नजारे तो बिलकुल अलग ही तस्वीर पेश कर रहे हैं। हर तबके की जुबान तीखी हो चली है। किसानों, दलितों, नौजवानों की नाराजगी से तो कई-कई बार सड़कें भारी हो चुकी हैं। देशभर में किसानों का असंतोष कई मोर्चे खोल चुका है। चार साल में रोजगार के हालात न सुधरने से बेरोजगार युवा पीढ़ी मोदी सरकार से गुस्से में है। एक के बाद एक उत्पीड़न की घटनाओं और हाल में एससी/एसटी एक्ट में फेरबदल के अदालती आदेशों से दलित सरकार से खिन्न हैं। महिलाओं के खिलाफ हालिया हिंसा की घटनाओं ने भी सरकार को आधी आबादी के बीच थोड़ा अलोकप्रिय बना दिया है।

ऐसा लगता है कि सरकार बैकफुट पर है, लेकिन इन घटनाओं के आधार पर 2019 के चुनाव में भाजपा को बड़ी मुश्किल होने का निष्कर्ष निकालना भूल होगी। जो लोग मानते हैं कि यह सरकार सत्ता में नहीं लौटेगी, शायद कुछ तगड़े भ्रम में हैं। मेरे विचार में भाजपा के दोबारा सत्ता में लौटने पर चर्चा निरर्थक है। मतदाताओं के मौजूदा मूड के हिसाब से इस सरकार का सत्ता में लौटना तय लगता है। मुझे अगले एक साल में इसमें नाटकीय बदलाव की कोई उम्मीद भी नहीं दिख रही।

जिन सवालों पर चर्चा हो सकती है, वे हैंः अगली सरकार भाजपा अपने बलबूते पर बनाएगी या वह किसी गठबंधन की होगी? 2019 में भाजपा की सीटें कम होंगी या नहीं? और यदि हां, तो कितनी सीटें कम हो सकती हैं? भाजपा 200 या 250 के आसपास सीटें हासिल करेगी या ऐसी स्थिति बनेगी, जिसमें भाजपा को 200 से कम सीटें मिलेंगी?

जमीन पर असंतोष के संकेत दिखाई पड़ने के बावजूद मोदी सरकार की लोकप्रियता बनी हुई है। सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज (सीएसडीएस) के जनमत सर्वेक्षणों से यह संकेत मिलता है कि इस साल जनवरी के बाद सरकार की लोकप्रियता में गिरावट आनी शुरू हुई है। मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे मध्य और पश्चिम भारत के राज्यों में यह रुझान ज्यादा दिख रहा है। दक्षिण भारत में भी केंद्र सरकार की लोकप्रियता में कुछ कमी आई है। उत्तर भारत के पांच राज्यों में यूपीए को मामूली बढ़त मिलती दिख रही है। कुछ हद तक लोकप्रियता में गिरावट के बाद भी भाजपा ज्यादातर राज्य में सबसे लोकप्रिय पार्टी है, यहां तक कि सर्वाधिक महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश में भी।

पूर्वी भारत में भाजपा की वैसी ही जबर्दस्त पकड़ बनी हुई है, जैसा असम और ओडिशा में दिखा। एनडीए में जदयू के फिर से शामिल होने के बाद बिहार में भी उसे फायदा होता दिख रहा है। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के गढ़ में भी भाजपा कुछ हद तक सेंधमारी करने में कामयाब रही है। हालांकि झारखंड में उसकी लोकप्रियता में कुछ कमी आई है।

सर्वेक्षणों से संकेत मिलता है कि मौजूदा भाजपा सरकार से किसान नाखुश हैं। बड़ी संख्या में किसानों का मानना है कि पूर्ववर्ती यूपीए सरकार ने मौजूदा एनडीए सरकार की तुलना में उनकी चिंताओं के समाधान के लिए बेहतर काम किया था। आधे से ज्यादा किसानों का मानना है कि मोदी सरकार ने कारगर तरीके से काम नहीं किया है, जबकि केवल 41 फीसदी किसानों की सोच ही इसके उलट है।

केवल किसान ही नहीं, छोटे कारोबारी और दुकानदार भी एनडीए सरकार से काफी निराश दिख रहे हैं। भाजपा गठबंधन की लोकप्रियता भी उनके बीच घटती दिख रही है। सर्वेक्षण के मुताबिक ज्यादातर व्यापारियों का मानना है कि मोदी सरकार ने वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) जल्दबादी में लागू किया, जबकि बहुत कम लोग इसे संतुलित मानते हैं। बाकी लोगों की तुलना में कारोबारी जीएसटी दरों को काफी कड़ा मानते हैं। मतदाताओं के विभिन्न वर्गों के भीतर इस नाराजगी की वजह से भाजपा की लोकप्रियता में गिरावट और पिछले कुछ महीनों में कांग्रेस की लोक‌प्रियता में मामूली वृद्धि दिखी है। मतदाताओं के अन्य वर्गों की तुलना में मध्यवर्ग में कांग्रेस की लोकप्रियता थोड़ी अधिक दिखाई पड़ रही है।

2014 में बड़ी संख्या में नरेंद्र मोदी के नाम पर भाजपा को वोट देने वाले युवा मतदाताओं का बड़ा तबका बेरोजगारी से परेशान दिखता है। देश के अन्य हिस्सों की तुलना में उत्तरी राज्यों के युवाओं के बीच यह विश्वास ज्यादा पुख्ता है कि नौकरियों की कमी वर्तमान में देश की सबसे बड़ी समस्या है।

पिछले छह महीने में मोदी सरकार के कामकाज को लेकर संतुष्टि में कमी आई है जबकि इसी दौरान असंतोष बढ़ रहा है। भाजपा के लिए ज्यादा चिंता की बात यह है कि मोदी सरकार के कामकाज को लेकर असंतोष करीब-करीब सभी राज्यों में बढ़ रहा है। हालांकि, कांग्रेस के मुकाबले भाजपा अभी भी दमदार पार्टी बनी हुई है, लेकिन उसकी लोकप्रियता में निश्चित तौर पर कमी आई है। मोदी सरकार के कामकाज से लोगों के असंतुष्ट होने का एक अन्य संकेत ‘अच्छे दिन’ पर उनकी राय है। ज्यादातर लोगों का मानना है कि ‘अच्छे दिन’ महज छलावा है। पिछले कुछ महीनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की खुद की लोकप्रियता में भी कमी आई है। सीएसडीएस के सर्वेक्षणों से संकेत मिलते हैं कि नरेंद्र मोदी की लो‌कप्रियता सात फीसदी घटकर, 44 से 37 फीसदी हो गई है जबकि राहुल गांधी की लोकप्रियता इसी दौरान नौ से बढ़कर 20 फीसदी हो चुकी है। इसमें कुछ योगदान सोनिया गांधी के नेपथ्य में जाने और राहुल के कांग्रेस अध्यक्ष बनने का भी है।

लोकप्रियता बढ़ीः कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी

इसमें कोई शक नहीं है कि सरकार से लोगों का मोहभंग हुआ है। लेकिन, यह निराशा 2014 में भाजपा को वोट देने वाले मतदाताओं के बड़े वर्ग का मूड बदलने के लिए काफी नहीं है। इसके कारण बहुत सामान्य हैं। एक, मोहभंग का स्तर इतना मजबूत नहीं है कि यह बड़ी संख्या में मतदाताओं को भाजपा से दूर ले जाए। दूसरे, इनमें बड़ी संख्या को भाजपा का व्यावहारिक विकल्प नहीं दिख रहा। कांग्रेस बड़े पैमाने पर मतदाताओं के बीच पर्याप्त उत्साह नहीं जगा पा रही है। मोटे तौर पर इसका कारण कांग्रेस का कमजोर नेतृत्व है। संभावित तीसरा मोर्चा मुश्किल से ही मतदाताओं को आकर्षित कर पाएगा क्योंकि तीसरा मोर्चा या इस तरह की गठबंधन सरकार (1996 या 1989) का प्रयोग अतीत में असफल रहा है और बड़े पैमाने पर मतदाता स्थिर सरकार चाहते हैं।

विभिन्न दलों के नेता जो संभवतः तीसरा मोर्चा बना सकते हैं (गैर-कांग्रेसी, गैर-भाजपाई सभी दल) अपने राज्य में लोकप्रिय भले हैं, लेकिन इनमें किसी की भी अपने राज्य की सीमाओं के बाहर इतनी अपील नहीं है कि वे मतदाताओं को संभावित तीसरे मोर्चे के पक्ष में मतदान के लिए प्रभावित कर सकें। ऐसी सरकार का स्वरूप कैसा होगा और अपने-अपने एजेंडे के साथ क्षेत्रीय नेता केंद्र में कैसे काम कर पाएंगे, यह भी मतदाताओं की समझ से परे है। इसलिए बड़ी संख्या में मतदाताओं के भाजपा से छिटकने और दूसरे गठबंधन को पर्याप्त सीटें मिलने की बहुत संभावना नहीं दिखती।

यह सच है कि 2014 में भाजपा को वोट देने वाले मतदाता बड़ी संख्या में उससे दूर नहीं जा सकते हैं लेकिन मतदाताओं के वर्तमान मूड के हिसाब से यह भी मुश्किल लगता है कि 2019 के चुनाव में भाजपा मतदाताओं के नए वर्ग को लुभा पाएगी और 2014 में वोट देने वालों से परे जाकर अपना आधार बढ़ाने में सक्षम हो पाएगी। ऊंची जाति के मतदाता हमेशा से बड़ी संख्या में भाजपा के लिए वोट करते रहे हैं। चुनाव दर चुनाव 65-70 फीसदी ऊंची जाति के मतदाताओं का वोट भाजपा को मिलता रहा है। 2019 के चुनाव में भाजपा से उनके अलग होने की कोई संभावना नहीं दिख रही। 2014 के आम चुनावों के बाद राज्यों में हुए चुनाव बताते हैं कि भाजपा के पक्ष में ऊंची जातियों की गोलबंदी मजबूत हुई है और यह मानने का कोई कारण नहीं है कि यह तबका भाजपा से मुंह मोड़ लेगा। 2014 में भाजपा की बड़ी जीत का कारण अलग-अलग राज्यों में दलित, आदिवासी और ओबीसी मतदाताओं का बड़े पैमाने पर उसके पक्ष में लामबंद होना था।

पिछले आम चुनाव में दलितों के बीच भाजपा का समर्थन 12 से बढ़कर 24 फीसदी हो गया था। इसी तरह 2014 में भाजपा को मिले आदिवासी वोट 24 फीसदी से बढ़कर 38 फीसदी हो गए थे। ओबीसी मतदाताओं के बीच भी पार्टी अपना आधार बढ़ाने में कामयाब रही, खासकर अति पिछड़ाां में।

2014 के बाद आदिवासियों के कल्याण के लिए विभिन्न योजनाएं शुरू करने के कारण भाजपा निश्चित तौर पर आदिवासी समुदाय के बीच अपना आधार बनाए रखने में कामयाब रहेगी या उनके बीच अपना समर्थन बढ़ा भी सकती है। 2014 के बाद जिन राज्यों में चुनाव हुए वहां सर्वेक्षण के निष्कर्ष बताते हैं कि भाजपा के पक्ष में आदिवासियों की गोलबंदी मजबूत हुई है या भाजपा की ओर उनका झुकाव बढ़ा है। लेकिन, 2014 में जिस तरह भाजपा दलितों को लुभाने में कामयाब रही थी, उसे 2019 में बनाए रखने में चुनौती का सामना करना पड़ सकता है। कई राज्यों में दलित नाखुश दिख रहे हैं तो कुछ राज्यों में प्रदर्शनों, आंदोलनों के जरिए दलित खुलकर भाजपा सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल रहे हैं। हालांकि, दलितों को मनाने के लिए भाजपा एड़ी-चोटी का जोर लगा रही है। आने वाले महीनों में भी वह दलितों को सरकार में भागीदारी का एहसास करा सकती है। इसके बावजूद 2014 में मिले दलितों के समर्थन को 2019 में बरकरार रखना मुश्किल होगा।

ओबीसी में पैठ बनाने की भाजपा पुरजोर कोशिश कर रही है ताकि कई क्षेत्रीय दल कमजोर हो जाएं जिनका ओबीसी वर्ग में समर्थन के कारण ही अस्तित्व है। जीएसटी लागू होने के बाद हुई परेशानियों के कारण छोटे व्यवसायों से जुड़े या कारीगर ओबीसी कुछ हद तक सरकार से नाराज हैं। लेकिन, भाजपा दिल्ली हाइकोर्ट की पूर्व मुख्य न्यायाधीश जी. रोहिणी की अध्यक्षता में अन्य पिछड़ा जाति (ओबीसी) के तहत आने वाले वर्गों की जांच के लिए पांच सदस्यीय आयोग का गठन कर पहले ही समझदारी दिखा चुकी है। यह आयोग ओबीसी की विभिन्न जातियों और समुदायों के बीच आरक्षण के लाभ के असमान वितरण की जांच करेगा। इससे ओबीसी वर्ग में आने वाली ऊपरी जातियों में भाजपा कुछ आधार खोती भी है तो उसे उम्मीद है कि अति पिछड़ी जातियों में वह पैठ बढ़ाने में सफल रहेगी।

ऐसा लगता है कि भाजपा आदिवासी और ओबीसी के निचले तबके में आधार बढ़ाकर दलित समर्थन में होने वाली कमी की भरपाई कर सकती है। मेरे विचार से मोहभंग के बावजूद भाजपा 2019 के चुनावी रेस में आगे है। उसकी बढ़त महफूज है। अलबत्ता भाजपा की वोट हिस्सेदारी में थोड़ी कमी आ सकती है। हिंदी राज्यों में वोट शेयर में संभावित कमी की भरपाई वह पश्चिम बंगाल, ओडिशा और कुछ दक्षिण राज्यों में आधार बढ़ाकर कर सकती है। वोट शेयर में मामूली गिरावट तो आएगी लेकिन आखिरी नतीजे उससे बहुत अलग नहीं होंगे जैसा हमने 2014 में देखा था।

मौजूदा हालात के हिसाब से आखिर में चार संभावनाएं उभरती दिख रही हैंः

- भाजपा 2019 में सरकार नहीं बना पाएगी।

- भाजपा 240-250 सीटें हासिल कर बहुमत से थोड़ी दूर रह जाएगी।

- भाजपा 220-230 सीटों के साथ सरकार बनाएगी।

- भाजपा को 200 से कम सीटें मिलेंगी।

पहली और आखिरी संभावना को मैं खारिज करता हूं। मुझे लगता है कि 2019 के नतीजे तीसरी संभावना के करीब होंगे। 220-230 सीटों के साथ भाजपा पहले के मुकाबले थोड़ी कमजोर होगी। मगर हर चुनाव अप्रत्याशित नतीजे लेकर आता है इसलिए कल क्या हो, कहना आसान भी नहीं है।

योजनाओं और वादों का हाल

जन धन योजना

लक्ष्यः हर किसी का बैंक खाता

स्थितिः 18 अप्रैल 2018 तक 31.48 करोड़ लोगों के खाते खुले। इनमें 80 हजार करोड़ रुपये से अधिक राशि जमा। मगर एक गणना से जीरो बैलेंश अकाउंट्स की संख्या 76.81 फीसदी

मेक इन इंडिया

लक्ष्यः जीडीपी में 2022 तक मैन्युफैक्चरिंग की हिस्सेदरी 25 फीसदी करना। 

स्थितिः ताजा आंकड़ाें के मुताबिक हिस्सेदारी 16 फीसदी पर बनी हुई है। दुनिया का मैन्यूफैक्चरिंग हब बनाना दूर

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ

लक्ष्यः गिरते स्‍त्री-पुरुष अनुपात को बढ़ाना और लड़कियों की पढ़ाई को बढ़ावा देना

स्थितिः 2012-14 में प्रति 1000 बालक जन्म दर की अपेक्षा कन्या जन्म दर 906 थी, जो 2014-16 में घटकर 898 हो गई

स्वच्छ भारत मिशन

लक्ष्यः 2019 तक खुले में शौच से मुक्ति, हर घर में शौचालय

स्थितिः अक्टूबर 2017 तक सिर्फ 43 फीसदी पूरा। घरों के लिए 30,74,229 और 2,26,274 सामुदायिक शौचालय बनाए गए हैं

स्मार्ट सिटी मिशन

लक्ष्यः शहरों को आधुनिक संचार व्यवस्‍था से लैस करना  

स्थितिः अभी तक 1.83 फीसदी राशि का ही उपयोग। आवास एवं शहरी विकास मंत्रालय के आंकड़े के मुताबिक, 40 शहरों को 196-196 करोड़ रुपये दिए गए हैं

नमामि गंगे योजना

लक्ष्यः गंगा नदी को प्रदूषण मुक्त और अविरल बनाना

स्थितिः पांच राज्यों में कुल 123 नए घाट बनाए गए। प्रस्तावित 4816 किमी सीवेज नेटवर्क में से तीन साल में सिर्फ 1879 किमी ही बनकर तैयार

मुद्रा बैंक योजना

लक्ष्यः कुटीर और लघु उद्योगों को सस्ते कर्ज देना

स्थितिः 2017 में 2.44 खरब रुपये का लक्ष्य रखा, पर 62 फीसदी आवंटन। कर्ज का औसत मात्र 17 हजार रुपये। नए कारोबार के लिए बेहद कम

डिजिटल इंडिया

लक्ष्यः हर ग्राम पंचायत को 100 एमबीपीएस की स्पीड से ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी मुहैया कराना।

स्थितिः ढाई लाख ग्राम पंचायतों में से करीब 1.10 लाख में ही पहुंची ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी

स्किल इंडिया

लक्ष्यः 2022 तक 40 करोड़ को हुनरमंद बनाना

स्थितिः सरकार द्वारा नियुक्त एक समिति ने भी 40 करोड़ स्किल्ड लेबर के लक्ष्य को हासिल करना मुश्किल बताया

सांसद आदर्श ग्राम योजना

लक्ष्यः हर सांसद 2019 तक तीन गांवों को विकसित करेगा

स्थितिः इसके दूसरे चरण के लिए अबतक 80 फीसदी से ज्यादा सांसदों ने गांव का चयन नहीं किया

प्रधानमंत्री उज्‍ज्वला योजना

लक्ष्यः गरीबी रेखा से नीचे वाले पांच करोड़ परिवारों को एलपीजी कनेक्शन देना

स्थितिः तीन करोड़ से अधिक कनेक्‍शन मुहैया कराए गए। 8 करोड़ गरीब महिलाओं को मुफ्त कनेक्शन पहुंचाने का लक्ष्य

हर साल दो करोड़ रोजगार

वादाः 2014 का प्रमुख वादा

स्थितिः सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के मुताबिक, फरवरी में बेरोजगारी दर 6.1 फीसदी। 2015-16 से लेबर ब्यूरो के आंकड़े जारी नहीं। गैर-कृषि में सालाना 25 लाख नौकरी आई

काले धन पर अंकुश

वादाः विदेश से काला धन लाना और हर किसी को 15 लाख रु. देना

स्थितिः दिसंबर 2017 में एक आरटीआइ में प्रधानमंत्री कार्यालय से इस बारे में कोई जवाब नहीं

किसानों को बेहतर दाम

वादाः ‌लागत का 50 फीसदी मुनाफा

स्थितिः वित्त मंत्री ने 2018-19 के बजट में कहा कि रबी सीजन का एमएसपी लागत मूल्य से 50 फीसदी ज्यादा। लेकिन किस लागत पर दिया, इस पर विवाद

आयुष्मान भारत

लक्ष्यः ‌दस करोड़ परिवारों को स्वास्‍थ्य बीमा सुरक्षा

स्थितिः 2018-19 के बजट में ऐलान लेकिन योजना का प्रारूप अभी तैयारी के चरण में। इसके पहले एक लाख रुपये की बीमा योजना घोषणा तक ही सीमित

(लेखक प्रोफेसर और सीएसडीएस के निदेशक हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं)

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