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इतिहास का खोजी महान यायावर

महज अड़सठ साल के जीवन में कोई इतना कुछ कर सकता है, यकीन करना मुश्किल
घुमक्कड़ी की यादेंः धर्म, दर्शन और समाज के विभिन्न मतों पर व्यक्त किए विचार

महापंडित राहुल सांकृत्यायन के नाम से हिंदी जगत अपरिचित नहीं है। उनके जीवन और कार्य को एक शब्द में समोया जा सकता है और वह है ‘बदलाव।’ उनका पूरा जीवन बदलते रहने की शृंखला में आबद्ध है। उन्होंने अपना नाम बदला, महान घुमक्कड़ और घुमक्कड़शास्‍त्री होने के कारण लगातार स्थान ही नहीं देश भी बदले, सदा जिज्ञासु और ज्ञानपिपासु बने रहने के कारण धर्म और विचार बदले और जितना हो सका उतना अपने समय के समाज, राजनीति और वृहत्तर दुनिया को भी बदला। दूसरों को इसके लिए प्रेरित करने की दृष्टि से भागो नहीं (दुनिया को) बदलो पुस्तक भी लिखी। उनके 70 वर्षों के जीवन के अंतिम दो वर्ष गंभीर बीमारी और स्मृतिलोप के कारण रोगशैया पर बीते। केवल 68 वर्षों के जीवन में कोई व्यक्ति इतना कुछ कर सकता है, इस पर सहसा विश्वास नहीं होता। राहुल सांकृत्यायन जैसी असाधारण प्रतिभा और जीवट के व्यक्ति सहस्राब्दियों में कभी-कभार पैदा होते हैं।

नौ अप्रैल, 1893 को राहुल उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के गांव पंदहा के एक ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए, तब उन्हें केदारनाथ पांडे नाम दिया गया था। साढ़े पांच साल की उम्र में उन्हें एक मदरसे में दाखिल करा दिया गया जहां अरबी और उर्दू में उनकी शुरुआती शिक्षा हुई। उनका अधिकांश बचपन अपने ननिहाल में गुजरा और केवल मिडिल स्कूल तक उनकी औपचारिक शिक्षा हो पाई। घुमक्कड़ी के बीज उनमें बचपन में ही पड़ गए थे और नौ साल की उम्र में उनका घर से भागने का सिलसिला शुरू हो गया था। ग्यारह वर्ष की उम्र में एक साल बड़ी लड़की से शादी हो गई लेकिन कभी उसके साथ संपर्क नहीं रहा। इसकी ग्लानि और वेदना उन्हें जीवन भर रही। बिहार के छपरा जिले के एक संपन्न परसा मठ के महंत की उन पर नजर पड़ गई और उन्होंने तय किया कि यह होनहार बालक ही उनका उत्तराधिकारी बनेगा। केदार पांडे को दीक्षा दी गई और वह किशोर साधु राम उदार दास बनकर संस्कृत और हिंदू धर्मग्रंथों का अध्ययन करने लगा। कुछ ही समय में वह वहां की बंधी-बंधाई जिंदगी से ऊब गए क्योंकि उनमें लगातार ज्ञानार्जन करने की इच्छा प्रबल थी। प्रभाकर माचवे ने लिखा है, “जुलाई 1913 में राम उदार दास परसा मठ से भागकर हाजीपुर गए और फिर बिना टिकट आसनसोल, आद्रा और खड़गपुर होते हुए पुरी पहुंचे। यहां से वे मद्रास (अब चेन्नै) गए और साधु होने के नाते एक ‘सत्रम्’ (धर्मशाला) में ठहरे। वहां से पैदल ही तिरुमलै जाकर एक ‘उत्तरार्थी-मठम्’ में रहने लगे और तमिल भाषा का ज्ञान प्राप्त किया। उसी दौरान पुन्नमलै, पच्छपेरुमाल, तिरुमिशि, तिन्ननूर, तिरुपति, तिरुकलिकुन्द्रम्, कांचीपुरम् और रामेश्वरम् का भ्रमण किया और राष्ट्रीय राजनीति से उनका परिचय हुआ।”

अंततः वे मठ की जिंदगी से भी ऊब गए और अयोध्या चले गए और आर्य समाजी हो गए। सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ आर्य समाज का विद्रोह उन्हें आकर्षक लगा। वे मूर्तिपूजा-विरोधी, यहां तक कि नास्तिक के रूप में प्रसिद्ध हो गए। अयोध्या एवं फैजाबाद के बीच काली मंदिर में बकरे की बलि चढ़ाने वाले एक ब्रह्मचारी के विरोध में संगठित अभियान चलाने के कारण उन्हें सनातनी पुरोहितों की हिंसा का शिकार भी होना पड़ा। 1915-1922 के कालखंड को राहुल अपने जीवन में नए प्रकाश के आने का समय बताते हैं। 1915 में आगरा पहुंच कर उन्होंने आर्य मुसाफिर विद्यालय में दाखिला लिया और वहां संस्कृत, अरबी, अनेक धर्मों के ग्रंथ और भारतीय इतिहास का अध्ययन किया। इस समय वे केवल संस्कृत में लिखते थे।

उनका पत्र व्यवहार ही केवल संस्कृत में नहीं होता था, वह अपनी डायरी भी संस्कृत में लिखते थे। कालांतर में उन्होंने लगभग तीस भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया जिनमें हिंदी, अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, तिब्बती, संस्कृत, पालि, उर्दू, फारसी, अरबी, तमिल और रूसी जैसी तकरीबन एक दर्जन भाषाओं में वह अच्छी तरह पढ़, लिख और बोल सकते थे। उन्होंने मुख्य रूप से हिंदी में ही लिखा लेकिन इसके अलावा संस्कृत, तिब्बती, पालि और भोजपुरी में भी पुस्तकें लिखीं। उनके द्वारा लिखी गई पुस्तकों की संख्या 140 तक पहुंचती है। इनमें अत्यंत विद्वतापूर्ण शोध के आधार पर लिखे गए मध्य एशिया का इतिहास जैसे ग्रंथ हैं तो साम्यवाद ही क्यों और तुम्हारी क्षय जैसे पूंजीवादी सभ्यता विरोधी प्रचारात्मक पैम्फलेट भी। वोल्गा से गंगा जैसी व्यापक मानवीय इतिहास के फलक पर फैली महाकाव्यात्मक आयाम वाली कथाकृति और सिंह सेनापति जैसे प्राचीन इतिहास के रहस्यों की परतें खोलने वाले उपन्यास हैं तो महान बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति के ग्रंथ प्रमाणवार्तिक का भाष्य और वृत्ति जैसे गहन चिंतन और वैदुष्य से ओतप्रोत ग्रंथ भी। राहुल ने हिंदी काव्यधारा (अपभ्रंश) लिखी तो उसी के साथ दक्खिनी काव्यधारा की परिपूर्ण तस्वीर भी उकेरी। पालि साहित्य का इतिहास उनकी अमर कृतियों में गिना जाता है।

राहुल महान यायावर थे और यह तथ्य ही उनके बौद्धिक विकास को समझने की कुंजी है। जब वह आगरा में आर्य समाज के काम में जुटे थे तो रोज आर्य मुसाफिर अखबार के दफ्तर जाकर अखबार पढ़ा करते थे। तब 1917 में 24 वर्ष की आयु में उन्होंने पहली बार रूस में हुई बोल्शेविक क्रांति के बारे में पढ़ा। आत्मकथात्मक पुस्तक मेरी जीवनयात्रा में उन्होंने रूस के बारे में लिखा, “इन खबरों से मालूम होता था कि वहां गरीबों-मजदूरों-किसानों की भी एक पार्टी है जो गरीबों के हक के लिए लड़ रही है, वह भोग और श्रम के समान विभाजन का प्रचार करती है।” अब उन्होंने आर्य समाजी विचारों की तुलना कम्युनिस्ट विचारों के साथ करनी शुरू कर दी। रौलेट एक्ट के खिलाफ आंदोलन की शुरुआत करते हुए महात्मा गांधी ने छह अप्रैल, 1919 के दिन को “राष्ट्रीय अपमान दिवस” घोषित कर दिया।

राहुल (तब तक उनका नाम राम उदार दास ही था) उस समय लाहौर में थे। उस दिन उन्हें “राष्ट्रीयता की पहली बाढ़” का अनुभव हुआ जिसका जिक्र करते हुए उन्होंने लिखा, “उस दिन लाहौर के नजारे के बारे में क्या कहना है। सारी अनारकली सड़क नंगे काले सिरों से भरी हुई थी। लोग तरह-तरह के नारे लगा रहे थे। जुलूस घूमते-घूमते चार बजे के बाद ब्रेडला-हॉल पहुंचा। काफी गर्मी थी। पानी पिलाने के लिए सबीलें लगी हुई थीं। वहां, हिंदू-मुसलमान का कोई फर्क न था। एक ही गिलास से दोनों पानी पी रहे थे। राष्ट्रीयता की पहली बाढ़ ने छुआछूत को बहा फेंका, यद्यपि यह फेंकना स्थाई नहीं था। तब भी उसमें, कितनी ताकत थी इसका तो पता लग

सकता था।” इस अनुभव ने ही उनके मन में जातिविहीन समाज और “एक जातीयता” की परिकल्पना पैदा की। 

पिता की मृत्यु की खबर ने उन्हें आर्य समाज छोड़ने का कारण उपलब्ध करा दिया और वे जी-जान से छपरा में कांग्रेस के काम में जुट गए। 31 जनवरी, 1922 को उन्हें उस समय गिरफ्तार किया गया जब वे जिला कांग्रेस कमेटी की एक बैठक की अध्यक्षता कर रहे थे। छह माह बाद उन्हें रिहा किया गया। इसी वर्ष गया में हुए कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में उन्होंने महाबोधि मंदिर बौद्धों को सौंपे जाने का प्रस्ताव रखा। थोड़े समय बाद वह फिर गिरफ्तार हुए और उनके दो साल जेल में कटे। इसी दौरान उन्होंने बाईसवीं सदी नामक पुस्तक लिखी और एक नए लेखक का जन्म हो गया। इस दौरान बौद्ध धर्म और दर्शन में उनकी रुचि बढ़ी क्योंकि वह उसकी जातिविहीनता के प्रति आकृष्ट थे। बौद्ध धर्म और दर्शन के क्षेत्र में उनके अनुसंधान को आगे चलकर अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई। 16 मई, 1927 से एक दिसंबर, 1928 तक वह श्रीलंका में रहकर संस्कृत पढ़ाते और सिंहली, पालि और फ्रेंच सीखते रहे। यहीं वह बौद्ध भिक्षु बने और उन्हें राहुल नाम मिला।

इसके बाद के उनके जीवन के बारे में दुनिया को अधिक पता है क्योंकि ब्रिटिश सरकार की पुलिस से बचने के लिए वह ऐसे दुर्गम रास्तों से तिब्बत गए जिन पर नया यात्री नहीं जाता। वहां से 22 खच्चरों पर बौद्ध धर्म एवं दर्शन के लुप्त हो चुके प्राचीन ग्रंथों को लादकर भारत लाने का अपूर्व और अद्‍भुत कार्य उन्होंने किया, जिसके लिए उन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। यही नहीं, इन तिब्बती भाषा के ग्रंथों को संस्कृत में अनूदित कर उनके भाष्य और टीका सहित संपादन के साथ प्रामाणिक संस्करण प्रस्तुत करना ऐसा भागीरथ कार्य था जो उनके जैसा जीनियस ही कर सकता था।

महान घुमक्कड़ राहुल ने यूरोप और एशिया के अनेक देशों की यात्राएं कीं और अनुभव किया कि बिना मध्य एशिया के इतिहास के साथ तार मिलाए भारतीय इतिहास को ठीक से समझा नहीं जा सकता। इस कमी को दूर करने के लिए उन्होंने दो खंडों में मध्य एशिया का इतिहास नामक पुस्तक लिखी जिसे 1957 में छपते ही साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। ऐसी पुस्तक हिंदी तो क्या, अन्य भाषाओं में भी नहीं थी। राहुल बौद्ध धर्म छोड़कर कम्युनिस्ट बने। सोवियत संघ में उन्होंने पढ़ाया और वहां एलेना नरवेरतोव्ना कोजेरोवस्काया से प्रेम विवाह किया। उनसे एक पुत्र ईगोर हुआ। बाद में कमला परियार से उनका विवाह हुआ, जिनसे जेता और जया दो संतानें हुईं। 

हाल ही में हिंदी और इस्लाम संबंधी उनके विचारों को लेकर कुछ विवाद खड़ा करने की कोशिश की गई है। उनके विचार उनके समय से आबद्ध थे और उन्हें ‘एक राष्ट्रीयता’ और ‘एक जातीयता’ की उनकी अवधारणा के संदर्भ में देखे जाने की जरूरत है। राहुल ने इस्लाम धर्म की रूपरेखा नामक पुस्तक भी लिखी। वह इस धर्म को गहराई से जानते थे। इसके ‘भारतीयकरण’ से उनका वह अर्थ नहीं था जो बाद में जनसंघ और बलराज मधोक ने दिया। हिंदी को पूरे देश की भाषा बनाने का उनका विचार आज शायद उग्र हिंदीवादियों के अलावा किसी को स्वीकार्य नहीं होगा। लेकिन उनके इस मत की भी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए, “हिंदी-हिंदुस्तानी का झगड़ा खड़ा था। लोग हिंदुस्तानी का विरोध कर रहे थे। मैं भी विरोधी था लेकिन हिंदू संस्कृति और हिंदू धर्म के नाम पर नहीं, बल्कि विस्तृत और सुविकसित साहित्यों को एक नकली भाषा के द्वारा एक करने का प्रयत्न मुझे बिलकुल लड़कपन मालूम होता था।” इसी के साथ उनका यह कथन भी विचारणीय है, “किसी ने झूठ कहा है कि मैं उर्दू विरोधी हूं। मैं हिंदी-उर्दू दोनों को एक ही भाषा मानता हूं और दोनों की शैली में लिखे साहित्य को चिरस्थाई देखना चाहता हूं।”

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं) 

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