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जंगल के दुख

इस उपन्यास में पथरीली सच्चाई की जमीन पर प्रेम का अंकुर भी धीरे से फूटता है
प्रार्थना में पहाड़

जल, जंगल और जमीन की कहानी कहता यह उपन्यास उनके मालिकों के बारे में है। मालिक यानी वे आदिवासी जो बरसों से अपनी जमीन को सहेजने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। आदिवासियों का जीवन अब तक ‘फैंसी’ रिपोर्टों, फैलोशिप के रिपोर्ताजों में ही ज्यादा दिखाई देता रहा है। ग्रामीण पृष्ठभूमि पर खूब कहानियां और उपन्यास लिखे गए हैं लेकिन आदिवासियों की कहानियां हिंदी साहित्य में कम ही दिखाई पड़ती हैं। महाश्वेता देवी ने बांग्ला में जरूर इस विषय पर काम किया है। जब इस तरह की कहानी लिखी जाती है, तो उसके रिपोर्ताज हो जाने के खतरे भी कम नहीं होते। लेकिन लेखक ने पहले साहित्य की परिधि खींची है फिर उसमें पात्र को अपनी बात रखने का पूरा मौका दिया है।

शुरुआत में ही उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि यह उपन्यास उस अनुभव का हिस्सा है जो उन्होंने आदिवासियों के बीच रह कर अर्जित किया है। वह अपनी डायरी में सुख-दुख के कतरे समटते गए और उसे अखबार में खबर के रूप में ढालने के बजाय ऐसे कथानक में ढाल दिया जो हर दिमाग में दस्तक देगा। इस उपन्यास में पथरीली सच्चाई की जमीन पर प्रेम का अंकुर भी धीरे से फूटता है। पर इतना धीरे से कि वाक्यों से ही वह पकड़ में आता है। एक जगह भालचन्द्र जोशी लिखते हैं, प्रेम जितना बड़ा दिलासा होता है उसमें भ्रम और भटकाव भी उतने ही होते हैं। कहानी में प्रेम की गुंजाइश बनती चलती है और पाठक इसमें डूबते जाते हैं। आगे वह लिखते हैं, जीवन भर एक ही स्‍त्री से प्रेम का दावा करने वाले पुरुष झूठे होते हैं। यह वाक्य शहरी और आदिवासी समाज को बांटने वाली रेखा की तरह है। उपन्यास बताता है कि संघर्ष का मतलब नारे लगाने और रैली निकालने से कहीं आगे है। यह कहानी बिलकुल वैसी है।   

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