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लाल और सुनहरी जर्सी के धमाकेदार स्ट्राइकर

पिछड़े, दबे-कुचलों में एक समय राष्ट्रवाद और उम्मीद ‌की अलख जगाने वाला ईस्ट बंगाल क्लब का यह शताब्दी वर्ष
शताब्दी समारोह के दौरान ईस्ट बंगाल क्लब के झंडों के साथ उत्सव में शामिल होते इसके हजारों प्रशंसक

अंग्रेजी राज में ब्रिटिश हाकिमों से पहले पहल क्रिकेट की आमद बॉम्बे (अब मुंबई) में हुई लेकिन कलकत्ता के लोगों को तो भाया वह चमड़े के बड़े गोले या फुटबॉल का खेल, जो अंग्रेज मातहतों के जरिए आया और जो ब्रिटेन में भी सर्वहारा का खेल माना जाता था। इसकी लोकप्रियता 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में पश्चिमी और (तत्कालीन) पूर्वी बंगाल के शहर-कस्बों में फुटबॉल क्लबों में काफी फैली। दुनिया में सबसे पुराने क्लबों में एक मोहन बागान (स्‍थापनाः1888) का मामला असल में क्रांतिकारी समूहों के उदय के अनुरूप था। राष्ट्रवाद भारतीय फुटबॉल के जीन में था। फुटबॉल के खुमार को तब और बल मिला जब मोहन बागान ने 1911 में ब्रिटिश सेना की टीम ईस्ट यॉर्क के खिलाफ आइएफए शील्ड के फाइनल में ऐतिहासिक जीत दर्ज की। इससे कलकत्ता ने देश भर की फुटबॉल प्रतिभाओं को आकर्षित किया, खासकर ईस्ट बंगाल से। कलकत्ता ने कलकत्ता फुटबॉल लीग, आइएफए शील्ड, कूच बिहार कप, ट्रेड्स कप आदि जैसे शीर्ष फुटबॉल टूर्नामेंट की मेजबानी भी की।

यह ईस्ट बंगाल के खिलाड़ियों के लिए किया गया कच्चा सौदा था। ऐसे लोग जिनकी बोली, खानपान, रीति-रिवाज विशिष्ट थे और ये प्रकृति में अलग थे। ऐसे लोगों द्वारा स्थापित और बढ़ाया गया वही क्लब अब अपना शताब्दी वर्ष मना रहा है। इस क्लब का उदय हाशिए के लोगों की प्रेरक कहानी है जो खुद को मुखर करते हैं और कलकत्ता के मैदान में अपने लिए सही और सुरक्षित जगह लेने के लिए लड़ते हैं। कलकत्ता में लंबे समय से जमे हुए बाबुओं के कारण, 28 जुलाई, 1920 को कूच बिहार कप सेमीफाइनल में ईस्ट बंगाल के दो फुटबॉल खिलाड़ियों के साथ भेदभाव निम्न स्तर तक पहुंच गया था। रमेश सेन और शैलेश बोस को जोरबागान क्लब टीम से गलत तरीके से तब हटा दिया गया जब उनकी भिड़ंत मोहन बागान क्लब से थी। इस राजनीति ने जोरबागान के उपाध्यक्ष सुरेश चंद्र चौधरी को एक क्लब बनाने के लिए प्रेरित किया, ईस्ट बंगाल क्लब, जहां पद्मा नदी के पार बंगाली सम्मान के साथ खेल पाएं। चौधरी ने अपने दोस्त प्रसिद्ध वकील तड़ित भूषण रॉय को अपनी योजना के साथ जोड़ा।

1975 के आइएफए शील्ड में मोहन बागान को हराने वाली ईस्ट बंगाल की टीम

ईस्ट बंगाल ने हर्क्यूलिस कप के रूप में अपना पहला टूर्नामेंट खेला। यह छह पक्षीय प्रतियोगिता थी। इस कारण से, ईस्ट बंगाल आइएफए के शासी निकाय का सदस्य बन गया और 1921 में कलकत्ता फुटबॉल लीग की दूसरे डिवीजन में अपना अभियान शुरू किया। क्लब की लंबी यात्रा शुरू हो गई थी और सफलता लगभग तुरंत प्राप्त हो गई थी। जबर्दस्त लोगों द्वारा बनाए गए और चलाए जा रहे क्लब के सदस्य मैदान पर हर इंच के लिए संघर्ष कर रहे थे। ईस्ट बंगाल क्लब ने जल्दी ही निडर, आक्रमणकारी शैली के कारण अपनी अलग पहचान बना ली। पूर्वाग्रही ‘कलकतियों’ को सबक सिखाना बाकी था और खिलाड़ी जब मैदान पर उतरे तो बोतल में बंद उनका धैर्य उफान के साथ बाहर आ गया।

1925 में क्लब को जब सीएफएल के पहले क्रम में पदोन्नत किया गया, तब यह भावना स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही थी। 28 मई को कलकत्ता ईस्ट बंगाल के चिर प्रतिद्वंद्वी मोहन बागान के पसंदीदा ‘डर्बी’ मैच में, कलकत्ता अभिजात वर्ग के लोगों की भावनाएं ऊफान पर थीं। मजबूत टीम बागान हावी हो रही थी, लेकिन ईस्ट बंगाल के गोलकीपर पी. दास गोल पर डटे रहे। चल रहे खेल के विपरीत, नेपाल चक्रवर्ती ने एक गोल दागा और ईस्ट बंगाल ने बढ़त ले ली। उस जीत ने एक प्रतिद्वंद्विता को जन्म दिया जो आज भी जारी है। मैच के बाद सैकड़ों ईस्ट बंगाल प्रशंसक गर्व के साथ मैदान में घुस गए और खिलाड़ियों को कंधों पर उठा लिया। मैच ने भविष्य के डर्बी मैच का पैटर्न भी निर्धारित किया, जहां ईस्ट बंगाल अधिक आक्रामक था और अपने प्रतिद्वंद्वियों पर हावी था।

ईस्ट बंगाल की ‘लड़ने की लालसा’ प्रतीक बन गई और डर्बी मैच को युद्ध का दिन घोषित कर दिया गया। ईस्ट बंगाल के दिल के सबसे करीब 1975 के मैच का परिणाम था, जब उन्होंने आइएफए शील्ड फाइनल में मोहन बागान पर 5-0 से जीत दर्ज की थी। फिर भी आज तक क्लब डर्बी जीत के उद्‍घोष में ऐतिहासिक क्षण बना हुआ है। ऐसा लग रहा था, इसने ईस्ट बंगाल को अनंत काल के लिए डींग मारने का मौका दे दिया और बागान को अपना ही मारकानाजो (1950 फीफा में ब्राजील-उरुग्वे के बीच खेला गया निर्णायक मैच जिस मैदान में खेला गया उसका नाम एस्तितियो दो मार्कना था। इस मैच में एलिसिड घिघिग्या ने मैच के आखिरी 11 मिनट में निर्णायक गोल दाग कर उरुग्वे को जीत दिला दी थी। फुटबॉल के इतिहास में इसे ऐतिहासक गोल कहा जाता है। तभी से मैदान के नाम पर मारकानाजो शब्द प्रचलित हुआ) बनाने पर जोर दिया जिसका सदमा आज तक मौजूद है। यदि क्लब ने शुरुआती दशकों में क्षेत्रीय पहचान को मजबूत किया तो विभाजन ने इसे आगे का लक्ष्य दिया। पूर्वी पाकिस्तान से लाखों की संख्या में आए शरणार्थियों के लिए क्लब ने प्रतीकात्मक रूप से मरहम का काम किया। फुटबॉल के कारण निराश, असहाय एक पीढ़ी के लिए गर्व, आशा और विश्वास पैदा हुआ। निस्संदेह, इस अवधि के दौरान ईस्ट बंगाल अपने उग्रतम स्तर पर था। 40 और 50 के दशक में, क्लब ने 21 ट्राफियां जीतीं। 1949-53 के बीच ‘पांच पांडव’ के नेतृत्व में घातक फॉर्वर्ड लाइन जिसमें, अहमद खान, अप्पा राव, पी. वेंकटेश, पी.बी. सालेह और धनराज थे, का आतंक पूरे भारत भर में था। ये लोग अब किंवदंती बन गए हैं, यहां तक कि मिथक भी।

डर्बी की झलकियाः एक्शन में मोहन बागान का डिफेंडर

विभाजन के घाव भर गए थे कि फिर पूर्व और पश्चिम विभाजित हो गया और हल्का सा अवसाद छोड़ गया। फिर भी, फुटबॉल प्रतिद्वंद्विता बंगाली चेतना, परिवेश का एक हिस्सा है। अस्सी के मध्य के दशक तक, महानगर में फुटबॉल का मैदान, डर्बी मैच से पहले तनाव में आ जाता था। वहां बड़े करीने से विरोधी खेमे बंटे हुए थे। ऐसे खेमे जो मोहल्लों, दोस्तों यहां तक कि परिवारों में भी बंटे हुए थे। देखा जाए तो एक बड़े भू भाग के वंचित लोगों के लिए यदि गर्व का विषय था तो यह केवल ईस्ट बंगाल क्लब था। 

ईस्ट बंगाल क्लब के प्रशंसकों का आधार लगभग सभी सामाजिक तबकों में था। पूर्वी बंगाल से जुड़ी जड़ों के व्यापारिक घराने से लेकर सब्जी बेचने वाले शरणार्थियों तक। इस क्लब के पास सेलेब्रिटी प्रशंसकों की भी कमी नहीं थी। इनमें संगीतकार पिता-पुत्र की जोड़ी सचिन देव बर्मन से लेकर राहुल देव बर्मन तक शामिल थे। ईस्ट बंगाल क्लब जब भी रोवर्स कप खेलने के लिए मुंबई जाती थी, सचिन देव बर्मन तब तक टीम को मैदान में नहीं उतरने देते थे, जब तक वे सभी खिलाड़ियों के कंधे छू नहीं लेते थे। 1975 में अद्वितीय संगीतकार सचिन देव बर्मन लंबे कोमा में चले गए। उसी साल वह प्रसिद्ध मैच हुआ जब ईस्ट बंगाल क्लब ने मोहन बागान को 5-0 से रौंद दिया तो अफवाह उड़ी कि जब राहुल देव ने जीत की यह खबर एसडी को सुनाई तो उनके शरीर में हरकत हुई थी।

लाल और सुनहरे रंग वाली क्लब की जर्सी के कट्टर समर्थकों के पास ऐसे और कई किस्से हैं। क्लब की सूची महान फुटबॉलरों से भरी है। 40 और 50 के दशक में सोमाना, सुनील घोष और अहमद खान जैसे अग्रणी हमलावरों से लेकर फॉर्वर्ड खेलने वाले सुरजीत सेनगुप्ता, श्याम थापा, पी. सिन्हा, परिमल डे, सुभाष भौमिक तक और बाद के दशकों में डिफेंडर राम बहादुर और सुधीर कर्मकार तक इसमें शामिल रहे हैं। सूची में तुलसीदास बलराम, सुकुमार समाजपति और महान ईरानी माजिद बिशकर, जादुई मध्य क्षेत्र कौशल वाले कृष्णू डे और भाईचुंग भूटिया के कारनामों को शामिल किया गया है। भारतीय फुटबॉल इतिहास बोर्ड्स पर मौजूद है।

तीन खिलाड़ियों, अहमद खान (1952), जे. किट्टू (1956) और बालाराम (1960) के साथ ईस्ट बंगाल एकमात्र क्लब टीम है, जिसने ओलंपिक में भारत के लिए स्कोर किया है। बाइचुंग ने एनएफएल / आई लीग में क्लब के लिए अधिकतम गोल (49) बनाए हैं। 1953 में यूरोप के आधिकारिक दौरे पर एक टीम भेजने वाला यह पहला भारतीय क्लब था और लीसेस्टर सिटी द्वारा आयोजित एक टूर्नामेंट में आमंत्रित एकमात्र भारतीय टीम थी। 1948 में चीनी ओलंपिक टीम को 2-0 से हराकर किसी विदेशी टीम के खिलाफ जीत हासिल करने वाली यह पहली भारतीय टीम थी। उस वक्त की टॉप टीम मॉस्को टॉरपीडो को ईस्ट बंगाल ने 1953 के एक टूर मैच में 3-3 से कब्जा किया था। पूर्वी बंगाल एक विदेशी टीम को हराकर आईएफए शील्ड जीतने वाली पहली टीम थी जब उन्होंने 1970 में पास क्लब (ईरान) को 1-0 से हराया। क्लब ने अपने खाते में एक और ट्रॉफी जोड़ी जब उन्होंने 2003 में जकार्ता में एलजी आसियान क्लब कप पर कब्जा जमा लिया।

अपने सौवें वर्ष में, क्लब प्रबंधन ने 1 अगस्त से एक बहुत ही महत्वाकांक्षी स्मारक योजना तैयार की है। विख्यात फिल्म निर्माता गौतम घोष क्लब की विभिन्न उपलब्धियों पर एक वृत्तचित्र पर काम कर रहे हैं, जो विभाजन के आसपास शरणार्थियों के उत्थान में ईस्ट बंगाल क्लब की भूमिका को उजागर करता है। कई सेलेब्रिटी शताब्दी स्मारिका के लिए लिख रहे हैं। महान खिलाड़ियों की यादें, मैच, जीत और हार लोगों के खेल के इतिहास को बनाए रखती हैं। इसके अलावा, पूर्वी बंगाल, बंगाल के सामाजिक इतिहास की पीड़ा का एक महत्वपूर्ण टुकड़ा भर है।

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