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98 की सुरीली शन्नो

विदुषी शन्नो खुराना की क्या गजब की जिजीविषा है कि आज 98 की उम्र में भी वे बिना नागा रियाज़ करती...
98 की सुरीली शन्नो

विदुषी शन्नो खुराना की क्या गजब की जिजीविषा है कि आज 98 की उम्र में भी वे बिना नागा रियाज़ करती हैं—सादगी इतनी कि कहती हैं कि “अभी बहुत कुछ सीखना बाकी है।” रामपुर सहसवान घराने की यह गायिका इस समय देश की सबसे वयोवृद्ध कलाकार हैं। संगीत उनका ओढ़ना-बिछौना है।

अविभाजित भारत में जब अंग्रेज़ों से लोहा लिया जा रहा था, उस काल में—यानी 23 दिसंबर, सन् 1927—राजस्थान की तत्कालीन जोधपुर रियासत में तैनात रेलवे इंजीनियर चमनलाल कुमार और जमुना बाई के घर जन्मी यह बालिका आज 21वीं शताब्दी के सन् 2025 में खड़ी, मुस्कुराती हुई, हर आगंतुक से मिलने-बतियाने को तैयार रहती हैं। सन् 2027 उनकी जन्म-शताब्दी का वर्ष होगा, जब वे अपने गायन कैरियर के 80 से अधिक वर्ष देख चुकी होंगी। पाँच बहनों और तीन भाइयों में वे अब अकेली बची हैं, जिनका बाल-नाम राजकुमारी रखा गया था। लेकिन जालंधर की एक महिला—जो एक अच्छे काम के लिए धन जुटाने के उद्देश्य से जोधपुर आई थीं—ने उनका नाम बदलकर ‘शन्नो’ रख दिया।

बालिका शन्नो को संगीत से शुरू से ही लगाव था। वे रेडियो पर रोशनआरा बेगम, हीराबाई बड़ोडेकर और नारायणराव व्यास को ध्यान से सुनतीं और दोहराने की कोशिश करती थीं। एक बार एक सन्यासी उनके घर आए और उनके पिता से कहा कि तुम्हारी यह बेटी मंच पर जाएगी। सन्यासी की यह बात सुनकर बालिका शन्नो संगीत के प्रति और भी जुनूनी हो गईं। ‘तत्कालीन भारत’ में उस समय महिला संगीतकारों को समाज ‘दूसरी महिला’ के रूप में देखता था। पिता भी नहीं चाहते थे कि बेटी पेशेवर बने। लेकिन बालिका की ज़िद ने पिता को पिघला दिया और अंततः पंडित रघुनाथ राव मुसलगांवकर से उनका सीखना आरंभ हुआ।

आज सन् 2025 में अपने प्रथम गुरु को याद करते हुए वे बताती हैं कि उनके गुरु इतने सज्जन व्यक्ति थे कि वे अपनी आँखें भी नहीं उठाते थे। उस दौर के अनुसार 18 वर्ष होते ही विवाह और लाहौर आगमन ने उनके जीवन में रंग भर दिया। पति को कोई आपत्ति नहीं थी। सहृदय पति डॉ. परमेश्वर लाल खुराना ने पत्नी के शौक को सलाम करते हुए उन्हें आगे की राह दिखा दी।

अविभाजित भारत के उस काल में आकाशवाणी का संगीत प्रभाग जीवनलाल मट्टू की देखरेख में संचालित हुआ करता था, जिन्होंने दो साल पहले ही एक पंजाबी नौजवान आवाज़ की खोज की थी—जो आगे चलकर मोहम्मद रफ़ी के रूप में पहचाने गए। शन्नो खुराना की प्रतिभा को उन्होंने एक प्रतियोगिता में पहले ही परख लिया था। उन्होंने शन्नो खुराना को आकाशवाणी पर गाने के लिए आमंत्रित करते हुए पूछा—“रेडियो पे गाओगी?” यह सुनना मानो मुँह-माँगी मुराद पूरी होना था।

सन् 1945 में ऑल इंडिया रेडियो, लाहौर के स्टूडियो में गाया गया राग मुल्तानी आज 80 साल बाद भी उन्हें याद है। प्रस्तुति के बाद मिले पच्चीस रुपये लेकर वे स्टूडियो से निकली ही थीं कि प्रोग्राम ऑफिसर श्री मट्टू ने उनसे तोड़ी और मुल्तानी—इन दो हिंदुस्तानी शास्त्रीय रागों का अंतर पूछा। वे निरुत्तर हो गईं और अगले ही क्षण संकल्प लिया कि वे शास्त्रीय संगीत की बारीकियों का गहन अध्ययन करेंगी।

इसी बीच देश में अस्थिरता का वातावरण कायम हो चुका था। माहौल में हिंदू-मुस्लिम ज़हर घुल चुका था। सन् 1947 लगते ही वे पति के साथ लाहौर से दिल्ली आ गईं। पति उनकी सुरों के प्रति दीवानगी को समझते थे। एक दिन उन्होंने लगभग चेतावनी की मुद्रा में समझाया कि "यदि तुम्हें अभ्यास करने के लिए समय नहीं मिला, तो तुम सब कुछ खो दोगी।” ऐसे समय में रेडियो—आकाशवाणी—ने उन्हें सहारा दिया। वयोवृद्ध तबला वादक पंडित चतुरलाल उनके घर अभ्यास करने आने लगे।

रेडियो, लाइव ब्रॉडकास्ट और संगीत भारती स्कूल से जुड़ने पर उनके गायन में निखार आया। इसी मध्य संगीत अध्येता ठाकुर जयदेव सिंह ने उन्हें सलाह दी कि खैरागढ़ स्थित संगीत विश्वविद्यालय से उच्च तालीम के लिए संपर्क करना चाहिए। लेकिन अपनी महत्त्वाकांक्षा के लिए परिवार छोड़ना उन्हें मंज़ूर नहीं था। पति के आग्रह पर अंततः उन्होंने यह स्वीकार कर लिया। उधर ठाकुर जयदेव सिंह की बात का मान रखते हुए खैरागढ़ विश्वविद्यालय के कुलपति कृष्ण नारायण रतनजंकर ने शन्नो खुराना का स्वागत बेटी की तरह किया। खैरागढ़ से संगीत में डॉक्टरेट की उपाधि हासिल करने वाली वे पहली महिला बनीं।

बाद में दिल्ली लौटने पर रामपुर सहसवान घराने के उस्ताद मुश्ताक हुसैन ख़ान उन्हें आगे की तालीम देने को तैयार हुए। यहाँ भी उन्हें कड़ा इम्तिहान देना पड़ा। जब उस्ताद आश्वस्त हो गए, तभी उन्होंने गंडाबंध शिष्या के रूप में उन्हें स्वीकार किया।

शन्नो खुराना अपने उस्ताद को याद करते हुए बताती हैं कि 1964 में उनके देहावसान के बाद वे भीतर तक टूट गई थीं। उनकी एक सीख को उन्होंने अपने जीवन का मंत्र बना लिया—“स्वर में कभी हिंदू या मुसलमान होता है क्या?”

उनकी गायिकी में एक ओर ग्वालियर की झलक मिलती है तो दूसरी ओर आगरा घराने की भी। यही कारण है कि विदुषी शन्नो खुराना की गायिकी में गायन के विचित्र आयाम दिखाई देते हैं। उन्होंने संगीत के आठ प्रमुख घरानों की बारीकियों का शोधपूर्ण तुलनात्मक अध्ययन किया है, साथ ही राजस्थान के लोक संगीत पर भी शोध-कार्य किया है। उनके दोनों शोध-कार्य पुस्तक रूप में प्रकाशित हैं।

ठुमरी, टप्पा, मांड, होरी, कजरी और चैती जैसी उपशास्त्रीय एवं लोक विधाओं में भी वे सिद्धहस्त गायिका हैं, साथ ही भाव-प्रवण, सशक्त अभिनेत्री भी। 1956 में निर्देशक शीला भाटिया की ‘हीर-रांझा’ में कलाकारों में शामिल होना उन्होंने स्वीकार किया। दिल्ली रंगमंच के लिए एकदम अनजान चेहरे वाली इस 29 वर्षीय युवती ने अपनी दमदार आवाज़ और अभिनय से दर्शकों को इतना चकित कर दिया कि पंडित जवाहरलाल नेहरू ने शो के बाद उन्हें गले लगाकर कहा—“गजब कर दिया, लड़की।” ‘हीर-रांझा’ में ‘हीर’ की भूमिका निभाकर शन्नो खुराना सेलेब्रिटी बन गई थीं।

पंजाब की एक अन्य दुखांत प्रेम कहानी ‘सोहनी-महिवाल’ पर भी उनका योगदान याद किया जाता है, जिसमें उन्होंने 40 रागों को बुना। यह शास्त्रीय ओपेरा पश्चिमी ओपेरा की तरह नहीं था। अभिनय के प्रति अपने प्रेम से प्रेरित होकर उन्होंने 1960 और 70 के दशक में ‘जहाँआरा’, ‘चित्रलेखा’ और ‘सुंदरी’ जैसे संगीत ओपेरा तैयार किए और खूब सराहना पाई। अपनी इस ऐतिहासिक परिकल्पना के बारे में वे कहती हैं—“मैंने सोचा, क्यों न आम आदमी तक शास्त्रीय राग की पहुँच बनाई जाए?”

केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी की रत्न सदस्यता (फ़ेलोशिप), पंजाब संगीत नाटक अकादमी सम्मान, इंदिरा गांधी प्रियदर्शिनी सम्मान एवं ‘गोल्डन नाइटिंगेल ऑफ़ द ईस्ट’ (यूनेस्को) जैसे प्रतिष्ठित सम्मानों से विभूषित डॉ. शन्नो खुराना को भारत सरकार ने पद्मश्री और पद्मविभूषण से नवाज़ा है।

आज भले ही वे उम्र के शतक से बस दो वर्ष दूर—98 वर्ष की—हों, लेकिन इस उम्र में भी पूरी तरह चुस्त-दुरुस्त और संगीत की अनवरत साधना में व्यस्त हैं। शन्नो खुराना से बातें करना भी संगीत को सुनने जैसा ही आनंददायक और हृदयस्पर्शी होता है। यह भाव और भी प्रेरक हो जाता है जब वे कहती हैं—“अभी बहुत कुछ सीखना बाकी है।”

विदुषी शन्नो खुराना शतायु हों—यही कामना है।

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