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एक ही मां की कोख से जन्में थे ध्यानचंद और रूप सिंह, ध्यानचंद हॉकी के जादूगर बन गए और रूप......

रूप सिंह के खेल से प्रभावित हिटलर ने जर्मनी के म्यूनिख शहर में एक सड़क का नाम रूप सिंह मार्ग रखने की घोषणा की। लंदन में 2012 में हुए ओलंपिक में भी रूप के नाम पर एक मेट्रो स्टोशन का नाम रखा गया।
एक ही मां की कोख से जन्में थे ध्यानचंद और रूप सिंह, ध्यानचंद हॉकी के जादूगर बन गए और रूप......

हॉकी की जब भी बात होती है तो हमारे मन में सबसे पहला ख्याल हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद का आता है। हॉकी के इतिहास में सबसे ज्यादा गोल ध्यानचंद के ही नाम है। लेकिन एक खिलाड़ी और भी था जो शायद ध्यानचंद जितना मशहूर न हुआ हो लेकिन खुद ध्यानचंद उन्हें अपने से बड़ा खिलाड़ी मानते थे। हम बात कर रहे है रूप सिंह की जिन्हें भारतीय हॉकी के महान खिलाड़ी ध्यानचंद के भाई नाम से जाना जाता है। शायद इसी वजह से लोगों ने उन्हें भुला दिया और हॉकी के जादूगर की उपाधि निर्विरोध ध्यानचंद को दे दी गई।

2 ओलंपिक में की शिरकत

ध्यानचंद का भाई होना रूप सिंह की किस्मत में लिखा था लेकिन यही किस्मत उनके लिए एक हद तक बदकिस्मती साबित हुई। जीवित रहते हुए और मरने के बाद भी रुप सिंह को सिर्फ ध्यानचंद के भाई के नाम से ही जाना गया। हॉकी के शानदार लेफ़्ट इन खिलाड़ी रूप सिंह 8 सितम्बर, 1908 को मध्यप्रदेश के जबलपुर में सोमेश्वर सिंह के घर जन्मे थे। रुप सिंह की स्टिक से निकले गोलों ने भारत को दो बार (1932 और 1936 में) ओलम्पिक का स्वर्ण मुकुट पहनाया। 1932 में अमेरिका के लॉस एंजिल्स में ओलंपिक खेलों का आयोजन हो रहा था। ब्रिटिश झंडे तले भारत की टीम दूसरी बार मेडल झटकने के इरादे से ओलंपिक में उतर रही थी। ओलंपिक में ध्यानचंद को पहली बार टीम की कमान सौंपी गई। वहीं छोटे भाई रूप सिंह को पहली बार ओलंपिक टीम में शामिल किया गया।

1975 में विश्व विजेता हाकी टीम के सदस्य और ध्यान चंद के बेटे अशोक कुमार ने बीबीसी को दिए एक साक्षात्कार में रूप सिंह से जुड़ा एक मजेदार किस्सा बताया। वो बताते हैं, ''रूप सिंह ने लॉस एंजिल्स ओलंपिक टीम में चुने जाने पर भी वहाँ जाने से इंकार कर दिया क्योंकि उनके पास कपड़े नहीं थे। मेरे बाबूजी ने उन्हें अपने पैसों से कपड़े ख़रीद कर दिए। उनका एक सूट सिलवाया तब जाकर वो अमेरिका जाने के लिए तैयार हुए।''

पहले ही ओलंपिक में रूप ने बड़े भाई को पछाड़ा

लॉस एंजिल्स ओलंपिक में 4 अगस्त को पहले मैच में भारत ने जापान को एकतरफा मुकाबले में 11-1 से हराया। इस मैच में 4 गोल ध्यानचंद ने किए जबकि 3 गोल रुप सिंह की स्टिक से निकले। दूसरा मैच मेजबान 8 अगस्त को अमेरिका से था। भारत ने इस मैच अमेरिका को उसी के दर्शकों के सामने 24-1 से धो डाला। इस मैच में ध्यानचंद ने 8 गोल किए। लेकिन पहली बार ध्यानचंद को गोल ठोंकने में अपने भाई रूप सिंह से यहां मात मिली क्योंकि रूप ने 10 गोल ठोंके। अपने पहले ही ओलंपिक में 13 गोल करने वाले रूप सिंह सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी रहे और भारत दूसरी बार हॉकी में ओलंपिक गोल्ड मेडल जीतने में सफल हुआ। 1932 के ओलंपिक में भारत ने कुल 35 गोल ठोंके और महज 2 गोल खाए।

लॉस एंजिल्स ओलंपिक को 4 साल बीत चुके थे। इन चार में भारत ने 37 अंतरराष्ट्रीय मैच खेले जिसमें 34 भारत ने जीते, 2 ड्रा हुये और 2 रद्द हो गये। इतने मैच खेलकर रूप सिंह के हाथों में बिजली जैसी तेजी आ गई थी जिसकी वजह से गेंद उनकी स्टिक से लगकर गोली की तरह निकलती थी। जैसे-जैसे बर्लिन ओलंपिक नजदीक आ रह था वैसे-वैसे उनके खेल में धार बढ़ती ही जा रही थी। उनके शार्ट इतने तेज होते थे कि कई बार डर होता था कि उससे कोई घायल न हो जाए।

1936 बर्लिन ओलंपिक से पहले जर्मनी के अखबारो में भारतीय हॉकी के किस्से छप रहे थे और ध्यानचंद और रुप सिंह का खेल देखने के लिए पूरा जर्मनी बेताब हुआ जा रहा था। ध्यानचंद की कप्तानी में हॉकी टीम ओलंपिक में हिस्सा लेने के लिए जर्मनी के लिए रवाना हुई। बर्लिन ओलंपिक का आयोजन की तैयारियां जर्मनी ने बड़ी ही धूमधाम से की जा रही थी। ओलपिंक शुरू होने से 13 दिन पहले 17 जुलाई 1936 को जर्मनी के साथ भारत को प्रैक्टिस मैच खेलना था। इस मैच में भारत ने जर्मनी को 4-1 से हराया। इसके बाद भारत ने सबक लेते हुए ओलंपिक के लीग के पहले मैच में हंगरी को 4-0, फिर अमेरिका को 7-0, जापान को 9-0, सेमीफाइनल में फ्रांस को 10-0 से हराया और बिना गोल खाए हर किसी को हराकर फाइनल में पहुंचा।

फाइनल में जर्मनी के खिलाफ दागा पहला गोल

देश की आजादी को अभी ग्यारह साल बाकी थे लेकिन इत्तेफाकन फाइनल का दिन भी 15 अगस्त का ही था। 1936 बर्लिन ओलंपिक हॉकी के फाइनल में भारत का सामना जर्मनी से नहीं बल्कि हिटलर से होना था। वो हिटलर जिसने पूरी दुनिया के दिलों में अपनी तानाशाही से खौफ पैदा कर दिया था। लेकिन एक मामूली दर्जे के भारतीय सिपाही के आगे दुनिया के सबसे बड़े तानाशाह को घुटने टेकने थे। पूरा स्टेडियम दर्शकों से खचाखच भरा हुआ था, आखिर खुद हिटलर आज अपनी टीम की हौसला-अफजाई करने आए थे। मुकाबले से ठीक पहले भारतीय हॉकी टीम के कोच पंकज गुप्ता ड्रेसिंग रूम में आए। उन्होंने अपने हाथ में भारत का कांग्रेसी झंडा लिए हुए थे। उन्होंने अपनी टीम के खिलाड़ियों से बातचीत की और एक स्वर में सबने मिलकर वंदे मातरम गाया। हिटलर के खुद इस मैच में आने से आप इसी बात से अंदाजा लगा सकते हैं कि यह मैच जर्मनी के लिए कितना मायने रखता था।

हिटलर की मंजूरी मिलने के बाद रेफरी ने टॉस कर सीटी बजाई और फिर खेल शुरू हुआ। पहले हाफ में जर्मनी टीम ने बहुत अच्छा खेल दिखाया और भारत को सिर्फ 1-0 से बढ़त लेने दी। ये पहला गोल भी मेजर ध्यानचंद की स्टिक से नहीं बल्कि रुप सिंह की स्टिक से निकला था। दूसरे हाफ में भारतीय कप्तान ध्यानचंद और रुप सिंह ने असली खेल दिखाने के लिए अपने जूते उतार फेंके और नंगे पांव जर्मनी की धरती पर उसी की टीम से लोहा लेने लगे। रूप सिंह के 1 गोल के कारवां को आगे बढ़ाते हुए भारतीय टीम ने लगातार 7 गोल दागे और मैच खत्म होने तक स्कोर 8-1 कर दिया। जर्मनी की टीम हार चुकी थी। लेकिन मैदान में मौजूद हिटलर की आंखें भारत के खिलाड़ी ग्वालियर के कैप्टन रूप सिंह पर ठहर गईं।

जर्मनी के म्यूनिख में रूप सिंह मार्ग 

रुप के खेल से प्रभावित हिटलर ने उसी समय जर्मनी के म्यूनिख शहर में एक सड़क का नाम रूप सिंह मार्ग रखने की घोषणा की। लंदन में 2012 में हुए ओलंपिक में भी ध्यान चंद और लेस्ली क्लाडियस के साथ-साथ रूप सिंह के नाम पर एक मेट्रो स्टोशन का नाम रखा गया। मेजर ध्यानचंद एक बार अपने भाई रुप सिंह के बारे में कहा था , “मैं रूप चंद के आस-पास भी नहीं फटकता।” आप ये बात जानकर चौंक जाएंगे कि कैप्टन रूप सिंह सिर्फ हॉकी ही नहीं बल्कि क्रिकेट और लॉन टेनिस के भी अच्छे खिलाड़ी रहे हैं। 1946 में उन्होंने ग्वालियर स्टेट की तरफ से दिल्ली के खिलाफ रणजी ट्राफी मैच भी खेला।

ग्वालियर में रूप सिंह क्रिकेट स्टेडियम 

देश के खेलनहार बेशक कैप्टन रूप सिंह को भूल चुके हों पर जर्मनी के म्यूनिख शहर में कैप्टन रूप सिंह मार्ग इस विलक्षण हॉकी खिलाड़ी की आज भी याद दिलाता है। कैप्टन रूप सिंह दुनिया के पहले ऐसे खिलाड़ी हैं जिनके नाम ग्वालियर में फ्लड लाइटयुक्त क्रिकेट का मैदान है। ग्वालियर के रूप सिंह स्टेडियम में ही सचिन तेंदुलकर ने दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ किक्रेट के इतिहास का पहला दोहरा शतक बनाया था, उसी दिन दुनिया ने उन्हें किक्रेट के भगवान का दर्जा दिया था।

हॉकी में ध्यान और रूप दोनों बेजोड़ थे। ध्यानचंद दिमाग तो रूप सिंह दिल से हॉकी खेलते थे। एक कोख के इन सपूतों ने हॉकी में बेशक देश को अपना सर्वस्व दिया हो पर ओलंपिक के हीरो रूप सिंह को कुछ भी नहीं मिला। गुरबत में जीते आखिर रूप सिंह ने 16 दिसम्बर, 1977 को आंखें मूद लीं।

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