हिंदी में सिनेमा के इतिहास पर सबसे नई पुस्तक है - समय, सिनेमा और इतिहास। हिंदी सिनेमा के सौ साल पूरे होने पर जश्न तो कई हुए, अखबारों, पत्रिकाओं में कई अहम विशेषांक भी निकले लेकिन पुस्तक के रूप में बॉलीवुड के इतिहास को नए तरीके से समेटने का काम कम हुआ। कुछ देर से ही सही, लेकिन संजीव श्रीवास्तव की यह पुस्तक इस मायने में काफी सराहनीय है। पुस्तक में शामिल सौ साल से अधिक के हिंदी सिनेमा की बड़ी तस्वीरें, व्यक्ति और समाज की अनुभूति और अभिव्यक्ति की बहुरंगी भाव-भंगिमाओं को विविघता से संजोए हुए हैं। यहां व्यावसायिकता की चकाचौंध है, तो कला की प्रांजलता भी। बाजार के दबाव और समझौते की कहानियां हैं तो प्रतिबद सामाजिक सरोकार के नजीर भी हैं।
बीते पचास से भी ज्यादा वर्ष से शायरी और फिल्मी गीत लिख रहे गुलज़ार वैसे तो आधुनिक पीढ़ी के साथ लगातार तालमेल बिठाते रहे हैं लेकिन उनका कहना है कि वह कलम से कागज पर लिखने की अपनी पुरानी आदत नहीं बदल सकते।
बीते हफ्ते सुप्रीम कोर्ट की 5 सदस्यीय खंड पीठ के सामने जिस तरह सरकार और पीठ के बीच तीखे शब्दों का आदान-प्रदान हुआ, उसे देखते हुए अब तक फुसफुसाए जा रहे कुछ सवाल थोड़ा ज्यादा जोर से सुनाई पडऩे लग गए हैं। क्या कार्यपालिका और न्यायपालिका एक बड़े टकराव की ओर बढ़ रही हैं? क्या संसद ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) विधेयक पारित करने में हड़बड़ी दिखाई ?