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Search Result : "सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार"

साहित्य सम्मेलन क्यों हों

साहित्य सम्मेलन क्यों हों

सन 2014 का ज्ञानपीठ पुरस्कार मराठी लेखक भालचंद्र नेमाड़े को दिया जाएगा। नेमाड़े अपने उपन्यास हिंदू – जगण्याची अड़गळ के लिए जाने जाते हैं। मराठी भाषा में अड़गळ का अर्थ होता है ऐसा कबाड़ जो संभाल कर रखा जाता है। ऐसे कबाड़ को प‌रिभाषित करने वाले नेमाड़े बहुत बेबाकी से बोलते हैं।
श्वार्जनेगर को लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड

श्वार्जनेगर को लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड

दुन‌िया भर में बॉडी ब‌िल्डर्स के मसीहा और टर्म‌िनेटर फ‌िल्म के अभ‌िनेता ऑर्नल्ड श्वार्जनेगर को इंटरनेशनल लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड से नवाजा गया है। यह अवॉर्ड उन्हें जर्मनी के हैमबर्ग में आयोजित गोल्डन कैमरा पुरस्कार समारोह में द‌िय‌ा गया। श्वार्जनेगर को ‘ट्विन्स’ में उनके सह कलाकार डैनी डेविटो ने इस पुरस्कार से नवाजा। दोनों एक साथ 1988 में बेहद सफल कॉमेडी फिल्म ‘ट्विन्स’ के रिलीज होने के 27 साल बाद द‌िखे। फिल्म में दोनों ने जुड़वां भाईयों की भूम‌िका ‌न‌िभ‌ाई थी।
शायर! ओ शायर!

शायर! ओ शायर!

हाल ही में भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से नवाजी गई कवयित्री की कविताएं
ऑस्कर पुरस्कारों का भ्रम

ऑस्कर पुरस्कारों का भ्रम

ऑस्कर पुरस्कारों को लेकर सम्पूर्ण दुनिया में एक मोह और भ्रम पाया जाता है| इन्हें ऐसे पेश किया जाता है जैसे यह दुनियाभर के सिनेमा का मानदंड हों।
अमर्त्य सेन को चांसलर नहीं बनाना चाहती सरकार

अमर्त्य सेन को चांसलर नहीं बनाना चाहती सरकार

नोबल पुरस्कार विजेता और नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति अमर्त्य सेन ने गहरी पीड़ा से लिखे पत्र में इस बात का खुलासा किया है कि केंद्र सरकार उन्हें इस विश्वविद्यालय के कुलपति के तौर पर दूसरी पारी नहीं देने की इच्छुक है। इस पत्र के बाद से आकादमिक जगत में बढ़ती राजनीतिक दखलंदाजी पर तीखी चर्चा शुरू हो गई है।
भालचंद्र नेमाड़े को ज्ञानपीठ पुरस्कार

भालचंद्र नेमाड़े को ज्ञानपीठ पुरस्कार

मराठी के जाने माने साहित्यकार भालचंद्र नेमाड़े को 50वां ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने की घोषणा की गई। नेमाड़े देश का सर्वोच्च साहित्य सम्मान पाने वाले 55वें साहित्यकार हैं। इससे पहले पांच दफा यह पुरस्कार संयुक्त रूप से प्रदान किया गया था।
इंसाफ की तलाश और हिंसा का चक्र

इंसाफ की तलाश और हिंसा का चक्र

राजधानी के प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के एक पूर्व प्रोफेसर नागरिकों की एक अनुसंधान टीम के साथ घोर मोआवादी प्रभाव वाले एक जिले में गए जहां उनके एक पूर्व छात्र पुलिस अधीक्षक हैं। पुलिस अधिकारी की अपने पूर्व शिक्षक से मुलाकात का यह गर्वीला क्षण था, उन्होंने अपने गुरु के पांव छुए और उनके साथ अपनी तस्वीर खिंचवाई। नागरिक अनुसंधान टीम ने तब तक प्रशासन, पुलिस और सरकार समर्थित नक्सल विरोधी सशस्त्र निजी सेना का पक्ष ले लिया था इसलिए प्रोफेसर ने माओवादियों का पक्ष लेने के लिए नदी पार जाने की बात कही। इस पर शिष्य पुलिस अधीक्षक तपाक से बोले, सर, आप उस पार गए कि दुश्मन की तरफ होंगे और हमारी गोली खा सकते हैं। मैंने जानबूझकर दोनों लोगों का नाम छिपाया है ताकि एक निजी गुफ्तगू दोनों के लिए सार्वजनिक झेंप की वजह न बन जाए। लेकिन उनकी बातचीत से प्रशासन की ताजा मानसिकता पता चलती है: कि अब नक्सलवादियों के साथ निबटने में बीच की कोई जनतांत्रिक जमीन नहीं बची है। न सिविल हस्तक्षेप की कोई पहल, जैसे जयप्रकाश नारायण ने 1970 के दशक में बिहार के मुसहरी में की थी। अब प्रतिनिधि शासन और माओवादियों के बीच बस मैदान-ए-जंग है।
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