Advertisement

विपक्ष का हाथ ऊपर, मोदी-शाह का जादू फीका

“राज्यों में सत्ता खोती भाजपा के सामने सहयोगियों के साथ घर में भी विरोधियों को संभालने की चुनौती,...
विपक्ष का हाथ ऊपर, मोदी-शाह का जादू फीका

“राज्यों में सत्ता खोती भाजपा के सामने सहयोगियों के साथ घर में भी विरोधियों को संभालने की चुनौती, जमीनी मुद्दों से विपक्ष को मौका”

कर्नाटक के उपचुनावों ने कुछ लाज रख ली, वरना हवा का रुख तो ऐसा प्रतिकूल होने लगा है कि कई राज्यों से तेजी से भगवा रंग उतरने लगा है। खासकर उत्तर, मध्य और पश्चिम भारत में 2014 के बाद जिस जोरदार भाजपाई कामयाबी के बूते मोदी-शाह की जोड़ी को ‘अजेय’ और ‘आधुनिक चाणक्य’ जैसे जुमलों से नवाजा जाने लगा था, वहीं जोर का झटका लगने लगा है। तिस पर 2019 के लोकसभा चुनावों में 303 सीटें लेकर आई भाजपानीत एनडीए की मोदी सरकार छह महीने के भीतर ही अपने कोर एजेंडे अनुच्छेद 370 हटाओ, राम मंदिर बनाओ और अब नागरिकता विधेयक के साथ अपने मतदाताओं को रिझाने का सभी उपक्रम कर चुकी है। तो, फिर साल भर पहले तक देश की 70 फीसदी आबादी वाले हिस्से पर राज करने वाली भाजपा अब 40 फीसदी आबादी वाले हिस्से पर क्यों सिमट आई है? आशंकाएं तो ऐसी हैं कि सिमटने का दौर अगले कुछ विधानसभा चुनावों में तेज हो सकता है। बदतर तो यह है कि आशंकाएं सहयोगियों पर भी ऐसे घिरने लगी हैं कि वे अपना वजूद बचाने के लिए अलग होकर झंडा बुलंद करने लगे हैं।

इसकी सबसे जोरदार मिसाल तो महाराष्ट्र में शिवसेना का खेमा बदलकर सरकार बना लेना है और झारखंड में भी आजसू का उससे अलग हो जाना है। महाराष्ट्र और उससे पहले राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश जैसे राज्य एक-एक करके भाजपा के हाथ से निकलते जा रहे हैं। पार्टी काफी समझौते कर जैसे-तैसे जननायक जनता पार्टी के सहारे हरियाणा में सरकार बचा पाई। कर्नाटक में भी 15 विधानसभा सीटों के उपचुनाव में कांग्रेस और जेडी-एस के अलग लड़ने से शायद उसे लाभ मिला और 12 सीटें जीतकर वह सरकार बचाने में कामयाब हो पाई।

मोदी-शाह जोड़ी की अहम रणनीति यह भी थी कि हर राज्य में प्रभावशाली जातियों को अलग-थलग करके बाकियों को उनके खिलाफ भावना को भुनाकर एकजुट किया जाए और इस तरह लंबे समय तक राज किया जाए। इसी रणनीति के तहत हरियाणा में जाटों का वर्चस्व तोड़ने के लिए बेहद मामूली राजनैतिक रसूख वाले पंजाबी बिरादरी के मनोहरलाल खट्टर को मुख्यमंत्री बनाया गया। महाराष्ट्र में मराठा सत्ता को चुनौती देकर मामूली आबादी वाले ब्राह्मण समुदाय के देवेंद्र फड़नवीस को कमान दी गई थी। झारखंड में पहली दफा गैर-आदिवासी रघुवर दास को नेतृत्व दिया गया। लेकिन हालिया चुनावों ने साबित किया कि यह प्रयोग काम नहीं कर पाया। यह हरियाणा और महाराष्ट्र में तो दिखा ही, झारखंड में भी चुनावों के बीच में रघुवर दास पर फोकस घटा दिया गया है।

तो, वजहें क्या हैं? सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटी (सीएसडीएस) के डायरेक्टर संजय कुमार कहते हैं, “अब दौर बदल गया है। कम से कम राज्य चुनावों में लोग जमीनी मुद्दों और सरकारों के कामकाज पर वोट देने लगे हैं।” तो क्या इसका मतलब यह है कि बड़े भावनात्मक मुद्दे और ध्रुवीकरण की कोशिशें काम नहीं आ रही हैं? या राजकाज और आर्थिक मसलों पर सरकारी नाकामियां विपक्ष को मौका दे रही हैं? राजनैतिक विश्लेषक, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष योगेंद्र यादव कहते हैं, “एक बात तो साफ है कि भाजपा को अब पहले जैसा जन समर्थन नहीं मिल रहा है। राज्य चुनावों में राष्ट्रवाद, धारा 370 जैसे मुद्दे मतदाताओं को ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाते। भाजपा महाराष्ट्र, हरियाणा के चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी बनकर इसलिए उभरी क्योंकि विपक्ष ने मजबूती से चुनाव नहीं लड़ा।” महाराष्ट्र में कांग्रेस के नेता अपने ही गढ़ में फंसे रह गए। वहां केवल शरद पवार ही थे, जो पूरे विपक्ष की अगुआई कर रहे थे। हरियाणा में कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने भूपेंद्र सिंह हुड्डा को बहुत देर में फ्री हैंड दिया, जिसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ा। कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, “भाजपा के खिलाफ नाराजगी बढ़ रही है। लोगों के जीवन स्तर में सुधार नहीं दिख रहा है, अर्थव्यवस्था चौपट हो गई है। देश में डर का माहौल बना है। सारा जोर भाजपा को हराने पर है। इसके लिए केवल विपरीत विचारधारा वाले दल ही नहीं, भाजपा के सहयोगी भी भाजपा विरोधी खेमे में आ रहे हैं।”

हालांकि भाजपा के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, “ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। उत्तर प्रदेश में भी सपा-बसपा जैसे प्रतिद्वंद्वी दल एक साथ आए थे। लेकिन क्या हुआ? ऐसा ही गठबंधन कर्नाटक में कांग्रेस और जेडीएस ने मिलकर किया, लेकिन वहां भी वे अपनी सरकार नहीं बचा पाए। महाराष्ट्र में शिवसेना ने पूरे चुनाव प्रचार के दौरान मोदी और फड़नवीस के नाम पर वोट मांगा और जनता ने भी भाजपा-शिवसेना गठबंधन को जनादेश दिया था लेकिन शिवसेना ने उसका उल्लंघन किया।”

भाजपा के नेता भले यह स्वीकार न करें कि जनता का मूड उसके खिलाफ हो रहा है लेकिन कई सहयोगी दल परेशान हैं। आशंका है कि जिस तरह से अर्थव्यवस्था की स्थिति बिगड़ रही है, वह आगामी विधानसभा चुनावों में एनडीए के लिए नई परेशानी खड़ी कर सकती है। एनडीए के सहयोगी दल के एक नेता के अनुसार, “भाजपा और उसके सहयोगी दलों में पहले जैसे संबंध नहीं रह गए हैं। इसकी वजह यह है कि भाजपा को लगता है कि नरेंद्र मोदी के दम पर ही सहयोगी दलों को सीटें मिल रही हैं। ऐसे में सहयोगी दलों की बातें कम सुनी जा रही हैं।” ऐसा ही भाजपा के कई नेता पार्टी के अंदर भी महसूस कर रहे हैं।

भाजपा के एक वरिष्ठ नेता का भी कहना है कि पिछले चार-पांच साल में पार्टी की कार्यशैली में काफी बदलाव आया है। ज्यादा फैसले केंद्रीकृत हो रहे हैं। पहले की तरह पार्टी में राय-मशविरा लेकर काम नहीं हो रहा है। महाराष्ट्र के एक भाजपा नेता कहते हैं, “जिस तरह से फड़नवीस और अजित पवार की सरकार राज्य में रातोरात बनी, उससे साफ था कि पूरा काम इतने गुप्त तरीके से किया गया कि किसी को कानोकान खबर नहीं लगी। यह भाजपा की कार्यशैली नहीं रही है। राज्य इकाई शुरू से यह कह रही थी कि शिवसेना के साथ गठबंधन नहीं करना चाहिए। लेकिन टिकट वितरण से लेकर गठबंधन का फैसला लेने में केंद्रीय नेतृत्व का अहम रोल रहा, जिसका खामियाजा हमें भुगतना पड़ा है।”

टिकट वितरण पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक पदाधिकारी का कहना है कि महाराष्ट्र में केंद्रीय नेतृत्व ने राकांपा और कांग्रेस के बागी नेताओं पर ज्यादा भरोसा किया। इससे कार्यकर्ता नाखुश थे। चुनाव के समय कार्यकर्ताओं ने वैसी सक्रियता नहीं दिखाई, जैसी उम्मीद थी। जाहिर है, भाजपा में भी अब विरोध के स्वर उठने लगे हैं। लेकिन, क्या विपक्ष के पास इस मौके को भुनाने की पुख्ता तैयारी है? इस पर कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता का कहना है कि जैसा शरद पवार ने महाराष्ट्र में किया है, जिस तरीके से उन्होंने गठबंधन के लिए कांग्रेस को मनाया और शिवसेना को भी सेकुलर दायरे में आने को मजबूर किया, उसी तरह की रणनीति दूसरे जगहों पर अपनानी होगी। कांग्रेस को महाराष्ट्र जैसा लचीला रुख अपनाना पड़ेगा।

चिंता के सबबः प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह को रणनीतियों पर दोबारा सोचने की दरकार

भाजपा में विरोधी सुर

छह महीने पहले अजेय दिखने वाली मोदी-अमित शाह की जोड़ी को अब चुनौती मिलनी शुरू हो गई है। विपक्ष को अब लगने लगा है कि भाजपा को हराया जा सकता है। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता का कहना है “महाराष्ट्र और हरियाणा में जो परिणाम आए हैं, वह हमारी उम्मीदों के अऩुसार नहीं हैं। इस चुनौती से हम निपटेंगे। लेकिन एक बात साफ है कि हमेशा राष्ट्रवाद नहीं चलता। यह पार्टी नेतृत्व को समझना होगा। साथ ही राज्य स्तर पर पार्टी के समीकरण भी काफी मायने रखते हैं।”

महाराष्ट्र में चुनाव परिणाम आने के बाद भाजपा के अंदर से भी विरोध के सुर उठने लगे हैं। राज्य में पार्टी के वरिष्ठ नेता और पूर्व मंत्री एकनाथ खड़से ने बयान दिया कि यह पहले वाली भाजपा नहीं है। वे गंभीरता से पार्टी छोड़ने के बारे में सोचने लगे हैं। उन्होंने यहां तक कहा कि मुझे शिवसेना से ऑफर भी है। खड़से का यह भी कहना है कि विधानसभा चुनावों में पंकजा मुंडे और उनकी बेटी रोहिणी खड़से की हार पार्टी के अंदर भितरघात से हुई है।

खड़से की तरह के सुर पंकजा मुंडे ने भी जाहिर किए हैं। उन्होंने अपनी फेसबुक पोस्ट में लिखा कि ‘राज्य में बदले राजनैतिक परिदृश्य को देखते हुए यह सोचने और निर्णय लेने की आवश्यकता है कि आगे क्या किया जाए। मौजूदा राजनीतिक बदलावों की पृष्ठभूमि में भावी यात्रा पर फैसला किए जाने की आवश्यकता है।’ इसके अगले दिन उन्होंने ट्विटर पर अपने बायो या निजी विवरण से पार्टी का नाम हटा दिया। हालांकि बाद में उन्होंने सफाई दी कि ‘मैं पार्टी की ईमानदार कार्यकर्ता हूं।’

महाराष्ट्र में पार्टी के अंदर जो विरोध शुरू हुआ है उसकी वजह देवेंद्र फड़नवीस का कमजोर होना है। महाराष्ट्र में पिछड़ी जाति के नेताओं का पार्टी में वर्चस्व रहा है। गोपीनाथ मुंडे और प्रमोद महाजन हमेशा से पिछड़ी जाति का प्रतिनिधित्व न केवल करते रहे बल्कि पार्टी में इन जातियों की पकड़ भी मजबूत रही। फड़नवीस की हार के बाद अब पिछड़ी जातियों के नेताओं को विरोध करने का मौका मिल गया है।

क्या कांग्रेस है विकल्प?

28 नवंबर 2019 का दिन कांग्रेस के इतिहास को करीब 40 साल पहले की स्थिति में ले जाता है। जब सत्ता से बाहर हो चुकी कांग्रेस ने अपने धुर विरोधी बाला साहब ठाकरे का हाथ थामा था। पार्टी के वरिष्ठ नेता कमलनाथ की यही दलील सोनिया गांधी को कांग्रेस और शिवसेना गठबंधन के लिए राजी करने में प्रमुख आधार रही। सूत्रों के अनुसार पार्टी में राहुल गांधी, अहमद पटेल, जयराम रमेश जैसे नेताओं का रुख इस समझौते के लिए सकारात्मक नहीं था। उनकी दलील थी कि शिवसेना के साथ खड़ा होना पार्टी की छवि के लिए नुकसानदेह हो सकता है। लेकिन बात तब बनी जब महाराष्ट्र के प्रमुख कांग्रेस नेताओं ने सोनिया को गठबंधन के लिए राजी होने का दबाव बनाना शुरू किया।

इसमें पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चह्वाण और पृथ्वीराज चह्वाण काफी सक्रिय रहे। गठबंधन के लिए सोनिया को तैयार नहीं होता देख इन नेताओं ने राज्य के मुस्लिम नेताओं का दांव खेला। सोनिया को राजी करने के लिए इन नेताओं ने कई मुस्लिम नेताओं की सोनिया से बात भी कराई, जिनका साफ कहना था कि पार्टी को इस समय सत्ता की बेहद जरूरत है। अगर राकांपा-शिवसेना गठबंधन के साथ नहीं गए, तो भाजपा के लिए पार्टी के कई विधायकों को तोड़ना मुश्किल नहीं होगा। इस स्थिति में पार्टी की स्थिति बहुत ज्यादा खराब हो जाएगी। इसके बाद ही सोनिया ने शरद पवार से चर्चा कर गठबंधन के लिए हामी भरी। कांग्रेस शुरू में बाहर से ही समर्थन देना चाहती थी, लेकिन शरद पवार इस बात के लिए राजी नहीं थे। उनका साफ कहना था कि अगर स्थायी सरकार चलानी है तो हर हाल में कांग्रेस को सरकार में शामिल होना होगा।

हालांकि पार्टी के एक वरिष्ठ नेता का कहना है “जब पार्टी ने फैसला कर लिया था कि गठबंधन में शामिल होना है तो शपथ ग्रहण से सोनिया और राहुल का दूरी बनाना सही संदेश नहीं था। यह रणनीति दूरगामी रूप से कितनी फायदेमंद होगी, इस पर कुछ कहना बहुत मुश्किल है।” वहीं एक अन्य नेता का कहना है कि कांग्रेस को जमीनी स्तर पर काम करना होगा, अगर ऐसा नहीं हुआ तो वह जनता के बीच भाजपा के विकल्प के रूप में नहीं खड़ी हो पाएगी।

बहरहाल, स्थितियां बेशक बदल रही हैं और मोदी-शाह जोड़ी का ही नहीं, संघ परिवार के एजेंडे भी बाकी कम ही बचे हैं। ऐसे में नागरिकता संशोधन विधेयक और एनआरसी जैसे मुद्दे ही रह गए हैं, जिसकी आजमाइश भी मोदी-शाह की जोड़ी झारखंड चुनावों में कर रही है। अगर नतीजे अनुकूल नहीं आए तो बिहार में नीतीश कुमार से भी भाजपा को चौंकाऊ फैसले देखने को मिल सकते हैं। देखना यह है कि आने वाले विधानसभा चुनाव कैसे नतीजे लेकर आते हैं, शायद उसी से राजनीति की नई धारा तय हो।

 

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad