वोटर अधिकार यात्रा राष्ट्रीय सुर्खियां बनी और इंडिया ब्लॉक की एकजुटता की गवाह भी लेकिन असली सवाल यही कि इसका महागठबंधन और खासकर कांग्रेस के लिए चुनावी हासिल क्या होने जा रहा है, इसी पर देश की केंद्रीय राजनीति भी निर्भर
कहावत है, आरा जिला घर बा, कवना बात के डर बा (आरा जिला घर तो काहे का डर)। तो, क्या, राज्य के दक्षिण-पश्चिमी हिस्से के इस शहर में लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष, कांग्रेस नेता राहुल गांधी की अगुआई में विपक्षी महागठबंधन या इंडिया ब्लॉक की वोटर अधिकार यात्रा के समापन का कोई सोचा-समझा प्रतीकात्माक संदेश था (हालांकि औपचारिक समापन राजधानी पटना में दो दिन बाद 1 सितंबर को हुआ)। यही नहीं, आयोजन 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम के एक महानायक वीर कुंवर सिंह के नाम वाले स्टेडियम में किया गया। दरअसल कुछ मील दूर बगल के सासाराम के डेहरी ओन सोन से शुरू हुई यात्रा समूचे बिहार में गोलाकार घूमकर वहीं पहुंची। इसमें प्रतीकों का इस्तेामाल पूरा था, लेकिन राज्य के लगभग सभी क्षेत्रों दक्षिण, मध्य, उत्तर, सीमांचल के करीब 1,300 किमी और 16 दिनों की इस यात्रा का चुनावी हासिल क्या है, यही सवाल सबसे अहम है। वजह, अक्टूबर-नवंबर में विधानसभा चुनाव होने हैं और चुनाव आयोग की जारी विशेष पुनरीक्षण मुहिम भी उसी के मद्देनजर है। आयोग की प्रक्रिया सवालों के घेरे में है और उस पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई है। विपक्ष उसे ही मुद्दा बना रहा है और आयोग पर सत्तारूढ़ एनडीए की मदद करने का आरोप लगा रहा है। बेशक, यह यात्रा वोटरों को अपने मताधिकार के प्रति जागरूक करने के औपचारिक ऐलान के साथ बड़ी गोलबंदी करने और अपने वोट दायरे में विस्तार की मुहिम भी थी।
गौरतलब यह भी है कि यात्रा की शुरुआत और अंत उत्तर प्रदेश से लगे हिस्सों में हुई, जहां 2020 के विधानसभा चुनावों और 2024 के लोकसभा चुनावों में भी महागठबंधन को अच्छी-खासी सीटें मिली थीं। यही नहीं, यात्रा का मार्ग इस तरह तय किया गया था कि यात्रा महागठबंधन की मजबूती वाले इलाकों से होकर सीमांचल और उत्तर बिहार के उन इलाकों से गुजरे, जहां महागठबंधन को बढ़त रही है या मामूली अंतर से सीटें गंवाई गई थीं। खासकर सीमांचल, मिथिलांचल और मगध के इलाकों में जहां, यादव-मुस्लिम (एमवाइ) समीकरण को मजबूत करने की दरकार थी। सीमांचल में पिछले विधानसभा चुनावों में असदुद्दीन औवैसी की एआइएमआइएमम की वजह से हुए नुकसान की भरपाई पर भी जोर था। उसके साथ कुछ अति पिछड़ों (ईबीसी) और दलितों या महादलितों के एक हिस्से को साथ लाने की भी कोशिश दिखी। यात्रा में उमड़ी भीड़ और मौके पर मौजूद पत्रकारों के आकलन से पता चलता है कि इसमें कामयाबी भी मिली। यह अलग बात है कि चुनावों में यह भीड़ किस कदर महागठबंधन को लाभ पहुंचा पाती है।
यात्रा के समीकरण
इस मायने में भी इस यात्रा के असली आकर्षण राहुल गांधी थे। उनकी अगुआई में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के विधानसभा में विपक्ष के नेता तेजस्वीे यादव, भाकपा-माले के दीपांकर भट्टाचार्य, विकासशील इंसान पार्टी (वीआइपी) के मुकेश सहनी और अन्य घटक पार्टियों के नेता एकजुटता का प्रदर्शन कर रहे थे। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राजेश राम भी लगातार फोकस में रखे गए। वे ऐसी दलित बिरादरी (जाटव) से हैं, जो कभी कांग्रेस के साथ थी, लेकिन बाद में बसपा और शायद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के महादलित समीकरण के साथ जुड़ गई थी। उसका असर उत्तर प्रदेश से लगे इलाकों में ज्यादा और सीमांचल तथा कोसी अंचल सहित बाकी इलाकों में थोड़ा कम दिखता है। इसी बिरादरी में भाकपा-माले का भी असर खासकर दक्षिण-पश्चिमी हिस्से यानी आरा, भोजपुर, रोहतास, सासाराम, जहांनाबाद जैसे जिलों में दिखता है। पिछले विधानसभा चुनावों में वाल्मीकिनगर से लगाकर इन जिलों में इस समुदाय के कुछ, सीएसडीएस के मतदान बाद सर्वेक्षण के मुताबिक तकरीबन 15 प्रतिशत, वोट बसपा को मिले थे। लेकिन इस बार स्थिति बदली हुई दिखती है। कांग्रेस या महागठबंधन का जोर उसे अपने पाले में लाने का है।
राहुल का आकर्षण
ऐसी दलित जातियों और कुछ अति पिछड़ों में राहुल गांधी ने अपने सामाजिक न्याय संबंधी एजेंडे से दिलचस्पी जगाई है। वे अरसे से राजेश राम को प्रदेश अध्यक्ष बनाने और संविधान बचाओ तथा सामाजिक न्याय सम्मेलनों के जरिए इस काम में जुटे रहे हैं। अगर इसका थोड़ा भी लाभ मिलता है, तो कांग्रेस के साथ महागठबंधन के वोटों में इजाफा हो सकता है। इसके अलावा राहुल पेपर लीक, बेरोजगारी से नाराज युवाओं में भी आकर्षण पैदा करने में कामयाब रहे हैं। फिर, कई जानकारों का मानना है कि अल्पसंख्यकों को उनमें उम्मीद दिखती है। इससे जो अल्पसंख्यक वोट राजद से छिटक कर ओवैसी या पसमांदा (पिछड़े) समीकरण के तहत नीतीश की ओर गए, शायद उनकी वापसी की उम्मीद भी महागठबंधन कर रहा है।
बिलाशक, राज्य में सब दूर प्रभावी मौजूदगी वाली पार्टी राजद ही है। लेकिन राजद के पक्ष में यादवों की दबंगई की वजह से ऊंची जातियां तो बिदकती ही हैं, अति पिछड़ी और दलित जातियां भी दूर होती चली गई हैं। लालू प्रसाद और तेजस्वी भी इस बात को भरपूर समझते हैं। इसलिए तेजस्वी भी अति पिछड़ी और दलित जातियों में पैठ बढ़ाने के लिए कई सम्मेलन वगैरह कर चुके हैं। लेकिन राहुल की कोशिश रंग ला रही है और उनकी आश्वस्ति से अगर इन जातियों के कुछ वोट महागठबंधन की ओर मुड़ते हैं, तो उसे काफी फायदा मिल सकता है।
खिसियाहटः प्रधानमंत्री की मां को गाली देने के आरोप में बिहार कांग्रेस दफ्तर सदाकत आश्रम के बाहर भाजपाइयों ने तोड़फोड़ की
यह समीकरण पिछले लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में दिखा भी था। वहां राहुल और समाजवादी पार्टी (सपा) अध्यक्ष अखिलेश यादव की केमिस्ट्री से एम-वाइ समीकरण से बिदकने वाली दूसरी पिछड़ी और दलित जातियों को वापस लाने में मदद मिली थी और नतीजे चमत्कारिक ढंग से बदल गए थे। भाजपा की सीटें आधी से नीचे पहुंच गईं थीं। अखिलेश ने भी ज्यादा टिकट अति पिछड़ी और दलित जातियों को देकर एक तरह से उन्हें भरोसा दिलाया था कि पिछली गलतियां नहीं होंगी। इसलिए यह शायद उसी रणनीति का हिस्सा था कि बिहार की यात्रा में आखिरी चरण में अखिलेश शामिल हुए।
शायद यही रणनीति इस बात में भी दिखती है कि तेजस्वी ने तो अपने भाषणों में राहुल को अगला प्रधानमंत्री बताया, लेकिन राहुल यह सवाल टाल गए कि महागठबंधन की ओर से तेजस्वी ही मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हैं। उन्होंने इतना ही कहा, ‘‘हमारे बीच पूरा तालमेल है, कहीं कोई परेशानी नहीं है।’’ यात्रा के दौरान महागठबंधन के समीकरण में राहुल का असर कई दूसरे मामलों में भी दिखा। जैसे, पूर्णिया, कोसी के इलाके में पप्पू यादव और तेजस्वी के बीच तल्खी मिटती दिखी, जिसकी वजह से पिछले लोकसभा चुनावों में उस इलाके की कुछ सीटें महागठबंधन के हाथ से निकल गई थीं। पप्पू यादव पूरी यात्रा में शामिल रहे और तेजस्वी की प्रशंसा करते देखे गए। इसी तरह दूसरा पेच तेजस्वी और कांग्रेस के कन्हैया कुमार को लेकर भी था। वह भी नरम पड़ता दिखा।
कांग्रेस का कष्ट
हालांकि इस सामंजस्य और सक्रियता का फायदा राज्य में कांग्रेस को अपनी जमीन वापस पाने में मिलेगा या कितना मिलेगा, यह अभी स्पीष्ट नहीं है। वजह यह है कि कांग्रेस का कार्यकर्ता आधार बहुत ज्यादा नहीं बचा है। उसे बढ़ाने की कोशिश जरूर हुई है, लेकिन वह खास दिखाई नहीं पड़ती है। वैसे, कांग्रेस के लोग उत्साहित जरूर हैं। यह 6 सितंबर को पटना में तेजस्वी की अगुआई में महागठबंधन की बैठक में भी दिखा। कहते हैं, उसमें कांग्रेस ने अपने लिए करीब 90 सीटों की मांग की, यानी पिछली बार की 70 सीटों से 20 ज्यादा। पिछली बार 70 सीटों में पार्टी 19 जीत पाई थी और लगभग उतनी ही सीटों पर दूसरे नंबर पर रही थी। उसके कमतर प्रदर्शन से तेजस्वी खेमे में नाराजगी भी उभरी थी कि अगर पार्टी ने थोड़ा भी अच्छा प्रदर्शन किया होता, तो शायद सरकार बन जाती। 2020 में सिर्फ 12,000 वोटों और 10-11 सीटों के अंतर से एनडीए को सत्ता मिल गई थी।
इस बार तेजस्वी की राहुल के साथ केमेस्ट्री अगर उसी तरह काम करती है, जैसे उत्तर प्रदेश में अखिलेश के साथ दिखी थी, तो फर्क दिखने की उम्मीद की जा सकती है। खास बात यह होगी कि टिकट बंटवारे में महागठबंधन अति पिछड़ी जातियों और दलितों को कितना भरोसा दिला पाता है। अगर यह किसी पैमाने पर होता है और कांग्रेस जमीनी स्तर पर काम बढ़ा पाती है, तो उसे भी फायदा मिल सकता है। कांग्रेस को शायद शहरी और ऊंची जातियों के एनडीए से नाराज लोगों को भी साथ लाने की दरकार हो सकती है, जो बेराजगारी और पेपर लीक वगैरह से परेशान हैं। उनमें राहुल ने दिलचस्पी तो जगाई है लेकिन फिलहाल पार्टी की खास पैठ नहीं दिखती है, जैसी उत्तर प्रदेश, खासकर उसके पूर्वी हिस्से में दिखी थी और उसका लाभ भी उसे मिला था। मसलन, इलाहाबाद की सीट कांग्रेस जीत गई और वाराणसी में अजय राय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जीत का अंतर काफी घटाने में कामयाब रहे थे।
एनडीए का गणित
खैर, बिहार में राहुल की यात्रा का शायद यह भी असर था कि 1 सितंबर को पटना में उमड़ी भारी भीड़ के मद्देनजर प्रशासन ने गांधी मैदान में सभा की इजाजत नहीं दी। इजाजत न मिलने पर वे मार्च करते हुए आंबेडकर चौक तक जाना चाहते थे। रैली को वहां भी पहुंचने नहीं दिया गया। शुरुआती योजना लोगों की भारी भीड़ के साथ इंडिया गठबंधन के नेताओं को जुटाकर राजनैतिक संदेश देने की थी। नीतीश राज में शायद पहली बार ऐसी राजनैतिक रोक-टोक दिखाई दी। यह भी गौर करें कि राहुल गांधी को सासाराम में यात्रा की शुरुआत करने की इजाजत भी काफी देर से दी गई। इतना ही नहीं रात के अंधेरे में मोटरसाइकिलों की हेडलाइट की रोशनी में हेलीपैड बनाना पड़ा।
नीतीश सरकार को यह सब कदम क्यों उठाना पड़ा, इसकी वजहें छुपी नहीं हैं लेकिन यह बिहार की राजनीति की संस्कृति नहीं रही है। विपक्ष का आरोप है कि कमान नीतीश के हाथ में नहीं है या उनकी सेहत ठीक नहीं है। सिर्फ जेपी आंदोलन के समय ऐसी रोक-टोक की असफल कोशिश कांग्रेसी सरकार ने की थी। इस बार वैसी स्थिति तो नहीं थी लेकिन राहुल गांधी और बड़े नेताओं की सुरक्षा का सवाल बार-बार उठता रहा। इसी बीच दरभंगा में किसी ने मंच से प्रधानमंत्री की मां को गाली दे दी। भाजपा इसे ही मुद्दा बनाना चाहती थी। उसने 5 सितंबर को राज्य में बंद का आह्वान किया था। इस दौरान कई जगह झड़प हुई, हल्की हिंसा भी हुई लेकिन बात ज्यादा नहीं बढ़ी। असल में कांग्रेस का संगठन अभी उस स्तर पर भाजपा से लोहा लेने लायक है भी नहीं।
साधने की कवायदः 8 सितंबर को पटना में महिलाओं के लिए पिंक बस सेवा की शुरुआत करते नीतीश कुमार
चुनाव सिर पर हैं, तो भाजपा और जदयू ने सक्रियता बढ़ा दी है। खुद प्रधानमंत्री के कई दौरे हो चुके हैं और बिहार सरकार चुनावी रियायतों का ऐलान करने लगी है। उसने महिलाओं को 10,000 रुपये का तोहफा इसी महीने जारी किया, बुजुर्ग पेंशन 450 रुपये से बढ़ाकर 1100 कर दी गई है। 100 यूनिट तक बिजली मुफ्त देने का ऐलान किया गया है, जिससे नीतीश पहले सहमत नहीं दिखते थे। नीतीश सरकार को ऐसी योजनाओं का लाभ मिल सकता है, खासकर महिलाओं का जिन्हें वित्तीय मदद मिल रही है। ऐसा लग रहा था कि नीतीश शांत हैं और जदयू में बिखराव हो सकता है, मगर इधर पार्टी अपने कील-कांटें दुरुस्त करती लग रही है और कयास हैं कि वह एनडीए में सबसे ज्यादा सीटों पर लड़कर अपनी सीटों की संख्या बढ़ाना चाहती है।
तीसरा कोण
रैलियां और तरह-तरह के आयोजनों के जरिए चिराग पासवान भी काफी सक्रिय हैं और उनकी कोशिश शायद एनडीए में कुछ ज्यादा सीटें हासिल करने की हैं। लेकिन असली तीसरा कोण चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी बनाने की कोशिश कर रही है। अब लग रहा है कि वह महागठबंधन और एनडीए दोनों के वोटों में सेंध लगा सकती है। खासकर शहरी युवाओं में उसका असर दिख रहा है, जो कुछ नया चाहते हैं।
विपक्ष की लामबंदी
यात्रा से कांग्रेसी कार्यकर्ताओं में उत्साह है लेकिन राजद और भाकपा-माले के लोग ज्यादा उत्साहित हैं। एनडीए से चुनावी मुकाबला तो मुख्य रूप से उन्हें ही लड़ना है। यह उत्साह चुनाव तक कायम रहता है या नहीं, यही मुख्य चुनौती है। हालांकि दो-तीन बातें साफ दिखती हैं। यात्रा से नया आलोड़न पैदा हुआ और बिहार नए तरह से राष्ट्रीय सुर्खियों में छाया है। कुछ जनमत सर्वेक्षणों में भी उसका असर दिखा। समूचा विपक्ष नए सिरे से एकजुट दिखने लगा है। वहां तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन यात्रा में शामिल हुए और आखिरी दिन तृणमूल कांग्रेस की ओर से यूसुफ पठान, शिवसेना उद्घव गुट के संजय राउत, राकांपा शरद पवार के नेता भी पहुंचे। कांग्रेसी राज्यों के मुख्यमंत्रियों के पहुंचते ही कांग्रेस और इंडिया ब्लॉक में आया नया जोश, उसके लिए फायदे का हो सकता है।
हालांकि, राहुल गांधी बिहार ने वोट यात्रा के जरिए ‘‘वोट चोरी’’ को राष्ट्रीय मुद्दा बनाने की भी कोशिश की है। वे सीधे चुनाव आयोग को निशाने पर ले रहे हैं। आयोग भी पिछली सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई के दौरान अपने तौर-तरीके में बदलाव लाने को बाध्य हुआ है। अब आपत्तियां और नए नाम जोड़ने की कवायद नामांकन के दिन तक जारी रहेगी और आयोग ने उनका निपटारा करने का अदालत से वादा किया है। हालांकि उसके बाद से आयोग ने रोजाना आंकड़े जारी करने की रवायत बंद कर दी है। देखना है कि 30 सितंबर को अंतिम वोटर लिस्ट जारी होने पर क्या माहौल बनता है। इस बीच कई लाख नए वोटरों के आवेदन आने की भी सूचनाएं हैं। आखिर में यह क्या शक्ल लेता है, उसी से चुनौती का भी अंदाजा लगेगा।
बहरहाल, चुनाव आयोग की इस प्रक्रिया में जो एक अहम वजह घुसपैठियों की बताई गई थी, वह मुद्दा बनता नहीं दिख रहा है। आयोग कोई ऐसा आंकड़ा सामने नहीं ला पाया है। अगर बांग्लादेशी, रोहिंगिया घुसपैठ जैसे मसले सामने नहीं आते हैं, तो भाजपा के लिए ध्रुवीकरण की कोशिश काम नहीं कर पाएगी। नाम काटने और नाम जोड़ने का मुद्दा अलग है। अब लगता है, भाजपा को ज्यादा बड़ा सहारा नीतीश कुमार के साथ होने का है इसलिए वह उनको ज्यादा मान और सीटें देने को राजी होती दिख रही है। आने वाले पखवाड़े में बहुत चीजें साफ हो सकती हैं। इसमें शायद बड़ी परीक्षा राहुल गांधी और कांग्रेस की होनी है। यानी बिहार राष्ट्रीय राजनीति के कई मसले साफ कर सकता है।