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ममता के आक्रामक खेल से पस्त हुई भाजपा, दीदी को ‘गोली’ और ‘बोली’ का भी मिला फायदा

दावा तो था 200 से अधिक सीटें जीतकर सरकार बनाने का, लेकिन पश्चिम बंगाल में भाजपा 100 का आंकड़ा भी पार न कर...
ममता के आक्रामक खेल से पस्त हुई भाजपा, दीदी को ‘गोली’ और ‘बोली’ का भी मिला फायदा

दावा तो था 200 से अधिक सीटें जीतकर सरकार बनाने का, लेकिन पश्चिम बंगाल में भाजपा 100 का आंकड़ा भी पार न कर सकी। इसके विपरीत ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस न सिर्फ तीसरी बार सत्ता में लौटी, बल्कि पिछली बार से ज्यादा सीटें लेकर आई। पार्टी ने 2016 में 211 सीटों पर जीत हासिल की थी, इस बार उसे 214 सीटें (शाम 9 बजे) मिलीं। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से ममता बनर्जी नंदीग्राम में शुभेंदु अधिकारी से हार गईं। हालांकि इससे पहले उनके जीतने की खबर आई थी और भाजपा के प्रदेश प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय और पार्टी प्रवक्ता जयप्रकाश मजूमदार ने उन्हें बधाई भी दे दी। नतीजे में इस बदलाव के खिलाफ तृणमूल कोर्ट जाएगी।

महीनेभर व्हीलचेयर पर चुनाव प्रचार करने वालीं ममता बनर्जी पार्टी की जीत के बाद बिना किसी सहारे के, पैदल चल कर अपने घर से बाहर आईं और सीढ़ी पर चढ़ कर सबका धन्यवाद किया। उनकी पार्टी ने सीटों के साथ वोट प्रतिशत का भी रिकॉर्ड बनाया। पार्टी ने 2016 में 44.9% वोट के साथ 211 सीटें जीती थीं। इस बार वोट 48% के आसपास पहुंच गया और सीटें भी पिछली बार से अधिक हो गई हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी को 43.3% वोट मिले थे। इसके विपरीत भाजपा 2019 के 40.3% से 38% पर सिमट गई। 2016 में उसे 10.25% वोट के साथ तीन सीटें मिली थीं।

ममता की छवि शुरू से जुझारू नेता की रही है। यह बात इस बार विधानसभा चुनाव में भी दिखी। उन्हें मालूम था कि उनका मुकाबला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के साथ-साथ पूरी भाजपा-आरएसएस मशीनरी से है। फिर भी उन्होंने रक्षात्मक रवैया अपनाने के बजाय आक्रामक तरीके से ‘खेला’ खेलने का फैसला किया। नंदीग्राम को शुभेंदु अधिकारी परिवार का गढ़ माना जाता है। इसके बावजूद उन्होंने ऐलान कर दिया कि वे नंदीग्राम से ही चुनाव लड़ेंगी, और कहीं से नहीं। उनके इस निर्णय से पार्टी के उन नेताओं और कार्यकर्ताओं में नए जोश का संचार हुआ जो कुछ विधायकों के भाजपा में जाने से हतोत्साहित थे।

इसका असर नतीजों पर साफ दिखता है। नंदीग्राम पूर्व मिदनापुर जिले में आता है। पूर्व मिदनापुर में 16 और पश्चिम मिदनापुर में 15 विधानसभा सीटें हैं। इनमें से 23 पर तृणमूल को जीत मिली। झाड़ग्राम में भाजपा मजबूत होने का दावा कर रही थी, जबकि जिले की सभी चार सीटें तृणमूल की झोली में गईं। 2019 से तुलना करें तो हुगली, नदिया, उत्तर और दक्षिण दिनाजपुर पूर्व और पश्चिम बर्दवान जैसे कई जिलों में भाजपा से अनेक सीटें झटकने में तृणमूल कामयाब रही।

जीत के बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस में ममता ने कहा, “साल 2021 में मैंने 221 का लक्ष्य रखा था,” हालांकि उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि इतनी सीटें मिलने की उम्मीद उन्हें नहीं थी। आखिर ऐसा क्या हुआ कि मोदी और अमित शाह जैसे रणनीतिकार को भी ममता ने 80 से कम सीटों पर रोक दिया। वह भी तब, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वहां 15, गृहमंत्री अमित शाह ने 62 और पार्टी के अन्य बड़े नेताओं ने 117 सभाएं की थीं। नतीजे आने से पहले वरिष्ठ पत्रकार अनवर हुसैन ने आउटलुक के साथ बातचीत में कहा था, “पश्चिम बंगाल में लोगों के सोचने का तरीका अलग है। उन्होंने भाजपा को अभी पूरी तरह स्वीकार नहीं किया है। इसलिए अभी वह नहीं जीतने वाली, हां उसकी सीटें जरूर 100 के आसपास हो सकती हैं।”

यह तर्क सही लगता है। भाजपा ने कई स्टार प्रचारकों को मैदान में उतारा था। उन्हीं में से एक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने वहां एंटी रोमियो स्क्वॉड बनाने और लव जिहाद रोकने के लिए कानून बनाने की बात कही थी। ऐसी घोषणाओं से पार्टी के नेताओं ने खुद को ‘बहिरागत’ ही साबित किया, जिसकी चर्चा ममता बार-बार अपनी सभाओं में करती थीं। जहां कॉलेजों में प्रेम संबंध बनना और प्रेम विवाह आम हो, वहां लव जिहाद जैसी बातों को लोग कैसे स्वीकार कर सकते हैं। सिर्फ दूसरे प्रदेश से आए नेता नहीं, स्थानीय भाजपा नेता भी ऐसी बयानबाजियों में पीछे नहीं थे। बंगाली स्वयं को बुद्धिजीवी मानते हैं और प्रदेश पार्टी अध्यक्ष दिलीप घोष ने बुद्धिजीवियों को ही चेतावनी दे डाली थी। शायद इसी का नतीजा है कि कोलकाता की 11 सीटों में से पार्टी को एक भी नहीं मिली।

तृणमूल सरकार के खिलाफ एंटी-इंकंबेंसी तो थी। शायद इसी को भांप कर पार्टी ने कुछ ऐसे निर्णय लिए जिसका फायदा संभवतः उसे मिला। चुनाव से कई महीने पहले प्रदेश में स्वास्थ्य साथी कार्ड और दुआरे सरकार जैसी योजनाएं लागू की गई थीं। करीब ढाई महीने में ही दुआरे सरकार से ढाई करोड़ लोगों की शिकायतें दूर की गईं। 85 लाख स्वास्थ्य साथी कार्ड जारी किए गए, जिसमें हर परिवार को पांच लाख रुपये का स्वास्थ्य बीमा किया जाता है। पिछले साल कोविड के कारण लॉकडाउन हुआ तो केंद्र सरकार ने मुफ्त अनाज वितरण की घोषणा की थी। ममता ने उसके साथ अपनी तरफ से भी मुफ्त अनाज वितरण शुरू किया, जो केंद्र की योजना बंद होने के बाद भी जारी रहा। जाहिर है, जिन लाखों परिवारों को इन योजनाओं का लाभ मिला उनमें बहुतायत ने तृणमूल का साथ देना उचित समझा।

ममता की जीत में संयुक्त मोर्चा का भी योगदान कहा जा सकता है। लेफ्ट, कांग्रेस और आइएसएफ के इस मोर्चा ने चुनाव प्रचार के दौरान लोगों से भाजपा को वोट न देने की अपील की थी। लोगों ने उनकी इस बात को तो माना, लेकिन उन्होंने मोर्चा को भी वोट नहीं दिया। उनका सारा वोट तृणमूल की झोली में गया। लेफ्ट का वोट प्रतिशत 2016 के 26.1% की तुलना में घटकर 4.8% पर आ गया, तो कांग्रेस 12.3% से 3% पर सिमट गई। मोर्चा एक भी सीट जीतने में नाकाम रहा, जबकि पांच साल पहले कांग्रेस को 44 और लेफ्ट को 32 सीटें मिली थीं।

भाजपा की अंदरुनी लड़ाई का भी तृणमूल को फायदा मिला। दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी को जब प्रदेश में चुनाव जीतने लायक उम्मीदवार नहीं मिल रहे थे तो उसने तृणमूल के विधायकों को तोड़ा। उसने अपने ही उन नेताओं को टिकट नहीं दिया जो वर्षों से पार्टी के लिए मेहनत कर रहे थे। नतीजा यह हुआ कि पुराने नेताओं ने एक बार फिर मेहनत की, लेकिन आयात किए गए नए नेताओं को हराने में। पार्टी के भीतर कई धड़े काम कर रहे थे। एक तरफ दिलीप घोष थे तो दूसरी तरफ मुकुल रॉय। शुभेंदु अधिकारी भी अपनी दखल बढ़ाना चाहते थे। धड़ों की लड़ाई का ही नतीजा था कि मुकुल रॉय को दो दशक बाद एक बार फिर चुनाव में उतरना पड़ा और वे अपने इलाके तक सीमित होकर रह गए। विशेषज्ञों के अनुसार शीतलकुची में केंद्रीय सुरक्षाबलों की फायरिंग का भी तृणमूल को फायदा मिला।

प्रदेश में अब सिर्फ दो पार्टियां रह गई हैं, तृणमूल और भाजपा। भाजपा भले सरकार न बना पाई हो, लेकिन मजबूत विपक्ष के रूप में मौजूदगी जरूर दर्ज कराई है। इसलिए आने वाले दिनों में दोनों दलों के बीच निरंतर संघर्ष देखने को मिल सकता है। दूसरी ओर, अकेले दम पर मोदी-शाह मशीनरी को हराने से निश्चित रूप से ममता का कद बढ़ा है। अब देखना है कि वे खुद को प्रदेश तक सीमित रखती हैं या राष्ट्रीय राजनीति की दिशा में कदम बढ़ाती हैं।

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