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इन कैरेक्टर और शब्दों से नेताओं को है ज्यादा प्यार, बढ़ जाता है जीत का भरोसा

लोकसभा चुनाव के दो चरण बाकी हैं। हमेशा की तरह जैसे-जैसे चुनाव समाप्ति की तरफ बढ़ रहा है, नेता तरह-तरह के...
इन कैरेक्टर और शब्दों से नेताओं को है ज्यादा प्यार, बढ़ जाता है जीत का भरोसा

लोकसभा चुनाव के दो चरण बाकी हैं। हमेशा की तरह जैसे-जैसे चुनाव समाप्ति की तरफ बढ़ रहा है, नेता तरह-तरह के संबोधन देकर एक दूसरे पर निशाना साध रहे हैं। कोई किसी को दुर्योधन कह रहा है, कोई स्पीडब्रेकर दीदी। इनमें भाषायी मर्यादाएं भी कई बार तार-तार होती हैं और व्यक्तिगत हमले शुरू हो जाते हैं। इसमें हर दल के नेता शामिल हैं लेकिन कई बार वे खुद को विक्टिम की तरह पेश करते हैं।

पिछले दिनों कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने पीएम मोदी का नाम लिए बगैर अप्रत्यक्ष तौर पर उनकी तुलना दुर्योधन से की। उन्होंने कहा, ‘देश ने अहंकार को कभी माफ नहीं किया। ऐसा अहंकार दुर्योधन में भी था। जब भगवान कृष्ण उन्हें समझाने गए तो उनको भी दुर्योधन ने बंधक बनाने की कोशिश की। दिनकर जी की पंक्तियां हैं, ‘जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है।‘ कांग्रेस नेता संजय निरूपम ने मोदी को औरंगजेब बता डाला। राबड़ी देवी ने मोदी को जल्लाद तक कह दिया।

मोदी ने गिनाईं खुद को दी जाने वालीं गालियां

इसे लेकर पीएम मोदी ने हरियाणा के कुरुक्षेत्र में कहा कि मुझे स्टूपिड पीएम कहा गया। जवानों के खून का दलाल तक कहा गया। हिटलर, रावण, सांप-बिच्छू, असत्य का सौदागर, रैबीज से पीड़ित बंदर तक कहा गया।

पिछले लोकसभा चुनाव में प्रियंका गांधी ने मोदी के लिए कहा था कि वह ‘नीच किस्म की राजनीति’ करते हैं, जिसे मोदी ने अपनी जाति से जोड़कर फायदा उठा लिया था। ऐसे ही मणिशंकर अय्यर का ‘नीच आदमी’ वाला बयान खासा चर्चा में रहा था। सवाल है नेता इस तरह के संबोधन और प्रतीकों का इस्तेमाल क्यों करते हैं?

विशेषणों से नेता की बनाई जाती है छवि

राजनीति में ऐसे संबोधन नए नहीं हैं और ये हर तरफ हैं। इन संबोधनों में ऐतिहासिक और मिथकीय कैरेक्टर खूब आते हैं। जैसे- हिटलर, मुसोलिनी, गद्दाफी, औरंगजेब, रावण, कंस, दुर्योधन वगैरह। इसके माध्यम से जनता के मन में किसी नेता को लेकर खास छवि बनाने की कोशिश की जाती है, जिससे जीत की संभावना मजबूत हो सके। इसमें खल चरित्र मददगार होते हैं क्योंकि उन्हें लेकर जनता में हिकारत और नकारात्मकता का भाव होता है। इसके अलावा कुछ ऐसे पंचिंग विशेषण दिए जाते हैं, जिससे उस शब्द का जिक्र आने पर लोगों के मन में उसी नेता की छवि उभरे। जैसे- एक दौर में सपा नेता मुलायम सिंह यादव के विरोधी उन्हें ‘मुल्ला मुलायम’ कहते थे। इंदिरा गांधी को ‘गूंगी गुड़िया’ कहा गया था। ऐसे ही पीएम मोदी आजकल पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को स्पीडब्रेकर दीदी कह रहे हैं। मायावती-अखिलेश को वह बुआ-बबुआ कहते हैं। वह राहुल गांधी को शहजादे, नामदार कहकर संबोधित करते हैं।

चौतरफा है यह मामला

जहां पीएम मोदी के लिए चौकीदार चौर है, मौत का सौदागर, हिटलर, दंगा बाबू जैसे शब्द प्रयोग किए गए हैं वहीं मोदी ने भी कांग्रेस की विधवा, पचास करोड़ की गर्लफ्रेंड, गाड़ी के नीचे कुत्ते का पिल्ला जैसी बातें कही हैं। उन्होंने सदन में कांग्रेस नेता रेणुका चौधरी की हंसी पर भी आपत्तिजनक कटाक्ष किया था। यह तो पार्टियों के शीर्ष नेतृत्व के नेताओं की बात है। छुटभैये नेताओं द्वारा लगभग रोजाना दिए जाने वाले विशेषणों, संबोधनों का जिक्र किया जाए तो कई लेख कम पड़ेंगे। 

इस तरह के संबोधन राजनीति में आम होते चले जा रहे हैं। हो सकता है आगामी दो चरणों में और भी कई रूप देखने को मिलें लेकिन भाषा के स्तर पर राजनेता जिन संबोधनों और प्रतीकों का प्रयोग करते हैं, उनसे विमर्श और तार्किक बहस का माहौल तैयार नहीं होता बल्कि मामला गाली-गलौज, आरोप-प्रत्यारोप तक सीमित रह जाता है।

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