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कांग्रेस के लिए कैसे उल्टा पड़ा लिंगायतों को अल्पसंख्यक दर्जा दिलाने का दांव

कर्नाटक में सरकार बनाने के लिए नूराकुश्ती चल रही है। त्रिशंकु विधानसभा के बाद कांग्रेस-जेडीएस ने...
कांग्रेस के लिए कैसे उल्टा पड़ा लिंगायतों को अल्पसंख्यक दर्जा दिलाने का दांव

कर्नाटक में सरकार बनाने के लिए नूराकुश्ती चल रही है। त्रिशंकु विधानसभा के बाद कांग्रेस-जेडीएस ने मिलकर सरकार बनाने का दावा राज्यपाल के सामने पेश कर दिया है। वहीं, भाजपा के सीएम उम्मीदवार बीएस येदियुरप्पा ने भी राज्यपाल से मुलाकात की है।

चुनाव परिणाम आने के बाद कांग्रेस ने जेडीएस को बिना शर्त समर्थन देने की बात कही थी। कभी 122 सीटों पर काबिज रही कांग्रेस इन चुनावों में 78 सीटों पर सिमट गई और उसे जेडीएस का सहारा लेना पड़ रहा है। कांग्रेस के इस खराब प्रदर्शन के कई कारण माने जा रहे हैं। लोग राहुल गांधी के नेतृत्व पर भी सवाल उठा रहे हैं। सिद्दारमैया का खुद एक सीट हार जाना इस बात का गवाह है कि लोग उनसे संतुष्ट नहीं थे। दूसरी सीट भी वह किसी तरह बचा पाए।

कांग्रेस के लिए लिंगायत कार्ड का उल्टा पड़ जाना एक अहम कारण माना जा रहा है। चुनाव से पहले लिंगायत समुदाय को अल्पसंख्यक का दर्जा दिए जाने का प्रस्ताव निवर्तमान मुख्यमंत्री सिद्दारमैया पर भारी पड़ गया। कांग्रेस को उम्मीद थी कि इससे भाजपा के परंपरागत वोटर रहे लिंगायतों के वोट में कांग्रेस सेंधमारी कर लेगी लेकिन ऐसा हुआ नहीं। लिंगायत बाहुल्य क्षेत्रों में कांग्रेस का वोट प्रतिशत जरूर बढ़ा लेकिन सीटें कम मिलीं। मुंबई-कर्नाटक क्षेत्र में लिंगायतों का प्रभुत्व है। यहां की 50 सीटों में भाजपा को 30 सीटें मिलीं, जो पिछले चुनाव से 17 ज्यादा हैं। वहीं, यहां कांग्रेस को 14 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा और उसे 17 सीटें मिलीं।

भाजपा के साथ प्लस पॉइंट हमेशा से यह रहा कि उन्होंने लिंगायतों के नेता येदियुरप्पा को सीएम उम्मीदवार बनाया। राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो लिंगायतों में कांग्रेस के सेंध न लगा पाने की बड़ी वजह यह रही कि आम लिंगायत लोगों को लगता था कि इससे उन्हें सीधे तौर पर कोई फायदा नहीं होगा। कर्नाटक की राजनीति के जानकारों के मुताबिक, अल्पसंख्यक दर्जा दिए जाने का फायदा सीधे तौर पर लिंगायत समुदाय से जुड़े ट्रस्टों को होता। इससे उन्हें अपने संस्थानों के संचालन में काफी हद तक स्वायत्ता मिल सकती थी, लेकिन आम लोग इसे बड़े फायदे के तौर पर नहीं देख रहे थे।

लिंगायतों को बड़ा फायदा अपने समुदाय के सीएम कैंडिडेट येदियुरप्पा को जिताने में दिखा। इसके अलावा कांग्रेस के इस कार्ड से लिंगायत तो साथ आए नहीं, इसके उलट अन्य हिंदू समुदायों ने इसे बंटवारे की राजनीति के तौर पर देखा। बीजेपी चुनाव प्रचार में इसी बात को उछाल रही थी कि यह हिंदू समाज को बांटने की साजिश है। माना जा रहा है कि बीजेपी के इस प्रचार का लोगों में असर हुआ और उसे बड़े पैमाने पर समर्थन हासिल हुआ।

धारवाड़ की कर्नाटक यूनिवर्सिटी में पॉलिटिकल साइंस पढ़ाने वाले प्रोफेसर हरीश रामस्वामी कहते हैं कि पहली बात तो प्रभावी जातियों ने कर्नाटक की राजनीति को प्रभावित किया है। लिंगायत भाजपा के साथ बने रहे और वोक्कालिगा जेडीएस के देवेगौड़ा के साथ गए। एक्सपर्ट्स का मानना है कि येदियुरप्पा फैक्टर ने कांग्रेस का सबसे ज्यादा नुकसान किया है।

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