Advertisement

किसान आंदोलन: कामयाबी से सियासी सरूर, पंजाब चुनाव में दखल की तैयारी

“आंदोलन की सफलता से चुनावों में सियासी पहल पर बंटे किसान संगठन लेकिन पंजाब चुनाव में दखल की...
किसान आंदोलन: कामयाबी से सियासी सरूर, पंजाब चुनाव में दखल की तैयारी

“आंदोलन की सफलता से चुनावों में सियासी पहल पर बंटे किसान संगठन लेकिन पंजाब चुनाव में दखल की तैयारी”

आजाद भारत में 380 दिनों से ज्यादा चले सबसे लंबे किसान आंदोलन का ऐतिहासक महत्व सिर्फ उसका अनोखा अहिंसक चरित्र नहीं, बल्कि उसकी कामयाबी भी है। बेशक, 26 नवंबर 2020 को दिल्ली की सीमाओं पर आ डटे किसानों को सड़क पर बर्फीली ठंड, तपती गर्मी और धारासार बारिश के कोप झेलने पड़े, 700 से ज्यादा लोगों को जान गंवानी पड़ी, हर तरह की आलोचनाएं, पुलिसिया उत्पीड़न और दूसरे तरह के अत्याचार झेलने पड़े। गजब का पहलू यह भी है कि आंदोलन के खिलाफ जितनी कोशिशें हुईं और जब-जब लगा कि आंदोलन की धार कमजोर होने लगी, उसमें नया जोशोखरोश भरता गया और उसका दायरा लगातार बढ़ता रहा।

यही नहीं, आंदोलन ने अपने में किसानों की मांगों से इतर महंगाई, सरकारी उपक्रमों के निजीकरण, श्रम कानून, सरकारी नीतियों और सियासत के रंग-ढंग जैसे तमाम मुद्दे समेट लिए। ऐसा लगने लगा कि एक मुकम्मल वैकल्पिक विपक्ष उभर आया है। शायद यही वजह है कि पांच बेहद अहम राज्यों- उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर के चुनावों के लगभग ऐन पहले 19 नवंबर को प्रधानमंत्री ने आंदोलन के मूल मुद्दे, तीन केंद्रीय कृषि कानूनों को वापस लेने का ऐलान किया और माफी मांगी। 

आखिर 30 नवंबर को विवादास्पद कानूनों को रद्द करने के विधेयक संसद से पारित हुए और 9 दिसंबर को आंदोलन के अन्य मुद्दों पर सरकार से लिखित गारंटी मिली तो 11 दिसंबर को दिल्ली की सीमा पर सिंघु, टिकरी और गाजीपुर बॉर्डरों से किसानों की घर वापसी शुरू हुई। अन्य मुद्दे हैं न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की कानूनी गारंटी पर समिति का गठन, आंदोलन के दौरान किसानों पर हुए मुकदमों की वापसी, मारे गए लोगों के परिजनों को वित्तीय तथा दूसरी मदद। इसके अलावा प्रस्तावित बिजली विधेयक और पराली जलाने संबंधी नियमों से किसानों को छूट पर भी वादे किए गए हैं। 3 अक्टूबर को लखीमपुर खीरी में कथित तौर पर जीप से कुचलकर मार डालने के मामले में केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय मिश्र टेनी के इस्तीफे की मांग मुल्तवी कर दी गई, जिसमें चार किसानों और एक पत्रकार समेत 8 लोगों की मौत हो गई थी।

बलबीर सिंह राजेवाल

बलबीर सिंह राजेवाल 

यकीनन संयुक्त किसान मोर्चे की फेहरिस्त तो लंबी है मगर सबसे वरिष्ठ तथा भारतीय किसान यूनियन (राजेवाल) के नेता बलबीर सिंह राजेवाल ने कहा, ‘‘फौज को थोड़ा आराम देना होता है इसलिए 15 जनवरी को फिर दिल्ली में बैठक होगी और आगे का कार्यक्रम तय होगा।’’ आंदोलन का चेहरा बने राकेश टिकैत ने भी कहा, ‘‘आंदोलन खत्म नहीं हुआ, स्थगित किया गया है।’’ जाहिर है, इसमें सियासी एजेंडे भी हो सकते हैं, जिसे ‘वोट की चोट’ कहा गया था। लेकिन सियासी एजेंडे पर खासकर हरियाणा और पंजाब के किसान संगठन बंटे हुए हैं। उनकी नजर 2022 के विधानसभा चुनावों पर है। पंजाब के 32 किसान संगठनों में 7 चुनाव के लिए राजनीतिक पार्टी के गठन के विरोध में हैं तो 25 संगठन किसी पार्टी को समर्थन देने के बजाय अपनी पार्टी के गठन के पक्ष में हैं। 

भारतीय किसान यूनियन की हरियाणा इकाई के अध्यक्ष गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने संयुक्त संघर्ष पार्टी (एसएसपी) का गठन किया है और वे पंजाब की सभी 117 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुके हैं। संयुक्त किसान मोर्चे से जुड़े पंजाब के 25 किसान संगठनों की 16 दिसंबर को किसान नेता बलबीर सिंह राजेवाल की अध्यक्षता में लुधियाना के समराला में बैठक हुई, जिसमें फैसला किया गया कि किसान संगठन आगामी चुनाव में अपने सियासी मोर्चे को मैदान में उतार सकते हैं। हालांकि आम आदमी पार्टी की ओर से बतौर मुख्यमंत्री राजेवाल का नाम उछाला गया था पर राजेवाल ने इससे साफ इनकार किया है।

हरियाणा के कुरुक्षेत्र से दो बार निर्दलीय चुनाव लड़ चुके चढ़ूनी ने आउटलुक से कहा, ‘‘संयुक्त संघर्ष पार्टी की कोशिश पंजाब में सभी 117 सीटों पर लड़ने की है। मैं खुद चुनाव नहीं लड़ूंगा पर समान विचारधारा वाले लोग उम्मीदवार होंगे। हमारा उद्देश्य राजनीति को शुद्ध करना और अच्छे लोगों को आगे लाना है।’’ 

हालांकि भारतीय किसान यूनियन (बीकेयू) एकता-उगरहां, बीकेयू डकोंदा, बीकेयू सिद्धूपुर, बीकेयू क्रांतिकारी, क्रांतिकारी किसान संघ, कीर्ति किसान मंच समेत कई यूनियनों ने पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि उन्हें चुनाव लड़ने में कोई दिलचस्पी नहीं हैं। बीकेयू एकता-उगरहां के महासचिव सुखदेव सिंह कोकरीकलां का कहना है, ‘‘एमएसपी को कानूनी गारंटी और कर्ज माफी जैसे अहम मुद्दों पर केंद्र सरकार से अगले दौर की बैठक होनी है लेकिन किसान संगठन राजनीतिक पार्टियों के प्रतिद्वंद्वी हो गए तो किसानों की समस्याओं को गंभीरता से कौन हल करेगा।’’

लेकिन बलबीर सिंह राजेवाल ने आउटलुक से कहा, ‘‘संयुक्त किसान मोर्चे से जुड़ी पंजाब की 25 किसान जत्थेबंदियों की बैठक में यह मत सामने आया है कि विधानसभा चुनाव में किसी राजनीतिक दल को समर्थन देने से बचना चाहिए। इसके बदले किसान यूनियनों को पार्टी बनाकर मैदान में उतरना चाहिए।’’

गुरनाम सिंह चढूनी

गुरनाम सिंह चढूनी

उधर, पंजाब के मालवा इलाके के सबसे बड़े संगठन बीकेयू उगरहां ने चुनावी राजनीति से दूर रहने का सैद्धांतिक रुख अपनाया है। उसके अध्यक्ष जोगिंदर सिंह उगरहां ने कहा, ‘‘संयुक्त किसान मोर्चा का एक बड़ा चेहरा आम आदमी पार्टी के पहले से ही संपर्क में था। मुझे पता चला है कि कुछ किसान नेता मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं। वे चुनाव लड़ सकते हैं। लेकिन हम उनका समर्थन नहीं करने वाले हैं।’’

पंजाब के करीब 15 किसान संगठन वामपंथी पृष्ठभूमि से हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि विधानसभा चुनाव के लिए वामपंथी पृष्ठभूमि वाले किसान संगठन गैर-वाम पृष्ठभूमि वाले संगठनों के साथ कैसे हाथ मिलाते हैं। क्या वामपंथी किसान संगठन बलबीर सिंह राजेवाल जैसे गैर-वाम नेताओं के साथ चुनावी रणनीति बनाने में सहज होंगे? किसान नेता कुलवंत सिंह संधू ने कहा, ‘‘बलबीर सिंह राजेवाल और अन्य सभी ने इस आंदोलन में पूंजीवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ी है। उनके साथ आने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए।’’ लेकिन बीकेयू सिद्धपुर के जगजीत सिंह दल्लेवाल ने कहा, ‘‘मैंने पहले कभी किसी राजनीतिक दल का समर्थन नहीं किया और भविष्य में कभी नहीं करूंगा।’’ दल्लेवाल की प्रतिक्रिया पर राजेवाल ने उन पर आरएसएस के भारतीय किसान संघ से जुड़े होने का आरोप लगाया है।

आंदोलन के बाद किसानों की सियासी सक्रियता पर नजर रखने वाले पंजाबी विश्वविद्यालय के कृषि अर्थशास्त्र विभाग के पूर्व प्रमुख तथा डीन डॉ. आर. एस. घुम्मन का कहना है, ‘‘15 महीने के आंदोलन में संगठनात्मक और आर्थिक रूप से मजबूत हुए किसान संगठन भले ही सियासी पारी खेलने को तैयार हैं, पर ऐसे कई किसान नेता भी हैं जो शिरोमणि अकाली दल और कांग्रेस के साथ रहे हैं।’’

किसानों के सियासी संगठनों के 2022 के विधानसभा चुनाव लड़े जाने की पहल पर सत्तारूढ़ कांग्रेस असहज हो सकती है। भाजपा नेता सुरजीत ज्याणी का कहना है, ‘‘कृषि कानून रद्द होने से कांग्रेस के पास किसानों के समर्थन में खड़े होने का मुद्दा खत्म हो गया है।’’ जो भी हो, अभी बहुत-से पत्ते खुलने बाकी हैं और राजनीति नई करवट भी ले सकती है।

आंदोलन का सफर

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement