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बंगाल चुनाव: मोदी-शाह को जिन पर था सबसे ज्यादा भरोसा, उन्होंने ही उम्मीदों पर फेरा पानी

पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ टीएमसी ने विधानसभा चुनाव में शानदार जीत दर्ज करते हुए भाजपा की उम्मीदों को...
बंगाल चुनाव: मोदी-शाह को जिन पर था सबसे ज्यादा भरोसा, उन्होंने ही उम्मीदों पर फेरा पानी

पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ टीएमसी ने विधानसभा चुनाव में शानदार जीत दर्ज करते हुए भाजपा की उम्मीदों को धराशाई की है। माना जा रहा है कि बीजेपी ने जिस क्षेत्र, समुदाय और नेताओं को लुभाने के लिए सबसे ज्यादा ताकत झोंकी वहां उन्हें अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई। मसलन चुनाव अभियान के दौरान मतुआ, राजवंशी आदि समुदाय को रिझाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर गृहमंत्री अमित शाह तक ने अपनी एड़ी-चोटी एक की थी। वहीं पार्टी ने बाहर से आए नेताओं पर भी बहुत विश्वास किया था। मगर नतीजों में उन्हें निराशा ही हाथ लगी।


पूर्व मिदनापुर के इलाके में भी भाजपा को बड़ी उम्मीदें थी। पूर्व मिदनापुर में 16 और पश्चिम मिदनापुर में 15 विधानसभा सीटें हैं। इनमें से 23 पर तृणमूल को जीत मिली। झाड़ग्राम में भाजपा मजबूत होने का दावा कर रही थी, जबकि जिले की सभी चार सीटें तृणमूल की झोली में गईं। 2019 से तुलना करें तो हुगली, नदिया, उत्तर और दक्षिण दिनाजपुर पूर्व और पश्चिम बर्दवान जैसे कई जिलों में भाजपा से अनेक सीटें झटकने में तृणमूल कामयाब रही।

आखिर ऐसा क्या हुआ कि मोदी और अमित शाह जैसे रणनीतिकार को भी ममता ने 80 से कम सीटों पर रोक दिया। वह भी तब, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वहां 15, गृहमंत्री अमित शाह ने 62 और पार्टी के अन्य बड़े नेताओं ने 117 सभाएं की थीं। नतीजे आने से पहले वरिष्ठ पत्रकार अनवर हुसैन ने आउटलुक के साथ बातचीत में कहा था, “पश्चिम बंगाल में लोगों के सोचने का तरीका अलग है। उन्होंने भाजपा को अभी पूरी तरह स्वीकार नहीं किया है। इसलिए उसकी सीटें जरूर 80 के आसपास अटक गईं।”

भाजपा की अंदरुनी लड़ाई का भी तृणमूल को फायदा मिला। दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी को जब प्रदेश में चुनाव जीतने लायक उम्मीदवार नहीं मिल रहे थे तो उसने तृणमूल के विधायकों को तोड़ा। उसने अपने ही उन नेताओं को टिकट नहीं दिया जो वर्षों से पार्टी के लिए मेहनत कर रहे थे। नतीजा यह हुआ कि पुराने नेताओं ने एक बार फिर मेहनत की, लेकिन आयात किए गए नए नेताओं को हराने में। पार्टी के भीतर कई धड़े काम कर रहे थे। एक तरफ दिलीप घोष थे तो दूसरी तरफ मुकुल रॉय। शुभेंदु अधिकारी भी अपनी दखल बढ़ाना चाहते थे। धड़ों की लड़ाई का ही नतीजा था कि मुकुल रॉय को दो दशक बाद एक बार फिर चुनाव में उतरना पड़ा और वे अपने इलाके तक सीमित होकर रह गए।

बहरहाल, प्रदेश में अब सिर्फ दो पार्टियां रह गई हैं, तृणमूल और भाजपा। भाजपा भले सरकार न बना पाई हो, लेकिन मजबूत विपक्ष के रूप में मौजूदगी जरूर दर्ज कराई है। इसलिए आने वाले दिनों में दोनों दलों के बीच निरंतर संघर्ष देखने को मिल सकता है। दूसरी ओर, अकेले दम पर मोदी-शाह मशीनरी को हराने से निश्चित रूप से ममता का कद बढ़ा है। 

 

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