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बेजोड़ रणनीति की कामयाबी, ऐसे मिली भाजपा को जीत

“भाजपा को अब भी शहरी और ब्राह्मण-बनिया पार्टी समझने की भूल का खामियाजा विपक्ष ने उठाया” करीब साढ़े...
बेजोड़ रणनीति की कामयाबी, ऐसे मिली भाजपा को जीत

“भाजपा को अब भी शहरी और ब्राह्मण-बनिया पार्टी समझने की भूल का खामियाजा विपक्ष ने उठाया”

करीब साढ़े तीन दशक पहले 1984 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के दिग्गज नेता स्व. अटल बिहारी वाजपेयी ने मानो भविष्यवाणी की थी कि एक न एक दिन उनकी पार्टी अपने दम पर बहुमत हासिल करेगी और केंद्र तथा अधिकांश राज्यों की सत्ता में पहुंचेगी। तब कांग्रेस तो छोड़िए, वामपंथी या मध्यमार्गी दलों में शायद ही किसी ने इसे गंभीरता से लिया होगा। उस समय इस कट्टर राष्ट्रवादी हिंदू केंद्रित राजनैतिक संगठन को भारतीय राजनैतिक परिदृश्य में पराया और हंसी-ठट्ठा का विषय ही माना जाता था।  लेकिन भाजपा और उसके नेताओं ने उस वक्त भी हिम्मत नहीं हारी। 1984 में उसके सिर्फ दो नेता डॉ. ए.के. पटेल (गुजरात में मेहसाणा से) और चंदूपाटला जंगा रेड्डी (तत्कालीन संयुक्त आंध्र प्रदेश के हनुमाकोंडा से) ही संसद पहुंच पाए थे।

हालांकि बतौर दक्षिणपंथी राजनैतिक संगठन भाजपा के सफर में कई उतार-चढ़ाव हैं। भाजपा की स्थापना 8 अप्रैल 1980 को हुई। भाजपा के पहले के अवतार यानी भारतीय जनसंघ 1977 में इमरजेंसी के बाद जनता पार्टी में शामिल हो गया। लेकिन तीन साल बाद उसे भाजपा के रूप में नया रंग-ढंग, पार्टी चिह्न और पहचान मिली। जनता पार्टी के प्रयोग ने जनसंघ के नेताओं को गैर-कांग्रेस की अहम पार्टी के रूप में पहचान दिलाई। लेकिन भाजपा को ‘अलग’ दक्षिणपंथी राजनैतिक संगठन के रूप में चलाना आसान नहीं था। ऐसा लगता है कि लचीले वाजपेयी के नेतृत्व में पहले 13 दिनों, फिर 13 महीने और आखिरकार पांच साल की एनडीए सरकार के बाद गंगा नदी में काफी पानी बह चुका है।

अब भाजपा ‘चुनाव जीतने’ वाली पार्टी बन गई है, हालांकि और सांप्रदायिक, नफरत फैलाने वाले तत्वों के रूप में प्रचारित होने के बाद भाजपा के कार्यकर्ताओं को अपमानित भी होना पड़ा। लेकिन पार्टी ने पूरे देश में अपनी मौजूदगी दर्ज कराई।

यहां तक कि हालिया लोकसभा चुनावों में भाजपा को 303 सीटें मिलने के बाद भी उसे अल्पसंख्यक विरोधी, दलित-विरोधी, अनुसूचित-जाति और जनजाति विरोधी पार्टी के रूप में प्रचारित किया गया, जो व्यापारियों की पार्टी है।

भाजपा के धुर विरोधियों द्वारा फैलाए गए अर्ध-सत्य के विपरीत, दक्षिणपंथी पार्टी ने आज विराट कद हासिल कर लिया है और वह ‘सबसे समावेशी’ दलों में से एक के रूप में उभरी। अगर ऐसा नहीं है, तो अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षित कुल 131 सीटों में से 77 सीटें भाजपा को कैसे मिलीं? साथ ही, यह 17 राज्यों में सत्ता की बागडोर संभाले हुए है और पूर्वोत्तर राज्यों के अलावा पश्चिम बंगाल और ओडिशा जैसे पूर्वी राज्यों में मजबूत किला बना लिया है।

दिलचस्प बात यह है कि लोकसभा चुनाव में भाजपा को 60 करोड़ वोटों में से 50 प्रतिशत से अधिक मत मिले हैं। इसके अलावा, कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और केरल जैसे दक्षिण भारत के राज्यों में अपनी मौजूदगी दर्ज कराने के बाद अब इसे उत्तरी भारत में वर्चस्व रखने वाली हिंदी पट्टी की पार्टी कहना उचित नहीं होगा। यहां तक कि भाजपा को ‘शहरी केंद्रित’ पार्टी कहने से भी अब बात नहीं बनेगी, क्योंकि इसके अधिकांश सांसद ग्रामीण पृष्ठभूमि से हैं और शहरी इलाकों से दूर की सीटों से चुने गए किसान हैं। ओडिशा, मध्य प्रदेश, बिहार और उत्तर प्रदेश के सबसे गरीब जिलों से मिले वोटों का बड़ा हिस्सा एक अलग कहानी कहता है।

मिलेनियल वोटर्स (2000 के बाद जन्म लेने वाले मतदाता) और मोबाइल इस्तेमाल युवाओं के बीच भी भाजपा की लोकप्रियता को देखा जा सकता है। ऐसा लगता है कि उन्होंने निर्णायक रूप से पार्टी और प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी का समर्थन किया। चुनावी फैसलों का बारीक अध्ययन करने वाले विशेषज्ञों ने निष्कर्ष निकाला है कि पहली बार वोट देने वाले 10 करोड़ मतदाताओं में से 50 फीसदी से अधिक को भाजपा और मोदी के व्यक्तित्व ने आकर्षित किया। यह बेहद दिलचस्प है कि सत्रहवीं लोकसभा के लिए चुनी गईं कुल 78 महिला सांसदों में सबसे अधिक भाजपा की हैं।

 यह सब रातोरात या एक झटके में मुमकिन नहीं हो सकता है। 80 के दशक की शुरुआत में पार्टी के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी ने अयोध्या में विवादित स्थल पर मंदिर निर्माण के लिए ‘राम रथ यात्रा’ शुरू की थी। बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद भाजपा का राजनैतिक अलगाव भी हुआ और अंततः पार्टी एक ऐसे विकास पथ पर चली गई जिसकी कल्पना कम ही लोग कर सकते हैं। खैर, मतदाताओं को खासकर पाकिस्तानी इलाके में आतंकी ठिकानों को खत्म करने के लिए सर्जिकल स्ट्राइक और पश्चिमी सीमा से आतंकियों द्वारा पुलवामा हमले के बाद बालाकोट में एयर स्ट्राइक भी पसंद आया। भाजपा की निर्णायक जीत में इस बात का भी महत्व है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पक्ष में ‘प्रो- इन्कंबेंसी लहर’ ने भी काम किया। पिछले 35 वर्षों में, किसी भी राजनीतिक दल या नेता को कभी भी दो लगातार कार्यकाल के लिए ऐसा निर्णायक जनादेश नहीं मिला है। लगता है कि हालिया संपन्न लोकसभा चुनाव में भाजपा की सफलता की कुंजी इसमें छिपी है कि पार्टी ने शुरुआत में उन 120 सीटों की पहचान की, जिन पर 2014 में इसने खराब प्रदर्शन किया या वह हार गई। साढ़े तीन लाख से अधिक पार्टी कार्यकर्ताओं ने 2017 की शुरुआत से ही अपनी नौकरियों/कामों से छुट्टी लेकर एक पखवाड़े से छह महीने तक अपना पूरा समय पार्टी के लिए समर्पित कर दिया। इसने पार्टी के तंत्र को बुलडोजर बना दिया। अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि भाजपा ने अपनी रणनीति की शानदार सफलता के लिए 15 हजार कॉलर्स वाले 162 कॉल सेंटर स्थापित किए, जो फोन के जरिए, इंटरनेट, सोशल नेटवर्किंग साइटों पर काम कर रहे थे और पार्टी के लिए व्यापक पहुंच का जनाधार तैयार कर रहे थे। नरेंद्र मोदी सरकार की कल्याणकारी योजनाओं जैसे बिजली, रसोई गैस, जनधन खाता योजना, ग्रामीण आवास के पहली बार के लाभार्थियों की पहचान करने से भी लगता है कि पार्टी को इससे जन-संपर्क कार्यक्रम में मदद मिली है।

लगता है कि शाह को हर चुनाव जीतने की कला में महारत हासिल है। खासकर गुजरात में जीत का कम अंतर और मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों में पार्टी के हारने के बाद पार्टी कैडर का मनोबल गिर गया था। फिर भी, अमित शाह आसानी से हार मानने वाले नहीं थे और न ही 2019 के चुनावों में प्रचार अभियान में इसे बाधा बनने देना चाहते थे। उत्तर प्रदेश में भाजपा के सामने महागठबंधन था, लेकिन पार्टी ने गैर-यादव अन्य पिछड़े वर्गों, गैर-जाटव दलित मतदाताओं, उच्च जातियों, महिला मतदाताओं खासकर मुस्लिम महिलाओं तथा युवाओं पर ध्यान केंद्रित किया।

ऐसा लगता है कि जगनमोहन रेड्डी (वाइएसआर कांग्रेस पार्टी) और के. चंद्रशेखर राव (तेलंगाना राष्ट्र समिति) जैसे शक्तिशाली क्षत्रपों के लिए रास्ता तैयार किया, ताकि एनडीए के बहुमत हासिल न करने के जोखिम को कम किया जा सके। भाजपा ने अपना दल जैसी एक-सदस्यीय पार्टियों के साथ भी समझौता करके जोखिम को कम किया।

 अब भाजपा और उसके सहयोगी मजबूती से डटे थे, तो अब बारी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को विकास और आर्थिक मोर्चे पर खरा उतरने की है। अब बारी है मोदी 2.0 की।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और फाइनेंशियल क्रॉनिकल के पूर्व संपादक हैं)

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