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2004 की रणनीति से झारखंड में भाजपा को मात देने की फिराक में कांग्रेस

झारखंड में क्षेत्रीय दलों के कारण बनने-बिगड़ने वाले समीकरणों पर ही राष्ट्रीय दलों भाजपा और कांग्रेस...
2004 की रणनीति से झारखंड में भाजपा को मात देने की फिराक में कांग्रेस

झारखंड में क्षेत्रीय दलों के कारण बनने-बिगड़ने वाले समीकरणों पर ही राष्ट्रीय दलों भाजपा और कांग्रेस का प्रदर्शन निर्भर करता है। 2004 में जब कांग्रेस क्षेत्रीय दलों का व्यापक गठबंधन बनाने में कामयाब रही थी तो राज्य की 14 लोकसभा सीटों में से केवल एक पर भाजपा को जीत मिली। लेकिन, 2009 और 2014 के आम चुनावों में विपक्ष एकजुट नहीं रहा और भाजपा क्रमशः आठ और 12 सीटों पर जीत गई।

अगले साल होने वाले आम चुनावों को लेकर भी कांग्रेस 2004 का फॉर्मूला आजमाने की तैयारी कर रही है। इस साल मार्च में झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के बीच बैठक में इसका खाका खींचा गया था। झारखंड प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डॉ. अजय कुमार ने आउटलुक को बताया कि कांग्रेस, झामुमो, राजद और वाम दलों का मिलकर चुनाव लड़ना तय है। अन्य विपक्षी दलों को भी साथ लाने के प्रयास किए जा रहे हैं।

उन्होंने बताया कि केंद्र और राज्य की भाजपा सरकार से हर वर्ग परेशान है। झारखंड में विकास पूरी तरह ठप है। इस सरकार से लोगों को छुटकारा दिलाने के लिए कांग्रेस सभी दलों को साथ लाने की कोशिश कर रही है। पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी की झारखंड विकास मोर्चा (झाविमो) कांग्रेस की इस रणनीति के केंद्र में है। डॉ. अजय कुमार ने बताया, “झाविमो के साथ मिलकर हम पहले भी चुनाव लड़ चुके हैं। फिर से गठबंधन को लेकर बातचीत चल रही है। जहां तक आजसू का सवाल है तो गठबंधन में शामिल होने के लिए पहल उसे ही करनी होगी, क्योंकि वह हमेशा से भाजपा के साथ रही।”

झाविमो ने 2014 का लोकसभा चुनाव अकेले लड़ा था। पार्टी का खाता भी नहीं खुला था। यहां तक कि खुद मरांडी चुनाव हार गए, लेकिन पार्टी 12.25 फीसदी वोट बटोरने में कामयाब रही थी जो दो लोकसभा सीट जीतने वाली झामुमो से करीब तीन फीसदी ज्यादा था। इसी साल हुए विधानसभा चुनाव में करीब दस फीसदी वोटों के साथ आठ सीटों पर झाविमो उम्मीदवार जीते थे। इसी तरह राज्य की भाजपा सरकार में साझीदार आजसू ने भी पिछला लोकसभा चुनाव अकेले लड़ा था और 3.77 फीसदी वोट हासिल किए थे। विधानसभा चुनाव आजसू ने भाजपा के साथ मिलकर लड़ा था और करीब चार फीसदी वोट के साथ पांच सीटें हासिल की थी। हालांकि सिल्ली और गोमिया उपचुनावों के बाद भाजपा-आजसू के रिश्तों में खटास आ चुकी है।

बाबूलाल मरांडी भी विपक्षी दलों के गठबंधन के हिमायती हैं। उन्होंने आउटलुक को बताया,  “सभी विपक्षी दलों को मिलकर चुनाव लड़ना चाहिए। मैं इसमें आजसू और अन्य छोटे दलों को भी जोड़ने के पक्ष में हूं।” हालांकि सुदेश महतो फिलहाल अपने पत्ते नहीं खोल रहे। उन्होंने आउटलुक को बताया, “आजसू अकेले चुनाव लड़ने को तैयार है। अब फैसला भाजपा को करना है कि उसे हमारा समर्थन चाहिए या नहीं।” मरांडी का जहां पूरे राज्य में प्रभाव है, वहीं आजसू की हजारीबाग, जमशेदपुर, रांची जैसे इलाकों में अच्छी-खासी पैठ है। 

आजसू, पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा की जय भारत समानता पार्टी, एनोस एक्का की झारखंड पार्टी, भानुप्रताप शाही की नौजवान संघर्ष मोर्चा, शिवपूजन मेहता की बहुजन समाज पार्टी जैसे कई और छोटे दलों को मिलाकर गठबंधन की कोशिश भी मरांडी कर रहे हैं। हालांकि 2014 के विधानसभा चुनाव से पहले उनकी ऐसी कोशिश नाकाम रही थी। मधु कोड़ा पिछला लोकसभा चुनाव हार गए थे। उनकी पत्नी फिलहाल विधायक हैं। सजायाफ्ता होने के कारण अब वे चुनाव नहीं लड़ सकते। एनोस एक्का की विधायकी हाल ही में एक मामले में सजा सुनाए जाने के कारण समाप्त हो गई है। बीते लोकसभा चुनाव के नतीजे बताते हैं कि इन दलों के मैदान में होने का फायदा भाजपा को मिला था।

पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन के नेतृत्व में झारखंड नामधारी दलों का गठबंधन बनाने की कोशिश में पूर्व सांसद सालखन मुर्मू भी लगे हैं। भाजपा से राजनीति की शुरुआत करने वाले मुर्मू झारखंड दिशोम पार्टी और सेंगल अभियान चलाते हैं। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि आम चुनावों से पहले ये दल कांग्रेस के साथ आएंगे या फिर विपक्षी वोटों में सेंधमारी कर भाजपा की राह आसान करेंगे! 

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