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कहीं होती है रावण की पूजा, तो कहीं मनाते हैं 75 दिनों तक दशहरा

दशहरा यानी विजयादशमी हिन्दुओं का महत्वपूर्ण त्योहार है। यह  अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को...
कहीं होती है रावण की पूजा, तो कहीं मनाते हैं 75 दिनों तक दशहरा

दशहरा यानी विजयादशमी हिन्दुओं का महत्वपूर्ण त्योहार है। यह  अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को मनाया जाता है। माना जाता है कि भगवान राम ने इसी दिन रावण का संहार किया था। इसे असत्य पर सत्य की विजय के रूप में भी मनाया जाता है। इस दशमी को विजयादशमी के नाम से जाना जाता है। अमूमन भारत में इस दिन जगह-जगह रावण के पुतले के दहन करने की परंपरा प्रचलित है।  लेकिन कई स्थान ऐसे भी हैं जहां बिल्कुल अलग तरह से इस दिन को मनाया जाता है। कहीं शोक की तरह तो कहीं बगैर रावण के पुतले का दहन किए 75 दिनों तक दशहरा मनाया जाता है। आइए जानते हैं ऐसी ही कुछ अनोखी परंपराओं के बारे में-

 

बस्तर: यहां 75 दिनों तक मनाते हैं दशहरा

छत्तीसगढ़ के बस्तर में दशहरे को राम की रावण पर जीत ना मानकर, लोग इसे मां दंतेश्वरी की आराधना को समर्पित पर्व मानते हैं। दंतेश्वरी माता बस्तर अंचल के निवासियों की आराध्य देवी हैं, जो दुर्गा का ही रूप हैं। यहां यह पर्व पूरे 75 दिन चलता है। दशहरा सावन माह की अमावस से आश्विन मास की शुक्ल त्रयोदशी तक चलता है। पहले दिन जिसे काछिन गादि कहते हैं, इस दिन देवी से समारोहारंभ की अनुमति ली जाती है। देवी एक कांटों की सेज पर विरजमान होती हैं, जिसे काछिन गादि कहते हैं। यह कन्या एक अनुसूचित जनजाति की होती है, जिससे बस्तर के राजपरिवार के व्यक्ति अनुमति लेते हैं। यह समारोह लगभग 15वीं शताब्दी से शुरु हुआ था। इसके बाद जोगी-बिठाई होती है, इसके बाद भीतर रैनी (विजयदशमी) और बाहर रैनी (रथ-यात्रा) और अंत में मुरिया दरबार होता है। इसका समापन अश्विन शुक्ल त्रयोदशी को ओहाड़ी पर्व से होता है। बस्तर के इस दशहरे को देखने के लिए विदेशों से भारी संख्या में लोग आते हैं।

 

बैजनाथ कस्बा: यहां नहीं जलाए जाते रावण के पुतले

हिमाचल प्रदेश स्थित बैजनाथ कस्बा में मान्यता है कि यहां पर रावण ने भगवान शिव की वर्षों तक कठोर तपस्या की थी। साथ ही यह भी माना जाता है कि बैजनाथ कस्बे से होकर ही रावण शिवलिंग लेकर लंका के लिए गुज़रे थे। यहां कोई रावण का मंदिर नहीं है, बल्कि कस्बे के साथ मौजूद यह मंदिर पर्यटकों को अपनी तरफ खींचता है। यहां रावण के पुतले नहीं जलाए जाते।

 

कोलार में होता है लंकेश्वर महोत्सव

कर्नाटक के कोलार में लंकेश्वर महोत्सव के दौरान रावण की पूजा के साथ-साथ जुलूस भी निकाला जाता है। जुलूस में रावण के साथ भगवान शिव की मूर्ति को भी घुमाया जाता है। मान्यता है कि रावण के भगवान शिव का परम भक्त होने के चलते यहां रावण की पूजा की जाती है। कोलार के लिए मंडया जिले में मालवल्ली तहसील में रावण का एक मंदिर भी है।

 

मंदसौर और विदिशा, जहां शुभ अवसर पर रावण से लेते हैं आशीर्वाद

मध्य प्रदेश के विदिशा में को मंदोदरी का जन्म स्थान मानते हैं। दशहरे के दिन लोग यहां मौजूद 10 फीट लंबी रावण की प्रतिमा की पूजा करते हैं। इसके साथ ही शादियों जैसे शुभ अवसर पर इस मूर्ति का आशीर्वाद लेते हैं।

विदिशा की ही तरह मंदसौर में भी रावण की पूजा की जाती है। इस जगह मौजूद मंदिर को मध्य प्रदेश में बना रावण का पहला मंदिर माना जाता है। यहां रावण रुण्डी नाम से रावण की विशाल मूर्ति भी मौजूद है, जिसकी पूजा की जाती है। महिलाएं इस मूर्ति से सामने से घूंघट करके निकलती हैं। माना जाता है कति मंदोदरी के नाम पर ही इस जगह का नाम मंदसौर पड़ा।

मंडोर में दशहरे के दिन मनाते हैं शोक

राजस्थान के जोधपुर स्थित मंडोर को रावण का ससुराल माना जाता है। यहां रावण की पहली पत्नी मंदोदरी को बेटी मानते हैं। इसके अलावा यहां मौजूद श्रीमाली ब्राह्मण समाज के लोग रावण की कुलदेवी खरानना की पूजा करते हैं और खुद को रावण का वंशज बताते हैं। मंडोर में रावण और मंदोदरी का मंदिर भी है। दशहरे के दिन रावण की मौत और मंदोदरी के विधवा होने के कारण यहां के लोग दशहरे के दिन शोक मनाते हैं।

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