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रेडियोधर्मी कचरे से निकाली जिंदगी बचाने वाली तकनीक

कचरे पर कोई हाथ नहीं डालना चाहता...और बात बेहद रेडियोधर्मी कचरे की हो तब तो बिल्कुल नहीं। फिर भी भारतीय परमाणु विज्ञानियों ने इस काम को अपने हाथ में लेते हुए दुनिया में पहली बार परमाणु उर्जा संयंत्रों से निकलने वाले कचरे से रेडियोधर्मी तत्व सीजियम की एक एेसी दुर्लभ किस्म विकसित की है।
रेडियोधर्मी कचरे से निकाली जिंदगी बचाने वाली तकनीक

सीजियम की इस रेडियोधर्मी किस्म का इस्तेमाल रक्त को बैक्टीरिया से मुक्त करने के लिए हो रहा है ताकि जिंदगियां बचाई जा सकें। इसके अलावा इसका इस्तेमाल गंगा नदी की सफाई में भी किए जाने की संभावना है। परमाणु उर्जा आयोग के नए अध्यक्ष डाॅ. शेखर बसु ने इस बात की पुष्टि करते हुए कहा, इस तकनीक का इस्तेमाल दुनिया में पहली बार व्यवसायिक क्षेत्र में किया जा रहा है।

भारत के परमाणु संयंत्रों में इस्तेमाल किए जाने वाले यूरेनियम परमाणु ईंधन के प्रत्येक टन से लगभग 500 लीटर कचरा निकलता है, जिसके निपटान के लिए बेहद सुरक्षित स्थानों और दस्तानों की जरूरत होती है। इसका निपटान कांच के बने विशेष कंटेनरों में किया जाता है। परमाणु संयंत्रों से निकलने वाले इस 500 लीटर रेडियोधर्मी द्रव को पहले एक कचरे के रूप में देखा जाता था, जिसके निपटान के लिए काफी धन व्यय होता था। इस साल की शुरूआत में भाभा परमाणु शोध केंद्र (बार्क) में कार्यरत परमाणु इंजीनियरों के. बनर्जी और सी.पी. कौशिक ने एक ऐसी प्रक्रिया को दोषमुक्त बनाया है, जिसके तहत सीजियम-137 जैसे महत्वपूर्ण तत्वों को सुरक्षित ढंग से तैयार किया जा सकता है और फिर मानवीय लाभ के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।

कुछ विशेष कार्बनिक विलायकों का इस्तेमाल करते हुए ट्रॉम्‍बे के अपशिष्ट निसंचालन संयंत्र में कार्यरत रसायन विज्ञानी इस परमाणु कचरे में से कुछ उपयोगी पदार्थ निकालने में कामयाब रहे हैं। बार्क की इस नई तकनीक में सीजियम-137 को कांच के माध्यम में डाल दिया जाता है। इसके बाद इन्हें पेंसिलों का रूप दिया जाता है, जिनका इस्तेमाल 30 साल तक किया जा सकता है। कुछ सप्ताह पहले, सीजियम-137 की 10 पेंसिलों की पहली व्यवसायिक खेप चिकित्सीय अधिकारियों को सौंप दी गई ताकि इनका इस्तेमाल रक्त को सुरक्षित रखने में किया जा सके। सीजियम-137 में बीटा और गामा किरणों जैसे विकिरणों के उत्सर्जन के विशेष गुण होते हैं, जिनका इस्तेमाल कुछ विशिष्ट कोशिकाओं को नष्ट करने के लिए किया जा सकता है। अब तक इस काम के लिए आम तौर पर कोबाल्ट-60 का इस्तेमाल होता था।

कौशिक ने कहा, सीजियम आधारित नया इरेडिएेटर ज्यादा किफायती है और इसे तुलनात्मक रूप से कम रखरखाव की जरूरत होती है। इसलिए यह सुरक्षित है। इस सीजियम-137 का इस्तेमाल नगर निकाय के कचरे के रूप में पैदा होने वाले गाद को बैक्टीरिया मुक्त करने के लिए भी किया जा सकता है। इस साल की शुरूआत में, बार्क ने अहमदाबाद नगर निगम के साथ एक करार किया था, जिसमें कोबाल्ट-60 का इस्तेमाल करते हुए सुरक्षित विकिरण उपचार की तकनीक के जरिए 100 टन सूखे गाद का शोधन करने की बात थी। कौशिक ने कहा कि दीर्घकालिक तौर पर, कोबाल्ट-60 की जगह सीजियम-137 का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। कोबाल्ट-60 का निर्माण तो महंगा है ही, साथ ही इसे बनाने के लिए उच्च विशेषज्ञता वाले संस्थान की जरूरत पड़ती है। एक बार सीजियम-137 की बड़ी मात्राा का उत्पादन हो जाए तो इसका इस्तेमाल गंगा स्वच्छता अभियान के लिए किया जा सकता है। इसी नवनिर्मित सीजियम-137 का इस्तेमाल प्याज का जीवनकाल बढ़ाने के लिए भी किया जा सकता है।

बोर्ड आॅफ रेडिएशन एंड आइसोटोप टेक्नोलाॅजी पहले से ही महाराष्ट्र में एेसे संयंत्रों का संचालन करता है, जो कि प्याज और आलू के जीवनकाल को बढ़ाने के लिए विकिरण का इस्तेमाल करते हैं। अभी ये संयंत्र कोबाल्ट-60 का इस्तेमाल करते है। कल इनके विकिरण का स्रोत सीजियम-137 हो सकता है। वैश्विक परमाणु निगरानी संस्था अंतरराष्ट्रीय परमाणु उर्जा एजेंसी ने बार्क की इस उपलब्धि की सराहना की है और इसका प्रचार करने का वादा किया है। बनर्जी ने कहा कि वह हाल ही में चीन गए थे, वहां भी इसकी सराहना की गई। यह उपलब्धि स्वच्छ भारत अभियान में योगदान देते हुए कचरे से धन पैदा करने में भारत का एक महत्वपूर्ण योगदान है। 

(जाने-माने विज्ञान लेखक पल्लव बाग्ला का पीटीआई-भाषा के लिए साप्ताहिक स्तंभ)

 

 

 

 

 

 

 

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