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अंतरिक्ष में भारत की पहली वेधशाला उड़ान भरने को तैयार

अगर सब कुछ योजना के अनुरूप चला तो भारत अंतरिक्ष में अपनी दूरबीन लगाने वाला पहला विकासशील देश बन जाएगा।
अंतरिक्ष में भारत की पहली वेधशाला उड़ान भरने को तैयार

भारत का स्वदेशी टर्बो-चार्ज मिनी हबल टेलीस्कोप 28 सितंबर की सुबह उड़ान भरने के लिए तैयार है। पौराणिक कथाओं में वर्णित भगवान शिव की 'तीसरी आंख' की तरह यह उपग्रह ब्रह्मांड को देख सकेगा। इस अभियान के सफलतापूर्वक पूरा होने के बाद भारत कुछ विशिष्ट देशों की श्रेणी में शामिल हो जायेगा। इस श्रेणी में अमेरिका, यूरोपीय संघ और जापान जैसे देश ही आते हैं। चीन के पास भी अपनी अंतरिक्ष वेेधशाला नहीं है। इसका उपयोग ब्लैक होल के अध्ययन के लिए किया जायेगा। तारों और आकाशगंगाओं के जन्म और उनके खत्म होने के विश्लेषण के लिए भी यह प्रयोग मेें लाई जा सकती है।

ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान यानी पीएसएलवी की यह उड़ान इस मायने में एेतिहासिक है क्योंकि पहली बार अमेरिकी उपग्रहों को भारत द्वारा प्रक्षेपित किया जा रहा है। हाल के वर्षों तक अमेरिका इसरो को अहम तकनीक देने से मना कर देता था। लेकिन अब छोटे एलईएमयूआर उपग्रहों को सैन फ्रांसिस्कों की एक कंपनी के लिए प्रक्षेपित किया जा रहा है। कम लागत में प्रक्षेपण की भारत की क्षमता ने इसरो के प्रति अमेरिकियों के नजरिये को बदलने पर मजबूर कर दिया है। यह पीएसएलवी कनाडा और इंडोनेशियाई के एक छोटे अवलोकन उपग्रहों को भी ले जाएगा। यह पीएसएलवी राॅकेट की 31वीं उड़ान होगी, इससे पहले अब तक इसने लगातार 30 सफल उड़ानें भरी हैं।

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा निर्मित इस अनूठे भारतीय उपग्रह को एस्ट्रोसैट नाम दिया गया है। इसे पीएसएलवी के सबसे शक्तिशाली संस्करण का उपयोग करते हुए आंध्रप्रदेश के श्रीहरिकोटा स्थित अंतरिक्ष केंद्र से प्रक्षेपित किया जाएगा। इसे पृथ्वी की सतह से लगभग 650 किलोमीटर की ऊंचाई पर स्थापित किया जाएगा और उम्मीद है कि यह मिशन पांच वर्षों का रहेगा। इसरो के अध्यक्ष डाॅक्टर किरण कुमार के अनुसार वैश्विक खगोल विज्ञान समुदाय की निगाहें इस प्रक्षेपण पर हैं क्योंकि किसी भी वैश्विक अंतरिक्ष आधारित दूरदर्शी में इस तरह की खूबियां नहीं हैं। अगर यह मिशन सफल हो जाता है तो भारत यह क्षमता हासिल करने वाला चौथा अंतरिक्ष देश हो जायेगा।

करीब एक वर्ष पूर्व अपने पहले ही प्रयास में लाल ग्रह पर पहुंचने से मंगलयान मिशन की मिली वैश्विक सफलता के बाद एस्ट्रोसैट आया है। मार्स आॅर्बिटर मिशन यानी एमओएम की तरह यह भी काम लागत की सीमित वैज्ञानिक क्षमताओं वाली परियोजना है। एस्ट्रोसैट को बनाने में 178 करोड़ रुपये की लागत और 20 वर्ष का समय लगा। बेंगलुरू स्थित भारतीय खगोल भौतिकी संस्थान के प्रोफेसर सुजान सेनगुप्ता ने कहा एस्ट्रोसैट के पास सीमित क्षमताएं हैं लेकिन इस मायने में यह अनूठा है क्योंकि यह कई तरंगदैर्ध्‍य देख सकता है। यह दुनिया का पहला वैज्ञानिक दूरदर्शी है जिसमें चार विशेष कैमरे लगे हैं जो एक साथ अलग-अलग तरंगदैर्ध्‍य पर नजर रख सकते हैं। 

 

(जाने-माने विज्ञान लेखक पल्लव बाग्ला का पीटीआई-भाषा के लिए साप्ताहिक स्तंभ)

 

 

 

 

 

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