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भारत में हो सकती थी सदी की महत्वपूर्ण खोज, यहां हुर्इ चूक

बीते दौर में हुए एक विस्फोट को सुनकर दो अमेरिकी संसूचकों (detectors) ने एक इतिहास रच दिया है और यदि चीजें योजना के अनुरूप चलती हैं तो एेसी ही आवाजें सुनने वाला तीसरा संसूचक भारत में हो सकता है। इन संसूचकों पर सुनी जाने वाली ये आवाजें ब्रह्मांड के गहरे रहस्यों से पर्दा उठा सकती हैं।
भारत में हो सकती थी सदी की महत्वपूर्ण खोज, यहां हुर्इ चूक

1.3 अरब साल पहले दो ब्लैकहोल के बीच हुई भीषण टक्कर की धीमी आवाजें अमेरिका स्थित दो बेहद परिष्कृत संसूचकों पर सुनी गई। आपस में मिलते ब्लैकहोल से पैदा हुई इस आवाज के आधार पर 1000 से ज्यादा वैज्ञानिकों के दल ने गुरूत्वीय तरंगों की खोज कर ली है, जिन्हें दिक् और काल का वास्तविक विचलन कहा जाता है।

इस खोज को सदी की सबसे महत्वपूर्ण खोज माना जा रहा है। यह खोज महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन की लगभग एक सदी पहले की गई भविष्यवाणी को भी सच साबित करती है। इस महान खोज के साथ भारत का भी एक बड़ा जुड़ाव है। रमन शोध संस्थान, बेंगलूरू जैसे कई भारतीय संस्थानों ने इस एेतिहासिक उपलब्धि में प्रत्यक्ष योगदान दिया है।

भारत में 2011 से लंबित है योजना 

हालांकि यदि भारत सरकार ने समयबद्ध तरीके से काम किया होता तो भारत ने भी ब्रह्मांड की ये आवाजें सुन ली होतीं। भारत में स्थापित किए जाने वाले दुनिया भर के तीसरे और अमेरिका के बाहर के पहले संसूचक की वैज्ञानिक योजना वर्ष 2011 से लंबित है। यदि भारत सरकार ने अपनी निर्णय-क्षमता में तीव्रता दिखाई होती तो गुरूत्वीय तरंगों के आगमन का यह धीमा कलरव एक बड़ी गर्जना साबित हो सकता था। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार ने इस बड़ी विज्ञान परियोजना के लिए वर्ष 2014 में सैद्धांतिक मंजूरी तो दी थी लेकिन वह इसके लिए धन आवंटन करने में विफल रही।

सपना बनेगा हकीकत 

वहीं इस महान खोज से जुड़े इस अवसर को पहचानते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वैश्विक घोषणा के 20 मिनट के अंदर ही बयान देकर भारतीय वैज्ञानिक समुदाय को अभीभूत कर दिया। मोदी ने कहा, गुरूत्वीय तरंगों की एेतिहासिक पहचान ने ब्रह्मांड को समझने के नए आयाम खोल दिए हैं। बेहद गर्व का विषय है कि भारत के वैज्ञानिकों ने इस चुनौतिपूर्ण कार्य में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उम्मीद है कि देश में एक आधुनिक गुरूत्वीय तरंग संसूचक के जरिए कहीं बड़े योगदान के साथ आगे बढ़ा जाएगा।

प्रधानमंत्री द्वारा उस दौरान बोले गए अंतिम वाक्य ने भारतीय अंतरिक्षविज्ञान समुदाय को इस उल्लास से भर दिया कि तीसरे लेजर इंटरफेरोमीटर ग्रेविटेशन वेव आॅब्जर्वेटरी (एलआईजीओ) संसूचक का भारत में संचालित होने का सपना हकीकत बन सकता है।

वैश्विक समुदाय पहले से ही इसके लिए आवाज उठा रहा है। इस वैश्विक प्रयास में शामिल संस्थानों में से एक अमेरिका कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट आॅफ टेक्नोलाॅजी में कार्यरत जाने-माने अंतरिक्ष भौतिकविद श्रीनिवास आर कुलकर्णी ने कहा, मोदी जी कृपया इस बेहद महत्वपूर्ण भारतीय लीगो परियोजना के लिए धन का आवंटन करें और मैं जानता हूं कि इसपर विचार चल रहा है, इस पर धन लगाना उपयोगी साबित होगा। इससे देशभर के भौतिक विभागों का उत्थान होगा और बहुत सी नयी तकनीकें, परिशुद्ध लेज़र और शक्तिशाली लेज़र तकनीक भारत में आ सकती है। इससे भारतीय विज्ञान का वैश्वीकरण होगा।

भारत ने गुरूत्वीय तरंगों के बेहद जटिल गुणों- द्रव्यमान, दिक् एवं काल की पहचान के प्रयास करने का फैसला वर्ष 2014 में किया था। हालांकि इनके बारे में आइंस्टीन ने वर्ष 1916 में सापेक्षिता के सामान्य सिद्धांत के तहत ही व्याख्या कर दी थी लेकिन पिछले सप्ताह की एेतिहासिक खोज तक इससे जुड़ी गुत्थियां सुलझाई नहीं जा सकी थीं। वर्ष 2014 में, जम्मू में आयोजित भारतीय विज्ञान कांग्रेस के उद्घाटन सत्रा में भारतीय प्रधानमंत्राी मनमोहन सिंह ने कइयों को यह कहकर सुखद आश्चर्य में डाल दिया था कि गुरूत्वीय तरंग प्रयोग में, भारत तीसरे संसूचक का आयोजक बनने का इरादा रखता है।

भारत के लिए अवसर 

वैसे तो वर्ष 2001 से ही अमेरिका के वाशिंगटन स्थित हैनफोर्ड और लुइसियाना स्थित लिविंग्स्टन में विशेष प्रकार के बड़े लेजर संसूचक सक्रिय हैं और लंबे समय से इन तरंगों की पहचान पर काम करते रहे हैं। फिर भी वैश्विक अंतरिक्षविद समुदाय चाहता है कि एक अन्य संसूचक अमेरिका से बहुत दूर लगाया जाए। इस समुदाय का मानना है कि ब्रमांड में पैदा होने वाली गुरूत्वीय तरंगों का पता इन तीन संसूचकों के समूह के जरिए बेहतर ढंग से लगाया जा सकता है।

लीगो से आस 

यूएस नेशनल साइंस फाउंडेशन द्वारा वित्तपोषित और कैलटेक के नेतृत्व वाले 14 करेाड़ डाॅलर के लेजर इंटरफेरोमीटर ग्रेविटेशनल वेब आॅब्जर्वेटरी यानी लीगो को भारत में लगाए जाने का प्रस्ताव है। इसके लिए स्थान का चुनाव अब तक नहीं हो पाया है लेकिन राजस्थान और महाराष्ट्र के कई स्थानों में सर्वेक्षण किए गए हैं। भारत की इस घोषणा पर वैश्विक समुदाय बेहद उत्साहित है क्योंकि वर्ष 2012 में एेसी ही वेधशाला ऑस्ट्रेलिया में लगाने का एक प्रयास विफल हो गया था क्योंकि मेजबान देश वित्तपोषण का प्रबंध नहीं कर पाया था।  

मोदी द्वारा लीगो-इंडिया की इस परियोजना का जिक्र किए जाने के बाद से उम्मीद बढ़ गई है। रोमांच इस बात का भी है कि यह मेक इन इंडिया प्रयास की एक शानदार मिसाल कायम कर सकता है। इस परियोजना के जानकार वैज्ञानिकों का मानना है कि भारत सरकार इस परियोजना के मद में अगले 15 वर्ष तक के लिए लगभग 1000 करोड़ रूपए आवंटित कर सकती है। इसका नेतृत्व परमाणु उर्जा विभाग द्वारा किया जा रहा है। 

आलोचनात्मक स्वर उठाने वालों के विपरीत मत रखते हुए परमाणु इंजीनियर और परमाणु उर्जा आयोग के पूर्व अध्यक्ष रतन कुमार सिन्हा साइंस मैगजीन से यह कह चुके हैं , लीगो विश्व और भारत के कुछ सर्वश्रेष्ठ अंतरिक्षविदों को भारत की धरती पर काम करने के लिए एकजुट करेगा। ये एक बेहद रोमांचक शोध क्षेत्र पर काम करेंगे, जिसका एक अहम पहलू आइंस्टीन के सापेक्षिता के सामान्य सिद्धांत की पुष्टि करने से जुड़ा होगा। 20.1 करोड़ डाॅलर का निवेश हमारे उद्योग को और हमारे छात्राों को प्रत्यक्ष रूप से लाभांवित करेगा।भारत को पहले ही इस क्रम में बढ़त हासिल है। संजीव धुरंधर और सत्यप्रकाश जैसे भारतीय वैज्ञानिकों ने एक दशक से भी ज्यादा समय से पहले एेसे गणितीय सूत्र विकसित किए थे, जिनके जरिए पृष्ठभूमि के शोर से सिग्नल की पहचान हो सकती है। कुलकर्णी ने कहा, गुरूत्वीय तरंगों की पहचान में भारत के योगदान को नोबल पुरस्कार देते समय रेखांकित किया जाना चाहिए।

 

-पीटीआई भाषा 

 

 

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