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सरकार की नई नीति की कैंची से छोटे अखबारों का होगा मुंह बंद

केंद्र सरकार की नई विज्ञापन नीति की गाज छोटे-मध्यम अखबारों पर गिर रही है। अगर इनकी आवाज अनसुनी की गई तो इनका बंद होना तय है। नतीजा यह होगा कि स्थानीय-सामाजिक मुद्दे उठाने वाले इन अखबारों के दफ्तरों पर ताला जड़ जाएगा और इस कारोबार से जुड़े लाखों लोग बेरोजगारी की दहलीज पर आ जाएंगे।
सरकार की नई नीति की कैंची से छोटे अखबारों का होगा मुंह बंद

केंद्र सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने नई विज्ञापन नीति जारी की है। इस तहत नई अंक व्यवस्था लागू की गई है। डीएवीपी द्वारा जारी नई नीति में अंकों के आधार पर अखबारों को विज्ञापन सूची में प्राथमिकता दी गई है। दिल्ली से निकलने वाले रोजना उर्दू अखबार सियासी तकदीर के संपादक मुस्तकीम खान बताते हैं कि इसमें 45 हजार प्रसार संख्या से अधिक वाले समाचार पत्रों के लिए एबीसी (ऑ़डिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशन) और आरएनआई का प्रमाण पत्र अनिवार्य किया गया है। एबीसी के तहत बड़े अखबार वालों का पैनल छोटे-मध्यम अखबारों की प्रसार संख्या की जांच करेगा, जिसके लिए 25 अंक रखे गए हैं। कर्मचारियों को पीएफ देने पर 20 अंक, समाचार पत्र की पृष्ठ संख्या के आधार पर 20 अंक, समाचार पत्र द्वारा तीन एजेंसियों के लिए 15 अंक, खुद की प्रिंटिंग प्रेस होने पर 10 अंक और प्रसार संख्या के आधार पर प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया की फीस जमा करने पर 10 अंक दिए गए हैं । इस तरह 100 अंकों का वर्गीकरण किया गया है। जिन अखबारों को 46 से कम अंक मिलेंगे वे विज्ञापन लेने के हकदार नहीं होंगे जबकि वे डीएवीपी के पैनल में रहेंगे। मुस्तकीन खान का कहना है कि वर्तमान में 90 फीसदी छोटे अखबार इन शर्तों को पूरा नहीं कर सकते। नई नीति के लागू होने से बड़े राष्ट्रीय और प्रादेशिक अखबारों को ही अब केंद्र एवं राज्य सरकारों के विज्ञापन जारी हो सकेंगे।

 

मुस्तकीम खान बताते हैं कि एक अखबार से मालिक, रिपोर्टर, हॉकर, सर्कूलेशन, गाड़ी वाला आदि समेत लगभग 500 लोगों का परिवार जुड़ा होता है। एक अखबार के बंद होने के मतलब है कि कई सौ परिवारों के भूखे मरने के नौबत आएगी। इनका यह भी कहना है कि छोटे अखबारों में सब लोग सभी काम करते हैं लेकिन प्रैस लगाने से उसके लिए कम से कम दस लोग ऐसे रखने होंगे जो मशीन का काम जानते हों। एक छोटा अखबार प्रिंट होने में कम से कम दो घंटे का वक्त लगता है उसके लिए 50 लाख रुपये से लेकर दो करोड़ रुपये की प्रैस लगाने का कोई मतलब नहीं है। ऑल इंडिया स्माल न्यूज पेपर्स एसोसिएशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष शिव शिंकर त्रिपाठी बताते हैं कि जहां तक समाचार एजेंसियों की बात है तो वह जरूरत पीआईबी की वेबसाइट से पूरी हो जाती है। वैसे भी प्रांतीय भाषाओं के अखबार इस अनिवार्यता को कैसे पूरा करेंगे। त्रिपाठी का कहना है कि ‘मैंने जिस प्रोफेशन में  सालों  गुजार दिए, मुझे नहीं समझ आता कि मैं इसे छोड़कर और क्या करूंगा लेकिन मैं यह जानता हूं कि मैं नई नीति के अनुसार अखबार नहीं चला सकता। यह सरासर लोगों को बेरोजगार करने की, स्थानीय जुबान बंद करने की साजिश है।’

 

लखनऊ से उर्दू में छपने वाले अखबार ‘कौमी रफ्तार’ के संपादक अलीमुल्लाह खान  कहते हैं ‘फिलहाल हम सरकार के नुमाइंदों से बातचीत कर रहे हैं। सरकार ने इस नीति को लागू करने के लिए दो महीने का समय और बढ़ा दिया है। केंद्रीय मंत्री राजनाथ सिंह समेत कई नेताओं से इस बाबत मीटिंग हुई है।’ अलीमुल्लाह खान के अनुसार अगर सरकार अपना निर्णय वापस नहीं लेती है तो गांव-देहात तक सरकार के खिलाफ संदेश जाएगा कि किस प्रकार मौजूदा सरकार प्रजातंत्र पर हमला कर रही है।

 लखनऊ और देहरादून से निकलने वाले रोजाना अखबार  जनएक्सप्रेस  के संपादक और ऑल इंडिया स्माल न्यूज पेपर्स एसोसिएशन के सचिव  अरुण त्रिपाठी के अनुसार सरकार की साजिश है कि अखबारों की संख्या कम हो। सरकार किसी एक बड़े अखबार को जितना विज्ञापन देती है उतने में 30-35 छोटे अखबारों को विज्ञापन दे सकती है। दुनियाभर के नियम इसलिए लागू किए जा रहे हैं ताकि छोटे अखबार बंद हो जाएं। त्रिपाठी के अनुसार इसमें बहुत से ऐसे नियम हैं जिनका कहीं जिक्र नहीं है।          

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