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मैगज़ीन डिटेल

छोटे-मझोले मंझधार में

अर्थव्यवस्था की पहली चोट तो परंपरागत उद्योगों और छोटी-मझोली कंपनियों पर ही पड़ी। अब जब बड़े संगठित क्षेत्र भी मांग की कमी से बदहाल हैं तो छोटी कंपनियों पर मार कई गुना बढ़ गई है। उद्यमी घबराए हुए हैं। वे कॉस्ट कटिंग से लेकर उत्पादन घटाने तक, सारे उपाय आजमा रहे हैं। नतीजा, लोगों की नौकरियां जा रही हैं। जीडीपी में 29 फीसदी और निर्यात में 40 फीसदी हिस्सेदारी रखने वाले लघु, छोटे और मझोले उपक्रमों (एमएसएमई) की स्थिति तो नोटबंदी और जीएसटी लागू होने के बाद से ही बिगड़ने लगी थी, मांग में गिरावट से जैसे उनकी रीढ़ ही टूट गई है। त्योहारी सीजन में 35-40 फीसदी बिक्री की उम्मीद होती है लेकिन जिस तेजी से लोग नौकरी-जुदा हो रहे हैं, उससे त्योहार भी फीका गुजरने का डर है।

यह खौफ का माहौल क्यों?

देश में अफवाहें ही नहीं, सरकारों और पुलिस-प्रशासन का रवैया भी डर का माहौल पैदा कर रहा है, जो लोकतंत्र और अर्थव्यवस्थाश के लिए घातक है

गलत फैसलों के फंदे में पस्त आर्थिकी

ताजा आंकड़े कह रहे हैं कि जिस ‘चमत्कारिक’ गुजरात मॉडल के सहारे देश की अर्थव्यवस्था को नई ऊंचाइयों पर पहुंचा कर 'अच्छे दिन' लाने थे, वह नाकाम हो गया

दरकता ढांचा संभालने के उपाय कितने कारगर

अर्थव्यवस्था के संगठित और असंगठित दोनों क्षेत्रों के प्रमुख सेक्टर ढहती मांग से खस्ताहाल, यह सामान्य चक्र का मामला नहीं है, बल्कि ढांचा ही दरकने लगा, सरकारी कोशिशें ऊंट के मुंह में जीरे की तरह

संकट यकीनन गहरा, सरकारी कोशिशें थोड़ी

लगातार पांचवीं तिमाही में जीडीपी की दर के गोता लगाने से आखिरकार मोदी सरकार भी मानने पर मजबूर हुई कि आर्थिक रफ्तार धीमी पड़ी है। हालांकि सरकार अभी भी इसे चक्रीय गिरावट ही मान रही है जबकि कई विशेषज्ञ इसे गंभीर ढांचागत समस्या बता रहे हैं। ऐसे में यह जानना अहम है कि विशेषज्ञ अर्थव्यवस्थाग की हालत और उसे उबारने के सरकारी प्रयासों के बारे में क्या सोचते हैं। आउटलुक ने देश के चार जाने-माने अर्थशास्त्रियों-सेंटर फॉर पॉलिसी अल्टरनेटिव के चेयरमैन और 1998 में वित्त मंत्री के सलाहकार रह चुके मोहन गुरुस्वामी, कृषि लागत और मूल्य आयोग के पूर्व चेयरमैन डॉ. टी. हक, क्रिसिल के चीफ इकोनॉमिस्ट डी.के.जोशी और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस ऐंड पॉलिसी के प्रोफेसर एन.आर. भानुमूर्ति की राय जानने की कोशिश की…

सरकार सिस्टम दुरुस्त करे

ऑटोमोबाइल क्षेत्र की बिक्री में गिरावट को देखते हुए जीडीपी ग्रोथ के आंकड़े कोई आश्चर्यजनक नहीं

कांग्रेस में कलह

प्रदेश अध्यक्ष पद की दौड़ में सिंधिया, अजय सिंह समेत कई नेता, आदिवासी अध्यक्ष बनाए जाने के संकेत

जोगी पर जाति का फंदा

जोगी पर जाति प्रमाण पत्र छानबीन समिति की रिपोर्ट से लटकी तलवार

बाढ़ प्राकृतिक या मानव निर्मित?

बांधों के कुप्रबंधन और लापरवाहियों से वर्षों बाद ऐसी तबाही मची कि 50 से ज्यादा लोगों की जान गई, हजारों बेघर हो गए

थानों के बाहर अपनों को तलाशती कतार

रात के छापों में पकड़े गए लड़कों पर सरकार मौन, घाटी में निराश लोग अब जंग को ही हल मानने लगे, भारत समर्थक इलाकों में बगावती तेवर

सूख गई मुख्यधारा सियासत!

अब अब्दुल्ला और मुफ्ती की पार्टियों के ही नहीं, दूसरे छोटे दलों के वजूद बचाने के विकल्प थोड़े

विपक्ष पर शिकंजा, अपनों पर ठंडा

विपक्ष के नेताओं के खिलाफ सीबीआइ, ईडी, आइटी जैसी तमाम केंद्रीय एजेंसियों की सक्रियता से सरकार पर बदले की सियासत के आरोप

कोटा कामयाबी

चार हजार करोड़ का कारोबार, छात्रों की खुदकशी से निपटने की तरकीबें

उजाड़ो, किताबें जाम लगाती हैं!

50 साल से अधिक समय से हर इतवार लगने वाले पुरानी किताबों के हेरिटेज बाजार को हटाने से लेखकों, छात्रों का यहां से गहरा रिश्ता टूटा

मौजूदा नीतियां जारी रहीं तो रोजगार दूर का सपना

मौजूदा दौर में देश के सबसे बड़े मजदूर संगठन, आरएसएस से जुड़े भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) ने आर्थिक स्थिति, ऋण संकट, ऑटोमोबाइल क्षेत्र में गिरावट के लिए सरकार की गलत नीतियों को जिम्मेदार ठहराया है। बीएमएस एनडीए की पहली वाजपेयी सरकार का भी कटु आलोचक रहा है। बीएमएस के अध्यक्ष साजी नारायणन ने अर्थव्यवस्था, मंदी, श्रम कानूनों जैसे मुद्दों पर हरवीर सिंह के साथ अपनी राय साझा की। मुख्य अंशः

“अब्दुल्लाओं को पता है क्या होने वाला है”

अनुच्छेद 370 और 35ए हटाए जाने के बाद मौजूदा नाकेबंदी के दौर में कश्मीरियों ने अपनी नाराजगी पूरी गरिमा के साथ जाहिर की

विरोध करने का हक नहीं तो लोकतंत्र बेमानी

जम्मू-कश्मीर में लोगों की अभिव्यक्ति पर पहरा बिठा देने के खिलाफ व्यवस्था के भीतर से उठी इसे इकलौती आवाज कह सकते हैं। दादर नगर हवेली में कार्यरत दानिक्स काडर के 2012 बैच के आइएएस अधिकारी कन्नन गोपीनाथन ने कश्मीर के हालात पर घुटन महसूस करने की वजह से 21 अगस्त को आइएएस की नौकरी से इस्तीफा देकर नई सुर्खियां हासिल कर लीं। इसके पहले अपने गृह प्रदेश केरल में बाढ़ पीड़ितों की मदद करने के अपने निजी प्रयास से भी वे सुर्खियों में आ चुके हैं। तो, कन्नन के मौजूदा फैसले की वजह, काम के दौरान उन्हें किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा और आगे वे क्या रास्ता अपनाएंगे, इन सब मुद्दों पर एसोसिएट एडिटर प्रशांत श्रीवास्तव ने उनसे विस्तृत बातचीत की। प्रमुख अंशः

हॉकी के आदिवासी नुमाइंदे

यह पुस्तक ओडिशा के गांवों में हॉकी के पनपने और वहां इस खेल के लिए मौजूद जुनून को बताती है

कविता की चुनौती

आज बाजार के बढ़ते प्रभाव ने ऐसी दुनिया को रचा है, जिसकी चकाचौंध ने कविता में आई मां को अकेला कर दिया है

लोकतंत्र में अन्य की उपस्थिति

वह विश्वविद्यालय प्रोफेसर थापर से बायोडेटा मांग रहा है, जिसकी नींव रखने वालों में वह शामिल थीं

जो छूटे परेशान समर्थक हैरान

अंतिम सूची से भाजपा के दावे की पोल खुली, तो वैकल्पिक विधायी उपायों की बात करने लगी

अभी लंबा सफर बाकी

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के एक साल बाद भी एलजीबीटी समुदाय की स्वीकार्यता नहीं

दिन भर सिर्फ वही

महेंद्र सिंह धोनी एक मोबाइल ब्रांड लावा का महिमा मंडन करते हैं

मीठी नहीं यह चाशनी

चीनी निर्यात पर पैकेज, किसानों के नाम पर उद्योग की मदद के इस उदाहरण में सरकार की प्राथमिकता साफ दिखती है

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