Advertisement
मैगज़ीन डिटेल

हमारे समय और समाज में तेजी से पसरता अंधेरा

लोकतंत्र इस समय एक डरी हुई व्यवस्‍था है जिसमें निडर कम हैं और उनकी आवाज लोकतांत्रिक पद्धतियों का दुरुपयोग कर दबाई जा रही

आज की कसौटियां

यह वार्षिक विशेषांक कुछ नया सोचने को मजबूर करेगा। प्रतिष्ठित साहित्यकारों के आलेख और कविताएं राष्ट्र और समाज निर्माण के लिए पाठकों के जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करेंगी, जो आज के समय की महती जरूरत है

इस अकाल वेला में

साहित्य, संस्कृति, समाज और राजनीति के समक्ष आज की चुनौतियां

लोग सब देख रहे हैं

मौजूदा दौर में जो कुछ चल रहा है, वह न देश और समाज के हित में, न आजादी की प्रतिश्रुतियों के मुताबिक

आज की चुनौतियां

भारत में पूंजीवाद-सामंतवाद, वर्णाश्रम व्यवस्‍था, सांप्रदायिक संकीर्णता - सब अनियंत्रित हो रहे

विनोद कुमार शुक्ल की कविताएं

आज की सामाजिक, साहित्यिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक चुनौतियों पर वरिष्ठ कवि की ये टिप्पणियां

है कोई कवि एथे ?

एक इकबालिआ बयान से अपनी बात शुरू करना चाहता हूं, जो एक गजल का हिस्सा है। कुछ ऐसे हैं कि

कुछ चुनौतियां

नागरिकता-विहीन बोध की पराकाष्‍ठा के इस दौर में समाज, साहित्य, राजनीति सब सवालों के घेरे में

राजनीति का उत्तर राजनीति नहीं है

हिंसा, नफरत, विभाजन का माहौल जैसा आज है, वैसा पहले कभी नहीं देखा गया

हम कौन थे, क्या हो गए हैं ?

अब बाहर जो दिखता है, वह भीतर नहीं है, बाहर ‘एकता’ है और भीतर ‘सांप्रदायिकता’

सहज संभाव्य साहित्य?

इतिहास में ऐसे क्षण आते हैं जब राजनीति द्वारा नष्‍ट किए जा रहे जीवन-मूल्यों को बचाने का दायित्व लेखकों को उठाना पड़ता है

संस्कृति, समाज, राजनीति, अपराध

जो पच्चीसेक साल पहले असंभव लगता था, अब सामान्य सच्चाई है, आज के समय पर कुछ विचार

कट्टर ब्राह्मणवादी सोच सबसे बड़ी चुनौती

हर परिवर्तनकारी साहित्य और शिक्षा केंद्रों पर भाजपा-संघ का हमला समतामूलक परंपराओं से ही थमेगा

देश की जनता गूंगी-बहरी नहीं

डर, नफरत, अविश्वास का ऐसा माहौल कभी नहीं दिखा, पत्रकार-लेखक तक सहमे से हैं

छोटे-छोटे फासिस्ट

साहित्यिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक क्रांतियों के बीच डिजिटल क्रांति ने दरअसल हमें सिर्फ फासिस्ट होना सिखाया

कस्तूरबा के बिना क्या गांधी की कल्पना संभव है?

बा की भी 150वीं जयंती लेकिन पितृसत्तात्मक सोच का नतीजा कि महानायिकाओं की चर्चा तक गायब

गांधी की ‘छवि’ बदलने की ये कोशिशें

जो राष्ट्रीय आंदोलन में ही नहीं, (देश) विभाजन में क्या भूमिका निभा रहे थे उसे भुलाकर गांधी को विभाजन, से लेकर हर समस्या ही नहीं, मुल्क के स्वभाव से ‘मर्दानगी’ गायब करने वाला बताने की मुहिम चला रहे हैं

वोटरों की चुप्पी हावी, मुद्दे गायब

वादों और दावों के बीच उलझी त्रिकोणीय लड़ाई में मतदाताओं की चुप्पी से बढ़ी राजनीतिक तपिश, लगातार बदल रहे चुनावी समीकरण

“पिछली बार से ज्यादा सफलता मिलेगी”

जोगी कांग्रेस तीसरी शक्ति है और वोटों के बंटवारे का लाभ भाजपा को मिलेगा

किधर दिखेगा जाटों का जलवा

कभी राज्य की राजनीति में खासा असर रखने वाले जाट समुदाय पर इस बार कांग्रेस-भाजपा दोनों की नजर, बेनीवाल ने बनाया तीसरा मोर्चा

तेज पिचों पर दम दिखाओ तो जानें

सही मायनों में विश्व चैंपियन बनने के लिए हर परिस्थिति में जीत जरूरी, ऑस्ट्रेलिया में होगी भारतीय बल्लेबाजों की असल परीक्षा

स्मॉग से मरिए हंसते-हंसते

दिल्ली में पब्लिक खांसती जाती है, बहस देखती जाती है, बहस देखकर हंसती है, रोती है, फिर खांसकर सो जाती है

स्वायत्तता, साख, संकट और सरकार के मंसूबे

वित्त मंत्रालय और आरबीआइ की तकरार ने फिर उठाए सरकार के स्टाइल पर सवाल

झुककर ‘हां जी’ कहना नहीं सीखा!

दिल्ली में लोगों को मेरी संगठन यात्रा के बारे में पता नहीं, संगठन ने मुझे जिस ढांचे में ढाला, उसमें तुलसी की तरह भाषण देने की न तो मुझसे अपेक्षा थी और न मैं करती थी

नाम बदलने की राजनीति

विकास के जरिए देश का चेहरा बदलने में नाकाम हिंदुत्ववादी पार्टी केवल नाम ही बदल सकती है

Advertisement
Advertisement
Advertisement