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झुककर ‘हां जी’ कहना नहीं सीखा!

“दिल्ली में लोगों को मेरी संगठन यात्रा के बारे में पता नहीं, संगठन ने मुझे जिस ढांचे में ढाला, उसमें...
झुककर ‘हां जी’ कहना नहीं सीखा!

“दिल्ली में लोगों को मेरी संगठन यात्रा के बारे में पता नहीं, संगठन ने मुझे जिस ढांचे में ढाला, उसमें तुलसी की तरह भाषण देने की न तो मुझसे अपेक्षा थी और न मैं करती थी”
 

क्योंकि सास भी कभी बहू थी सीरियल से घर-घर पहुंची तुलसी राष्ट्रीय राजनीति के स्मृति पटल पर छाप छोड़ चुकी है। जितनी जल्दी वे छोटे पर्दे से राजनीति के शिखर तक पहुंचीं, उससे भी कम वक्त उन्हें मोदी सरकार की सबसे चर्चित मंत्री बनने में लगा। मानव संसाधन विकास मंत्रालय से लेकर सूचना-प्रसारण और अब कपड़ा मंत्रालय तक जहां भी वे गईं, जो भी किया, जो भी कहा, सब सुर्खियां बटोरता गया। मोदी सरकार में उनका रुतबा, बेधड़क फैसले लेने का माद्दा और बेबाक बोल उन्हें भाजपा की अनूठी नेता बनाते हैं। अभिनय से लेकर राजनीति तक के सफर पर आउटलुक के संपादक हरवीर सिंह ने केंद्रीय कपड़ा मंत्री स्मृति ईरानी से विस्तार से बातचीत की। मुख्य अंश:

दिल्ली की एक सामान्य पंजाबी-बंगाली परिवार की लड़की मिस इंडिया कॉन्टेस्ट से होते हुए एक्टिंग और फिर राजनीति में पहुंच गई। आपने खुद को कैसे ग्रो किया है?

जब जिंदगी में जद्दोजहद होती है, संघर्ष होता है, तब ग्रोथ और ट्रेजेक्टरी जैसे सुहाने शब्द जीवन का हिस्सा नहीं होते हैं। उस समय आप सिर्फ जिंदगी जीते हैं। जीवन थोड़ा-बहुत सरल होने के बाद ये चीजें जुड़ती हैं। मैं अपने जीवन को दो-तीन छंदों और दो-तीन व्यक्तियों में देखती हूं। मेरे नाना पहले व्यक्ति रहे जिन्होंने भरोसा जताया कि मैं कुछ कर सकती हूं। कुछ करने का विश्वास उन्हीं से आया। मैं जिसे कॉन्फिडेंस कहती हूं, उसे कुछ हिमाकत कहते थे। नाना ने मुझे संस्कार रूपी 'हां जी' कहना सिखाया, लेकिन संघर्ष के सामने, भविष्य के सामने सिर झुकाकर 'हां जी' कहना नहीं, बल्कि उसे चुनौती देना सिखाया।

क्या दिल्ली से मुंबई जाना आपके जीवन का टिपिंग प्वाइंट था?

मेरी मां ने कुछ साल ताज मानसिंह के हाउसकीपिंग में काम किया था। जब वे काम से लौटतीं तो हम सुनते थे कि कौन-कौन-सी बड़ी हस्तियां पांच सितारा होटल में आई हैं। जब उनकी नाइट ड्यूटी होती तो शेफ चिकन सैंडविच भेज देता था, क्योंकि उसे पता होता था कि बच्चियां सुबह-सुबह स्कूल जाएंगी। टिपिंग प्वाइंट शायद ये था कि मैंने एक दिन मां से कहा कि इतनी बड़ी बनूंगी कि शेफ का दिया सैंडविच नहीं खाऊंगी। ताज में खरीदकर खाऊंगी। और मैंने ऐसा किया भी। संयोग है कि सांसद बनने के बाद मुझे जो पहला घर मिला वो ताज के अपोजिट था। मैं आरके पुरम में अपने नाना के लिटिल फ्लावर्स स्कूल में पढ़ती थी। उस स्कूल से एक बड़े कॉन्वेंट स्कूल का ढांचा दिखता था। शायद यह दूसरा टिपिंग प्वाइंट था। मुझे उसी वक्त पता था कि यह टेंट वाला स्कूल उतने महत्व का नहीं है जितना वो बड़ा स्कूल। मैंने परीक्षा पास की और टेंट वाले स्कूल से सामने वाले पक्के स्कूल होली चाइल्ड एक्जेलियम में गई।

जब मैं वहां छठी या सातवीं कक्षा में थी, उसी समय स्कूल में पायलट पेन आया था। उसकी कीमत 290 रुपये थी। जिस लड़की के पास वो पेन था, उससे मैंने देखने के लिए मांगा और लौटा दिया। अगले दिन उसने कहा कि स्मृति मल्होत्रा ने मेरा पेन तोड़ दिया है और मुझसे 290 रुपये मांगे। घर में मां से पैसे नहीं मांग सकती थी तो क्लासरूम में जलील किया गया। उस समय यह बात समझ आई कि क्लास रूम में आप भले संघर्ष और स्कॉलरशिप से पहुंच जाओ, लेकिन औकात तब तक नहीं बनती जब तक आप ऐसा पेन नहीं खरीद पाओ। जब बारहवीं में पहुंची तो सारे बच्चे जो भी बनना चाहते थे, बस मां-बाप की वजह से बनना चाहते थे। मैंने तय किया कि ऐसे शहर में जाऊंगी जहां कोई जान-पहचान न हो। मुंबई ऐसी जगह थी जहां कोई मेरे माता-पिता को नहीं जानता था। जहां मैं अपना मुकाम बना सकती थी।

तुलसी के किरदार ने आपको पूरे देश में पहचान दिलाई। यह रोल आपको मिला कैसे?

मिस इंडिया बनने के बाद मेरे पास पैसे नहीं थे तो मैं हर दिन कहीं न कहीं ऑडिशन में जाती थी। एक बार मुझे फोन आया कि एक एक्टर बीमार हो गया है, तीन घंटे में शूट शुरू करनी है, आ जाओ। प्रोड्यूसर थीं नीरजा गुलेरी। मैंने जब स्क्रिप्ट पढ़ी तो उन्होंने कहा कि तुम्हारी हिंदी तो बिल्कुल साफ है। उन्होंने काम दे दिया। लेकिन वहां 12 घंटे की शिफ्ट थी। मैंने बताया कि मैं मैकडॉनल्ड में काम करती हूं। सात बजे मेरी शिफ्ट खत्म होती है। उन्होंने कहा कि साढ़े सात-आठ बजे तक आ जाओ।

जब वह एपीसोड प्रसारित हुआ तो शोभा कपूर ने देखा। नॉर्मली प्रोड्यूसर एक-दूसरे से बात करते हैं कि ये एक्टर कैसा है। सबने उन्हें बताया कि जल्दी-जल्दी काम खत्म करती है और पैसे भी ज्यादा नहीं लेती। फिर शोभा कपूर ने अपनी बेटी एकता कपूर से मिलने को कहा। एकता ने मुझे हम पांच के ऑडिशन के लिए बुलाया। उसने कहा कि यू डू नॉट सूट दिस। फिर दोबारा तब बुलाया जब पिताजी दिल्ली लौट आने को कह चुके थे। मैं वहां पहुंची तो मुझे बताया कि आपको कोई गलतफहमी हो गई है। मोनीषा नाम की कास्टिंग डायरेक्टर ने मेरा ऑडिशन लेने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा, ‘‘एकता वाज रॉन्ग, यू आर नॉट दैट गर्ल।’’ मुझे घर एक मंदिर नाम के दूसरे शो के करैक्टर आर्टिस्ट के रोल के लिए साइन करवा लिया। तभी एकता आईं और कहा कि मैंने कहा था न ये लड़की तुलसी है। उन्होंने वह कांट्रेक्ट फाड़ दिया और नए कांट्रैक्ट पर साइन कराया। 

एकता कपूर ने हाल ही में आउटलुक के एक कार्यक्रम में बताया था कि आपने उनसे कहा कि मुझे जीवन में कुछ करना है। क्या उस वक्त राजनीति में आने का सोच रही थीं?

राजनीति से मैं 2003 से ही जुड़ी थी। मुझे लगता है कि एकता को पहली बार इसका एहसास तब हुआ जब मैं गिरफ्तार हुई। मैं कभी अपनी पॉलिटिकल बातें मीडिया में शेयर नहीं करती थी। पार्टी में लोगों से मिलना कम ही होता था। 2006 की बात है। शूटिंग के बीच चार-पांच घंटे का अंतराल था तो मैं धरने पर चली गई। वहां गिरफ्तार होने के बाद मैंने फोन कर बताया कि कहीं फंसी हुई हूं। उन्होंने पूछा, कहां हो तो मैंने कहा, जेल में! इसके बाद एकता ने फोन किया कि पॉलिटिक्स में क्या करना है तुमको। तब मैंने उनसे ये बात कही। मैं संगठन में काफी काम कर चुकी थी। जब राष्ट्रीय जिम्मेदारी मिली तो उसे अहसास हुआ कि मैं सीरियस पॉलिटिकल एक्टिविस्ट हूं।

 

क्या तुलसी के किरदार की वजह से आपका रुझान राजनीति की तरफ बढ़ा क्योंकि उसमें भी एक सामाजिक बदलाव का संदेश था?

मैंने दोनों की कभी तुलना नहीं की। जान-बूझकर दोनों को अलग रखा है। मैं पहले दिन से ही स्पष्ट थी। मेरी पार्टी ने भी मुझसे डॉयलॉग बोलने की अपेक्षा कभी नहीं की। पार्टी के लोगों ने मुझसे पूछा कि मैं क्या काम करना चाहूंगी। मैंने कहा कि मुझे संगठन का काम सीखना है। संगठन भी मुझे उसी ढांचे में ढालता गया। किसी भी मंच पर तुलसी की तरह भाषण देने की न तो मुझसे अपेक्षा थी और न मैं करती थी। 

अमूमन पॉलिटिक्स में जो सेलिब्रिटी आते हैं उनका मकसद भीड़ खींचना होता है। इस चुनौती से कैसे निपटीं आप?

मेरे साथ ऐसा नहीं था। मुंडे जी, प्रमोद महाजन जी, बाल आप्टे जी वगैरह मुझे गाइड करते थे। एक बार पुरानी दिल्ली में एक भाषण देना था। मैं नोट करके लाई थी, क्या बोलना है। मंच पर गई तो सिद्धार्थनाथ सिंह जी ने वह कागज मुझसे लेकर फाड़ दिया और कहा अब बोलो। उन्होंने कहा कि कागज पढ़ने वाला नेता नहीं बनना है, जानकारी और दिल से बोलने वाला नेता बनना है। उन्होंने उस दिन कागज नहीं फाड़ा होता तो शायद मैं आज भी कागज देखकर बोल रही होती। इस कारण काफी अध्ययन किया।

मुझे याद है कि 2003 में महाराष्ट्र के केलवे नामक इलाके में गई थी। वहां के मछुआरे परिवार नाराज थे। अटल जी ने रात के दस बजे बात कर मुझसे फीडबैक लिया। देश का प्रधानमंत्री भी आपको समय दे, एक गांव के बारे में आपसे चर्चा करे और बोले कि संगठन में ये-ये ठीक है और ये-ये ठीक नहीं है, तो आपकी तैयारी अलग होती है। उस समय की ये बातें मेरे साथ काम करने वालों को भी पता नहीं थीं। उन्हें पहली बार पता तब चला जब क्योंकि.....के सेट पर अटल जी का फोन आया। दूसरी बार लोगों को तब एहसास हुआ जब कल्याण सिंह जी मुंबई में मुझसे मिलने सेट पर आए। मैंने अपने राजनीति के करिअर और एक्टिंग के करिअर में इतना डिस्टेंस रखा था कि दोनों कभी मिले नहीं। दिल्ली में लोगों को मेरी संगठन यात्रा का पता नहीं है।

आप पार्टी उपाध्यक्ष बनीं और राज्यसभा में भी पहुंचींआपके लगातार आगे बढ़ने की वजह क्या रही?

नितिन गडकरी जब महाराष्ट्र में पार्टी के अध्यक्ष थे तो मैं मंत्री बनी। राष्ट्रीय कार्यकारिणी में पांच-छह बार रही। राजनाथ सिंह अध्यक्ष थे तब राष्ट्रीय मंत्री बनी। फिर नितिन जी जब अध्यक्ष बने तो पहले मंत्री बनाया। मुझे लगता है कि बाल आप्टे और अन्य लोगों से चर्चा के बाद मुझे महिला मोर्चा का अध्यक्ष बनाया गया। मैंने इन दो जगहों पर बहुत सीखा।

जब आप गुजरात से राज्यसभा पहुंचीं तब नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री थे। यह अनुभव कैसा रहा?

जब राज्यसभा भेजे जाने की खबर मिली, उस वक्त हरिद्वार में महिला मोर्चा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी चल रही थी। मेरे लिए बहुत बड़ा पड़ाव था जीवन का। उसी वक्त अभिनय छोड़कर पूरा का पूरा समय पार्लियामेंट्री ड्यूटी और संगठन को देने के निर्णय की प्रक्रिया की शुरुआत भी हुई। 2011-12 की बात है। राजनाथ जी महिला मोर्चा के कार्यक्रम में आए थे। उन्होंने मुस्कराते हुए कहा कि जीवन बदलने वाला है। मेरे जीवन का सबसे बड़ा पल वह था जब मैं राज्यसभा के लिए नामांकन दाखिल करने पहुंची। जब मुझे पता चला कि नरेंद्र मोदी मेरे नंबर वन प्रस्तावक हैं तो मेरी आंखें भर आईं। उस पूरे आधे घंटे की अवधि में मैं बिल्कुल सुन्न थी। इसके बाद गांधीनगर से अहमदाबाद के बीच गाड़ी में मैं और जुबिन स्तब्ध बैठे थे। जैसे ही सर्किट हाउस पहुंची 15 मिनट बाद किसी ने दरवाजा खटखटाया। बताया कि सीएम ऑफिस से आए हैं, आपको ये किताबें पढ़नी हैं। राज्यसभा में आपका स्वागत है।

वे किताबें गुजरात से संबंधित थीं?

गुजरात के इश्यूज से संबंधित थीं। संसद में कैसे गुजरात के मुद्दों को उठाना है, उससे जुड़ी थीं। एक मुख्यमंत्री की अपने सहयोगियों के लिए इस तरह की तैयारी दिखाती है कि सहज रूप से किसी को राज्यसभा की जिम्मेदारी नहीं दी गई। एक अपेक्षा के साथ दी गई। अध्ययन का जो मेरा सफर महाराष्ट्र से शुरू हुआ, वह सांसद बनने के बाद भी जारी रहा।

मोदी आपके प्रस्तावक बने। क्या पहले से ही गुजरात को लेकर उनसे जुड़ाव था?

ऐसा नहीं था कि कुछ अचानक हुआ। मैंने गुजरात में काम किया था। प्रचार की दृष्टि से भी मेरा वहां बहुत काम रहा। यही कारण है कि राज्यसभा में अपने काम को आज मैं गर्व के साथ प्रेषित कर सकती हूं। इससे मैंने बहुत कुछ सीखा।

संगठनपरिवार और अभिनय इन तीनों के बीच तालमेल कैसे बैठाया?

2003 में राजस्थान का चुनाव हो रहा था और मेरी बेटी दो महीने की थी। उस समय सौ लोगों की एक टोली गई राजस्थान, उसमें मैं भी एक थी। प्रमोद जी ने मुझसे कहा कि स्मृति कैसे करोगी, जोई तो बहुत छोटी है और शूटिंग भी चल रही है। मैंने कहा, ऐसी कोई व्यवस्था कर दी जाए कि मैं रोज सुबह-शाम अप-डाउन कर सकूं। सुबह छह बजे जोई को दूध पिलाकर तकरीबन साढ़े सात बजे फ्लाइट पकड़ कर राजस्थान जाती थी। दिनभर प्रचार कर शाम को लगभग छह बजे लौटती और फिर शूटिंग पर चली जाती। सिर्फ प्लेन की राइड के दौरान सोती थी। मैंने 22 दिन तक ऐसा किया।

मुझे याद है कि एक बार एकता सेट पर यह देखने आई थी कि कहीं खड़ी होने के लिए मैं दवाई तो नहीं ले रही। लेकिन, उस वक्त एक माहौल था कि वसुंधरा राजे को जिताना है। हम जब कहते हैं कि पार्टी परिवार है तो इसका यही मतलब है। आज भी मैं महाराष्ट्र, गुजरात में अपनी टीम के लोगों के लगातार संपर्क में रहती हूं।

आप नरेंद्र मोदी टीम की अहम सदस्य किस तरह बनीं?

इस संगठन में जिस-जिस को ये भ्रम है, उसे अपना ये भ्रम तोड़ देना चाहिए। नरेंद्र भाई ने कभी भी संगठन में अपना सर्कल बनाने का नियम नहीं रखा। उनके लिए हर बात, हर व्यक्ति महत्व का है। इसलिए वे यहां तक पहुंचे। जैसे पंजाब के तरुण चुग जामनगर संभालते थे और मैं गुजरात में काम करती थी। आज भी तरुण चुग का उतना ही सम्मान है। मुझे लगता है कि नरेंद्र मोदी की खासियत यह है कि उनकी नजर में कोई ज्यादा और कोई कम इंर्पोटेंट नहीं है। हालांकि, दिल्ली में यह भ्रम था।

 

मोदी सरकार में बड़ी जिम्मेदारी मिलने की उम्मीद थी?

2014 हम सबके लिए इंर्पोटेंट था। हम सबको पता था कि हमारे पास विनिंग कैंडिडेट है। मुझे अपने बारे में खुशफहमियां नहीं हैं। 2014 का चुनाव समाप्त होने के बाद ही मैंने एक्टिंग शुरू कर दी थी। ऋषि कपूर, अभिषेक बच्चन और असिन के साथ एक फिल्म कर रही थी। हम लोग शिमला में शूटिंग कर रहे थे कि अचानक फोन आया नरेंद्र भाई का। पूछा, क्या कर रही हो। मैंने कहा, साहब काम कर रही हूं, कल आ जाऊंगी शपथ देखने के लिए तो कहा, देखने नहीं, लेने आना है। सब कुछ निबटाकर पति और बच्चों के साथ दिल्ली पहुंची। अमेठी में एक कार्यकर्ता की पत्नी ने साड़ी गिफ्ट की थी। वही पहन ली। रास्ते में पीयूष गोयल से फोन कर पास के लिए पूछा। मैंने कहा, पीयूष भाई सुना है कि एमओएस के लिए दो ही पास होते हैं। जुबिन के साथ-साथ मुझे बिटिया को भी लाना है। एक एक्स्ट्रा पास मिलेगा? उन्होंने कहा कि तुम्हें किसने कहा कि तुम एमओएस हो, तुम्‍हारा कैबिनेट है। 

मानव संसाधन विकास मंत्रालय जैसा महत्वपूर्ण महकमा मिलने की उम्मीद थी?

मैं तो एमओएस की उम्मीद भी नहीं कर रही थी। मैं जानती थी कि कठिन परिस्थितियों में कड़े फैसले लेने के लिए मुझे दायित्व दिया गया है, पॉपुलारिटी कॉन्टेस्ट जीतने के लिए नहीं। एकेडेमिक्स एडमिनिस्ट्रेशन में अंदर से देखा तो चुनौतियां इतनी थीं कि कड़े निर्णय न लिए जाएं तो मैं राष्ट्र के साथ अन्याय करती। मसलन, जब मंत्री बनी तो पता चला कि दिल्ली यूनिवर्सिटी में चार लाख स्टूडेंट ऐसे कोर्सेस कर रहे हैं जिनकी कोई वैधता नहीं है। मैंने कहा, चार साल बाद जब ये बच्चे सड़क पर निकलेंगे और किसी ने कह दिया कि डिग्री फर्जी है तो चार लाख लोगों का भविष्य बर्बाद हो जाएगा, मैं यह बर्दाश्त नहीं कर सकती। उसके लिए प्रेस में दो-चार गालियां खा लूगीं, चलेगा। लेकिन ये बहुत अहम निर्णय था जो मैंने उन बच्चों के भविष्य के लिए लिया।

वह चार साल का अंडग्रेजुएट कोर्स था?

जी, उसको प्रेसिडेंशियल एसेंट नहीं था। प्रेसिडेंशियल एसेंट न होने का मतलब है कि उस डिग्री की वैल्यू ही नहीं थी। वह कोरा कागज थी।

खुद आपकी शिक्षा को लेकर भी बड़ा विवाद हुआ? 

जब भी लोग कंट्रोवर्सीज करते हैं, मैं एक-एक शब्द पढ़ती हूं कि कौन क्या कहता है। कौन हीनभावना का प्रवाह कराना चाहता है आपमें, कौन मजाक उड़ाता है। मुझे लगता है कि ये सारी चीजें जीवन में आपके कैरेक्टर को टेस्ट करने के मौके देती हैं। मेरे नाना जी कहते थे कि कौन कितना पढ़ा-लिखा है यह आपके प्रति उसके बर्ताव से पता चलता है। अगर बड़े ज्ञानी पंडित होकर भी लोगों में हीनभावना भरें तो फिर उस ज्ञान का कोई मोल नहीं है। आपका आचरण आपके ज्ञान को परिभाषित करता है।

एचआरडी में आपके कई फैसले विवाद का विषय बने?

एक निर्णय संस्कृत और जर्मन का था। पिछली सरकार ने जर्मनी के साथ एक समझौता किया कि जर्मन हिंदुस्तान की तीसरी भाषा है। मैंने कहा, यह गलत है। जर्मन को विदेशी भाषा लिखो। उन्होंने कहा, नहीं, हिंदुस्तान की ही भाषा लिखेंगे। मैंने कहा कि यह संभव नहीं है। यह संवैधानिक नहीं है। फिर उन्होंने कहा, जितने टीचर आपके यहां लैंग्वेज पढ़ाते हैं, उनको हटाकर जर्मन टीचर रखें। हिंदुस्तानियों से उनकी भाषा छुड़वाकर या उनको नौकरी से हटाकर जर्मन बोलने वाले लोगों को सरकार के खर्च पर रखना कहां का न्याय है। मैंने कहा कि मैं सिर्फ यह साइन करूंगी कि जर्मन फॉरेन भाषा के रूप में पढ़ाई जाएगी। कुछ लोगों ने हुड़दंग मचाया। लेकिन, सुप्रीम कोर्ट ने भी मेरे मत से सहमति जताई।

उस वक्त लुटियन दिल्ली के लिए मैं नई थी तो जिसकी इच्छा थी, उसने मेरी बात को तोड़ने-मरोड़ने की कोशिश की। मैंने उस वक्त पूरा ध्यान इस पर रखा कि मैं प्रशासनिक ढांचे में जो बदलाव कर रही हूं, उस पर केंद्रित रहूं। मैंने कंट्रोवर्सी पर ध्यान दिया होता तो जो काम किए, वो संभव नहीं होते। एजुकेशन पॉलिसी का पहला ड्राफ्ट मेरे वक्त आया। पहली बार सारी बुक्स ऑनलाइन फ्री हुईं। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में जो पहली बार रैंकिंग हो रही है वह मेरे वक्त में आई। नेशनल टेस्टिंग सर्वे की जो बात हो रही है, वह मेरे वक्त में बनी है। पहली बार आइआइटी काउंसिल की महिला प्रमुख टेसी थॉमस मेरे वक्त में बनीं।

आपके समय हैदराबाद यूनिवर्सिटी को लेकर भी बड़ी कंट्रोवर्सी हुई।

एक कमेटी का फैसला सबसे बड़ा प्रमाण है कि मैंने जो कहा वो सही था या गलत। संसद में मैंने जो कहा, वह पूरे राष्ट्र ने सुना और स्वीकार भी किया। मैं जब एचआरडी मंत्री थी तब जेएनयू का विषय भी उभरकर सामने आया। राष्ट्र ने कहा कि हिंदुस्तान के टुकड़े होंगे, यह नारेबाजी हमें स्वीकार नहीं है। कई ऐसी चीजें हैं जो मेरे जाने के बाद भी लोग कहते हैं वो तो सही था। मसलन, मैंने जब फेक न्यूज पर बात की तब शायद कुछ लोगों ने ही कहा फेक न्यूज प्रॉब्लम है। अब जब मैं सूचना-प्रसारण मंत्री नहीं हूं तो सभी ने स्वीकार कर लिया कि फेक न्यूज प्रॉब्लम है। दिक्कत शायद ये है कि पहले बोलने की हिम्मत किसमें है।

आपके कार्यकाल में सूचना-प्रसारण मंत्रालय भी कई वजहों से चर्चाओं में रहा।

मैंने पहली बार किसी जर्नलिस्ट की आकस्मिक मृत्यु पर राशि बढ़ाने का काम किया। पहले जनरली पॉलिटिकल नेता तय करते थे कि कंपन्सेशन कैसे तय होगा। मैंने नेता, मंत्री सब हटा दिए। कहा, अब जर्नलिस्ट खुद निर्णय करें। कैमरा पर्सनंस को भी इसके दायरे में लाया। एडमिनिस्ट्रेटिवली मेरा इतिहास रहा है कि साफ-सफाई बहुत की है। जब परिवर्तन होता है तो उसके साथ चीखें, आवाजें उठती हैं। हमको यथास्थिति बरकरार रखने के लिए तो जनता सत्ता में लेकर नहीं आई है।

अब टेक्सटाइल मिनिस्ट्री में क्या-क्या बदलाव किए हैं?   

टेक्सटाइल का सबसे बड़ा टेस्ट आया था जब जीएसटी लागू हुआ। यह ऐसा सेक्टर है जो अस्सी फीसदी एमएसएमई है। बड़ा हिस्सा अनऑर्गेनाइज्ड है। ऐसे सेक्टर को स्ट्रक्चर्ड डिसीप्लीन में लाने पर लोगों की अपेक्षा रही होगी कि बहुत सारे झगड़े होंगे, आंदोलन होंगे, जो हुए नहीं। यह दर्शाता है कि सरकार ने इंडस्ट्री और श्रमिकों के साथ समन्वय रखा। पहली बार कई बीमार इकाइयों को बंद करने का निर्णय हुआ। फार्म टू फैशन का पूरा खाका तैयार हुआ।

आप 2019 में अमेठी से लड़ेंगी?

इसका जवाब सिर्फ अमित शाह दे सकते हैं।  

राजनीति के ग्राफ में अब स्मृति ईरानी खुद को कहां पाती हैं?

मैं खुद को पॉलिटिक्स की दृष्टि से नहीं देखती हूं। पॉलिटिक्स मेरे जीवन का हिस्सा है, पूरा जीवन नहीं है। आप अगर स्मृति ईरानी को तौलना चाहें, ग्राफ या इंडेक्स में बिठाना चाहें तो कई पैमाने हैं। मां का, पत्नी का, बहन का और भी बहुत सारा। इंसान अपने साथ सबसे बड़ा अन्याय तब करता है जब खुद को एक ही दायरे में सीमित कर तौलने लगता है।  

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