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रिया पर हुई रिपोर्टिंग दिखाती है कि पितृसत्ता को बनाए रखने में महिलाएँ सबसे आगे हैं: निधि राजदान

नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (एनसीबी) द्वारा अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती की गिरफ्तारी के बाद इस पूरे...
रिया पर हुई रिपोर्टिंग दिखाती है कि पितृसत्ता को बनाए रखने में महिलाएँ सबसे आगे हैं: निधि राजदान

नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (एनसीबी) द्वारा अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती की गिरफ्तारी के बाद इस पूरे प्रक्रम में मीडिया के शामिल होने को लेकर एक जोरदार बहस छिड़ गई है। विशेषकर इस बात को लेकर कि कैसे कुछ टीवी समाचार चैनल मनगढ़ंत कहानियों का सहारा ले सकते हैं। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में पत्रकारिता विभाग की एसोसिएट प्रोफेसर और एनडीटीवी की पूर्व कार्यकारी संपादक निधि राजदान ने आउटलुक से टीवी पत्रकारिता के छू रहे “निचले स्तर” को लेकर बातचीत की।

रिया चक्रवर्ती के टी-शर्ट पर 'पितृसत्ता को तोड़ने' के संदेश से एक बहस छिड़ गई है। इसमें सबसे खास बात ये है कि टीवी न्यूज चैनलों में कुछ महिला संपादकों ने अपने स्टूडियो में रिया को दोषी ठहराने और इसकी घोषणा करने में प्रमुख भूमिका निभाई है।- जिसे 'कंगारू कोर्ट' कहा जा रहा है। क्यों संपादकीय भूमिकाओं में बैठी महिलाएँ भी पितृसत्तात्मक बहसों पर पीछे हटती हैं?

मेरी राय में, अन्य महिलाओं के बारे में पितृसत्तात्मक धारणाओं को बनाए रखने में महिलाएँ हीं सबसे आगे हैं। जिस तरह से रिया मामले को कवर किया गया है, उसे बढ़ाया गया है। महिलाएं महिलाओं की सबसे बड़ी दुश्मन हैं। इस मामले में ये बहुत अधिक देखा गया है। उन्होंने इस बात को साबित करना चाहा कि सुशांत सिंह की जिंदगी में जो कुछ भी गलत हुआ, उसके लिए रिया दोषी है। वे वास्तव में मानते हैं कि एक महिला एक पुरुष के दिमाग को नियंत्रित करती है और वो उसके व्यवहार के लिए जिम्मेदार है। यह भारतीय परिवार की एक विशिष्ट मानसिकता है। रिया के खिलाफ नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (एनसीबी) द्वारा लगाए गए चार्ज में यदि आज सुशांत सिंह राजपूत जीवित होते, तो ड्रग्स लेने के आरोप में वो भी जेल जाते।

टेलीविजन पर पुरूष वर्चस्व का स्तर इतना अधिक है कि सोशल मीडिया पर कई पत्रकारों की तुलना 'गिद्धों' से की जा रही हैं। महिला संपादकों में से एक ने अपने कार्यक्रम में कहा कि वो गिद्ध कहलाने में कोई अपराध नहीं मानती हैं।

यह वो वैकल्पिक ब्रह्मांड है जिसमें हम रहते हैं। कोई इसके बारे में क्या कह सकता है?

क्या आपने इसे अलग तरीके से रिपोर्ट किया है?

यह एक खबर है और दुर्भाग्य से इसने अब राजनीतिक रूप धारण कर लिया है। मैंने इसे 24/7 ऑक्सीजन नहीं दी है। वास्तव में, अखबार इस मामले में रिपोर्टिंग को लेकर बहुत बेहतर हैं। उन्होंने बड़ी मुश्किल से इस खबर को फ्रंट पेज पर जगह दी है। चीन और भारतीय अर्थव्यवस्था को अखबारों में कहीं अधिक प्रमुखता मिल रही है। टीवी चैनलों के साथ यही समस्या है। उन्होंने इसे मीडिया ट्रायल में शामिल कर लिया है। निश्चित तौर पर, मैंने ऐसा नहीं किया है।

हमने आरुषि तलवार मामले में भी इसी तरह के मीडिया ट्रायल को देखे हैं। 12 वर्षों के बाद, क्या मीडिया ने खुद में किसी तरह के सुधार किए हैं?

इस मामले ने मुझे आरुषि तलवार मामले की याद दिला दी है। उस समय भी, आरुषि की मां की जांच कईयों द्वारा की गई। चर्चाएं हो रही थी कि वो बहुत रो रही है या वो कैसे बोल रही है। मुझे अभी भी नहीं पता है कि आरुषि की हत्या किसने की, लेकिन प्रिंट मीडिया और टीवी चैनलों ने जो अटकलें लगाईं, वे गर्व की बात नहीं हैं।

इस बात की आलोचना हो रही है कि टीवी रिपोर्टिंग ने इसकी नज़दीकियों को छू लिया है। लेकिन हमने इंद्राणी मुखर्जी-शीना बोरा मामले और अन्य हाई-प्रोफाइल मामलों के दौरान भी मीडिया भीड़ को देखा है। 

यहां तक कि उन मामलों में, रिपोर्टिंग ने इसे कम नहीं मारा। इसे सनसनी पैदा करने वाली रिपोर्टिंग कहा जा सकता है। फिर भी, इस तरह की सीमा को पार करने वाली कवरेज अब आप देख नहीं रहे हैं। एक और बिंदु ये है कि आगामी बिहार चुनावों के कारण सुशांत सिंह की मौत का मामला राजनीतिक हो गया है। इस मुद्दे पर कंगना रनौत की एंट्री और महाराष्ट्र सरकार द्वारा उनके ऑफिस को ध्वस्त करना राजनीतिक खेल का हिस्सा है। सुशांत मामला पिछले मामलों से अलग है। मैं कहूंगी कि पहले मीडिया ट्रायल के मामले हमें चेतावनी का संकेत दे रहे थे कि मीडिया नीचे की ओर जा रही है। लेकिन, अब लगता है कि यहां से वापस लौटना मुश्किल है।

आपको क्यों लगता है कि मीडिया द्वारा एक ट्रायल में शामिल होना खतरा है, इसके अलावा सनसनीखेज पैदा करने वाली और पुरानी पत्रकारिता भी साथ में है?

खतरा ये है कि अब यह एक उन्मादी भीड़ में तब्दील हो गया है। यह उन्मादी भीड़ वाली मानसिकता को अनुमति देता है। प्रक्रिया पूरी होने से पहले हीं हम लोगों को दोषी मानते हैं। यह कुछ भी नहीं, बनी बनाई अवधारणाओं के दायरे में चलने पर आधारित है। रिपोर्टिंग का ये तरीका नहीं है। यह खतरा अब आप देख रहे हैं। मुझे नहीं पता कि क्या रिया चक्रवर्ती दोषी है। लेकिन, मीडिया के एक वर्ग ने पहले ही इसे स्पष्ट कर दिया है कि वो दोषी है। यदि वास्तव में ऐसा है, तो एक उचित जांच की आवश्यकता है और उन्हें इससे गुजरना होगा। हमने खुद की एक तस्वीर उकेरी है। ये शर्मनाक है।

आपको लगता है कि रिया को 'बड़े वर्ग' को संतुष्ट करने के लिए गिरफ्तार किया गया?

मैंने इन पहलुओं में बारिकी से नहीं देखा है। क्योंकि, मैं चीन-भारत गतिरोध और कोविड स्थिति के बारे में अधिक चिंतित हूं। तीन हफ्ते पहले रिया पर सुशांत सिंह की हत्या और पैसे की उगाही का आरोप लगाया गया था। इसमें से कोई भी तथ्य अब तक साबित नहीं हुए हैं। मारिजुआना की खरीद के लिए रिया को गिरफ्तार किया गया है। पहली नजर में, यह बहुत मजबूत मामला दिखाई नहीं देता है।

यह मामला निष्पक्षता और तथ्यात्मक सटीकता के पत्रकारिता मानदंडों के उल्लंघन का उदाहरण है। इस वक्त समय की क्या मांग है?

इंडस्ट्री के भीतर नियमन की आवश्यकता है। प्रेस परिषद जैसे संस्थानों को मजबूत करने की जरूरत है। अगर सरकार ने मीडिया को सेंसर और प्रशासनिक नियमों को शुरू कर दिया, तो हम मुश्किल में हैं, यह स्वीकार्य नहीं है। बता दें, प्रेस काउंसिल पत्रकार नैतिकता और मानदंडों का उल्लंघन करने वालों पर भारी जुर्माना लगाती है। यह परिवर्तन तभी होगा जब विज्ञापनदाता सचेत हो जाएं और समाचार चैनलों को फंडिंग करना बंद कर दें, जिनसे नफरत फैलती है। जब तक विज्ञापनदाता एक स्टैंड नहीं लेते हैं कि वे केवल वास्तविक समाचारों को हीं फंडिंग देंगे सनसनीखेज को नहीं, तब तक कुछ भी नहीं बदलने वाला है।

ये कहाँ रुकेगा?

अंततः, ये दर्शकों पर जाकर रुक जाता है। सुशांत सिंह मौत मामले की टीवी रेटिंग बहुत अधिक रही है। इसलिए हम सभी इसमें उलझ गए हैं। दर्शकों को भी एक स्टैंड लेने की जरूरत है।

 

 

 

 

 

 

 

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