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उत्तर प्रदेश/विपक्ष: बड़े तो बस ट्विटर बहादुर, सपा और बसपा में सक्रियता का अभाव आश्चर्यजनक

“राज्य में विपक्ष के बड़े किरदारों सपा और बसपा में सक्रियता का अभाव आश्चर्यजनक” भला हो किसान...
उत्तर प्रदेश/विपक्ष: बड़े तो बस ट्विटर बहादुर, सपा और बसपा में सक्रियता का अभाव आश्चर्यजनक

“राज्य में विपक्ष के बड़े किरदारों सपा और बसपा में सक्रियता का अभाव आश्चर्यजनक”

भला हो किसान आंदोलन का, जो कम से कम उत्तर प्रदेश के पश्चिमी हिस्से में कांग्रेस और राष्ट्रीय लोकदल को पंचायतों के बहाने अपने हाथ-पांव खोलने का मौका ले आया। वरना मोटे तौर पर यह प्रदेश पिछले चार साल में ऐसा बन गया, जहां विपक्षी सन्नाटा ऐसे सांय-सांय करता रहा है, मानो विपक्ष का लॉकडाउन हो गया  हो। आजाद भारत के इतिहास में ऐसे दौर कम ही रहे हैं, जब देश में केंद्र की सियासत के लिए सबसे अहम प्रदेश में विपक्ष की धमक ऐसी न रही हो, जो हलचल पैदा करने में काबिल न हो। लेकिन ठहरिए, यह कहना मुनासिब नहीं है कि कांग्रेस या रालोद पहली बार बाहर निकले हैं। कांग्रेस तो हर बड़ी घटना पर अपनी फौरी मौजूदगी दर्ज करती दिखी है।

किसान आंदोलन : लखनऊ में प्रदर्शन करते सपा प्रमुख अखिलेेश यादव (बाएं)

रालोद का स्वाभिमान भी हाथरस में दलित बच्ची के साथ दुष्कर्म और उसकी हत्या के बाद उसके गांव पहुंचे जयंत चौधरी पर लाठीचार्ज के बाद जागा था और उन्होंने अपने इलाके में कई सभाएं की थीं। लेकिन राज्य की चुनावी सियासत में ये पार्टियां फिलहाल छोटी किरदार हैं। लगभग दो-ढाई दशकों से राज्य की सत्ता पर अपनी मजबूत दावेदारी दर्ज करने वाली समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी तो मानो ट्विटर बहादुरी को ही सबसे बड़ी चुनौती मान बैठी है।

2017 में विधानसभा चुनावों में पराजय के बाद से ऐसे मौके गिनती के रहे हैं, जब इन दोनों पार्टियों ने मैदान में अपनी मौजूदगी दिखाई हो। बेशक, उनमें थोड़ी गरमी 2019 के लोकसभा चुनावों में दिखी थी। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और बसपा की नेता मायावती ने वर्षों की रंजिश भुलाकर गठजोड़ कायम किया तो उसके मोटे तौर पर नतीजे भी दिखे थे। भले विपक्ष के पाले में 17 सीटें आई थीं मगर लगभग 10 सीटें ऐसी थीं, जिन पर भाजपा की जीत का अंतर कुछेक हजार का था और तकरीबन इतनी ही सीटें ऐसी थीं, जिन पर विपक्ष में पड़े कुल वोटों को जोड़ लें तो भाजपा से अधिक बैठता था। बेशक, 2014 के मुकाबले यह बेहतर नतीजा था, जब विपक्ष के पाले में सिर्फ 7 सीटें (सपा की 5 और कांग्रेस की 2) आई थीं। बसपा का उस चुनाव में आंकड़ा शून्य था जबकि 2019 में उसे 10 सीटें गठबंधन के बल पर हासिल हो गई थीं।

फिर भी सपा-बसपा का गठजोड़ चुनाव नतीजों के बाद ऐसे झटके से टूटा, मानो कभी साथ बैठे ही न हों। हालांकि अखिलेश गठजोड़ के दौरान मायावती को बुआ जी कहकर मिठास घोल रहे थे। मायावती ने भी 1995 के चर्चित लखनऊ गेस्ट हाउस कांड के सब गिले-शिकवे भुलाने का ही दावा किया था, बल्कि मुकदमे भी वापस ले लिए। बाद में मायावती ने उसे गलती बताया तो अखिलेश भी कह गए, रणनीति बनाने में कहीं चूक तो हो ही जाती है। अखिलेश को मलाल है कि वे दो बार गठबंधन में हाथ जला चुके हैं। 2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस के साथ और 2019 में बसपा के साथ। सो, अब वे बड़े गठजोड़ से तौबा करने का बयान दे चुके हैं। वे अब छोटी पार्टियों से गठजोड़ की बातें तो करते हैं मगर अब 2022 चुनाव की बेला में साल भर ही रह गए हैं।

इस बीच एआइएमआइएम के असदुद्दीन औवैसी 2020 के बिहार चुनाव में पांच सीटें जीतकर उत्साहित हुए तो उत्तर प्रदेश में उन्हीं छोटी पार्टियों के साथ ‘भागीदारी संकल्प मोर्चा’ बना लिया, जिस पर सपा की निगाहें थीं। इसमें सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के ओमप्रकाश राजभर, शिवपाल यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी और पीस पार्टी जैसे कुछ अन्य दल हैं।

ओमप्रकाश राजभर 2014 में भाजपा के साथ एनडीए में चले गए थे, लेकिन 2019 के पहले वे अलग हो गए और लोकसभा चुनाव में अपने अलग उम्मीदवार उतारे। राजभर ने कहा कि उन्होंने सपा से बात करने का इंतजार किया मगर उधर से कोई सुगबुगाहट ही नहीं है। हालांकि अब अखिलेश अपने चाचा शिवपाल यादव से खटास भुलाने की बातें फिर से कह रहे हैं। ये बातें हो ही रही थीं कि अखिलेश ने शिवपाल की पार्टी से टूटकर आए एक विधायक को पार्टी विरोधी गतिविधि के लिए पार्टी से निकाल दिया। मतलब यह कि बात अभी अधर में ही है।

मायावती जैसे नेताओं का केवल ट्विटर पर विपक्ष की भूमिका निभाना रहस्य का विषय है, जबकि उसके पास मुद्दों की कमी नहीं है। ऐसे में 2022 की रणनीति पर सबकी नजर

इसी तरह लगता है, बाकी छोटी पार्टियों से भी सपा की बात में कोई न कोई हिच आड़े आ रही है। फिर भी सपा नेताओं को लगता है कि योगी के ‘ठोको राज’ के दिन अब लद गए हैं, सत्ता से उनकी दूरी बस साल भर की रह गई है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल है कि उन्हें सड़क पर उतरने से क्या चीज रोक रही है। किसान आंदोलन के दौरान भी अखिलेश सिर्फ एक बार जनवरी में कन्नौज में एक रैली के लिए निकलने लगे तो लखनऊ में पुलिस ने उनके घर के आगे बैरिकेडिंग कर दी, तो वहीं धरने पर बैठे। उसके बाद उनकी सक्रियता ट्विटर या एक दिन लोकसभा में दिखी। हालांकि इन आरोपों से समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय सचिव और प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी इत्तेफाक नहीं रखते हैं। उनके अनुसार, “अगर हम सड़क पर नहीं उतर रहे हैं, तो हमारे 10 हजार से ज्यादा कार्यकर्ताओं पर इस सरकार ने मुकदमे कहां से कर दिए।” ट्विटर की यह सक्रियता तो बसपा की मायावती के मामले में और भी ज्यादा दिखती है। राजनैतिक गलियारों में बसपा ही नहीं, सपा की भी कम सक्रियता के पीछे केंद्रीय एजेंसियों से मामले खुलने की आशंकाओं की भी चर्चाएं हैं। आश्चर्य इसलिए भी होता है कि इन चार साल में राज्य में हुई घटनाओं ने विपक्ष को मौके कम नहीं उपलब्ध कराए। चाहे पुलिसिया मुठभेड़ों का मामला हो या गोरखपुर अस्पताल में बच्चों की मौत, या सीएए विरोध प्रदर्शन, हाथरस कांड या फिर अब किसान आंदोलन। यह फेहरिस्त लंबी हो सकती है। विपक्ष की निष्क्रियता के आरोपों पर कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू कहते हैं, “इस समय 5 सीटों वाली कांग्रेस पार्टी मुख्य विपक्ष की भूमिका निभा रही है। प्रियंका गांधी के नेतृत्व में लाखों कार्यकर्ता सरकार की नीतियों के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं।”

गौतलब यह भी है कि सपा और बसपा से टूटे अलग-अलग जातियों के नेताओं को अपने पाले में लाकर भाजपा ने राज्य में अपना विस्तार किया है। चाहे कुर्मी जाति के सोनेलाल पटेल का अपना दल हो या बिंद, मल्लाह जातियों की पार्टियां, पाल तथा अन्य छोटी पिछड़ी जातियों-अनुसूचित जातियों के नेता या फिर राजभर, आर.के. चौधरी जैसे नेता। बहरहाल, विपक्ष को अगर 2022 के चुनाव में कड़ी चुनौती देनी है तो अपनी रणनीतियों पर दोबारा विचार करना पड़ेगा।    

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