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जनादेश 2022/गोलबंदी की जाति: सभी पार्टियां जाति गोलबंदी और ध्रुवीकरण पर उतरीं, किसे फायदा किसे नुकसान?

“महंगाई, बेरोजगारी, किसानों के संकट, रोजी-रोटी के सवालों को छोड़कर सत्तारूढ़ और सभी विपक्षी...
जनादेश 2022/गोलबंदी की जाति: सभी पार्टियां जाति गोलबंदी और ध्रुवीकरण पर उतरीं, किसे फायदा किसे नुकसान?

“महंगाई, बेरोजगारी, किसानों के संकट, रोजी-रोटी के सवालों को छोड़कर सत्तारूढ़ और सभी विपक्षी पार्टियां जाति गोलबंदी और ध्रुवीकरण पर उतरीं, लेकिन लोगों का मूड हालात बदलने की दिशा में”

हर बार की तरह इस बार भी 16 फरवरी को संत रविदास की जयंती पर प्रधानमंत्री सहित खासकर उत्तर प्रदेश और पंजाब के हर रंग-पांत के नेताओं ने अपनी श्रद्धा का इजहार किया और बनारस में जुटे रामदसिया समाज की भावनाओं को छूने की कोशिश की। प्रधानमंत्री ने तो अपनी नीतियों में संत की वाणी का विशेष ख्याल रखने का संकल्प दोहराया। यकीनन यह पहली बार नहीं था, और न ही यह अचानक था कि इसी के मद्देनजर पंजाब में विधानसभा मतदान की तारीख 14 फरवरी से बढ़ाकर 20 फरवरी की गई। लेकिन इससे भी शायद ही कोई इनकार करे कि चुनावों के मौसम में इसके खास निहितार्थ हैं। न सिर्फ पंजाब में जहां रामदसिया दलित समुदाय कुल 32 फीसदी दलित आबादी में करीब 21 फीसदी की हिस्सेदारी के साथ वोट के लिहाज से खास अहमियत रखता है, बल्कि उत्तर प्रदेश के सबसे कड़े सियासी मैदान में दलित समुदाय को अपनी-अपनी ओर रिझाना भी चुनावी नतीजों में भारी फर्क पैदा कर सकता है। पंजाब में कांग्रेस का तो दांव ही राज्य में अपने पहले, और संयोग से इस वक्त देश में इकलौते, दलित मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी पर है। वहां बसपा से गठजोड़ वाले अकाली दल, आम आदमी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी के गठजोड़ भी राज्य में दलित वोटों पर आस लगाए बैठे हैं। भाजपा गठजोड़ की हालत तो यह है कि थोड़े भी दलित वोट पाले में आ जाएं तो वोट प्रतिशत कुछ अच्छा-सा लगे। लेकिन उससे बढ़कर उत्तर प्रदेश के ‘करो या मरो’ की जंग वाले मैदान में हर दावेदार के लिए लगभग 22-23 फीसदी दलित वोट अपने पाले में येन-केन प्रकारेण खींच लाना अस्तित्व बचाने का सवाल बन गया है।

मामला सिर्फ दलित का नहीं है, हर जाति अगड़े, पिछड़े, गरीब और वंचित जातियों की गोलबंदी के साथ-साथ खासकर उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिश इतने तीखे अंदाज में की जा रही है, मानो पहले के सारे रिकॉर्ड तोड़ डालने हैं। और, लगे हाथ सभी विरोधी रुझानों को ध्वस्त कर देना है। चाहे वह महंगाई, बेरोजगारी, खस्ताहाल अर्थव्यवस्था, रोजी-रोटी के संकट, कोरोना की दो लहरों के दौरान जानलेवा लापरवाही हो, या भयावह कृषि संकट।

यह सिर्फ सत्तारूढ़ पार्टियों का मामला नहीं है, बल्कि विपक्ष भी अपने नाकारापन को इसी जाति गोलबंदी के ‘पवित्र जल’ से धो डालने की मंशा पाले हुआ लगता है। हालांकि विपक्ष सत्तारूढ़ पार्टी की कोशिशों की काट के लिए लोगों का ध्यान सरकारी नाकामियों से उपजे संकटों की ओर दिलाने की कोशिशें जरूर कर रहा है, मगर उसकी कोशिश भी खास वर्गों की नाराजगियों को जोड़कर जिताऊ गणित बैठाने की ही दिखती है। ये कोशिशें बेशक सबसे तीखे अंदाज में उत्तर प्रदेश में दिख रही हैं, लेकिन पंजाब में भी एक अलग स्तर पर दिख रही हैं (देखें पंजाब की रिपोर्ट)। गोवा, उत्तराखंड (जहां यह रिपोर्ट लिखे जाने तक मतदान हो चुके हैं) में भी बड़े पैमाने पर दिखी हैं और मणिपुर में बदस्तूर दिख रही हैं (देखें संबंधित रिपोर्टें)।

यकीनन उत्तर प्रदेश की लड़ाई ही सबसे बड़ी है, जिसका असर राज्य ही नहीं, केंद्र की राजनीति पर भी पड़ना तय है। यही नहीं, उससे इस साल होने वाले राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति के चुनाव भी प्रभावित हो सकते हैं। फिर, इसका असर इस साल के आखिर में और अगले साल होने वाले राज्यों के चुनावों के अलावा 2024 के लोकसभा चुनावों पर भी पड़ सकता है। यानी उत्तर प्रदेश वह धुरी है, जो देश की सियासत की अगली दिशा तय कर सकती है। इसी लिए सबसे तीखे अंदाज में जाति गोलबंदी और ध्रुवीकरण की कोशिश वहीं दिख रही है। यह नेताओं के हालिया बयानों पर नजर डालने से ही स्पष्ट हो जाता है।

न सिर्फ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यानाथ, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, भाजपा अध्यक्ष जयप्रकाश नड्डा सभी के बयान तीखे से तीखे होते जा रहे हैं। उसके बरअक्स लड़ाई में सबसे जोरदार टक्कर देने वाले समाजवादी पार्टी (सपा) के गठजोड़ के नेताओं अखिलेश यादव, जयंत चौधरी, ओम प्रकाश राजभर के तेवर भी तीखे हैं। योगी आदित्यनाथ अपने चर्चित बयानों ‘‘80 बनाम 20 की लड़ाई’’, ‘‘सपा जीती तो उत्तर प्रदेश कश्मीर, केरल, बंगाल बन जाएगा’’, ‘‘गर्मी निकाल देंगे, मई-जून में शिमला बना देते हैं’’ से ‘‘गजवा-ए-हिंद’’ की ओर बढ़ गए हैं। जवाब में जयंत और अखिलेश ने उसे मोड़कर कहना शुरू किया कि ‘‘वे 20 हमें और किसानों को कह रहे हैं जबकि हम तो 85:15 वाले हैं’’ और ‘‘हमारी गर्मी भला कौन निकालेगा।’’ इन नेताओं ने इन बयानों से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने की भाजपा की कोशिशों को अपनी समर्थक जातियों के स्वाभिमान से जोड़कर उन्हें गोलबंद करने की कोशिश की।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 10 और 14 फरवरी को राज्य के कुल सात चरणों में से दो चरणों के मतदान में इस गोलबंदी और ध्रुवीकरण का असर होता भी दिखा। किसान आंदोलन की वजह से सबसे अधिक प्रभावित इस इलाके में खासकर जाट, गूजर और सैनी समुदाय के साथ मुसलमान मतदाताओं में इसका विशेष असर दर्ज किया गया। जाट, गूजर और सैनी समुदाय 2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगों के बाद भाजपा की ओर मुड़ गए थे, जिससे उसे लगातार तीन चुनावों, 2014 और 2019 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनावों में भारी सफलता मिली थी।

लेकिन इस बार इस इलाके में दबंग ‌जाट ज्यादातर राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) की ओर लौट गए, तो गूजरों में भी किसान आंदोलन तथा सम्राट मिहिरदेव की मूर्ति विवाद जैसी कई वजहों से नाराजगी दिखी। उनमें भी एक बड़े वर्ग का रुझान गठबंधन की ओर हो गया। फिर धर्म सिंह सैनी की वजह से सैनियों के दो में से एक खाप का रुख गठबंधन की ओर हो गया। हालांकि इस इलाके में कश्यप, लोध और ऊंची जातियों का रुझान भाजपा की ओर दिखा। इस इलाके में जाटवों की बड़ी तादाद है, वे मोटे तौर पर बसपा के साथ हैं मगर मायावती की निष्क्रियता की वजह से मोहभंग के शिकार खासकर युवाओं के वोट भाजपा और गठबंधन में बंटे।

उधर, मुसलमानों के खिलाफ भाजपा के नेताओं के बयान जितने तीखे होते गए, उतना ही उनका एकमुश्त वोट गठबंधन की ओर जाता दिखा। इसके पहले पश्चिम उत्तर प्रदेश में भारी आबादी वाले इलाकों में मुसलमानों के वोट सपा, बसपा और कांग्रेस में बंटने से भाजपा को लाभ मिलता रहा है। मुसलमानों में शायद अपना वजूद बचाने की चिंता इस कदर रही कि सहारनपुर के प्रभावी नेता इमरान मसूद और कादिर राणा आखिरी वक्त में सपा में गए। लेकिन सहारनपुर से गठबंधन ने एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया, फिर भी उनमें बगावत नहीं हुई, न मुसलमानों का वोट बिखरता दिखा। दूसरे चरण के मतदान में तो मुरादाबाद, अमरोहा, बिजनौर, रामपुर जिलों में मुसलमान आबादी 50 फीसदी से अधिक है और यह इलाका बसपा का गढ़ भी रहा है क्योंकि दलित आबादी भी काफी है। इसी इलाके में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआइएमआइएम का भी असर रहा है। इन दोनों पार्टियों ने भी मुस्लिम उम्मीदवार खड़े किए मगर वोट बंटता नहीं दिखा। यह पहली बार हुआ है।

यहां यह भी गौर किया जा सकता है कि ओवैसी पर गाजियाबाद में कुछ दिनों पहले हुए हमले से हमदर्दी भी नहीं पैदा हो सकी। गौरतलब यह भी है कि इस हमले में कुछ हिंदू युवाओं के शामिल होने पर भाजपा ने पहले चुप्पी बरती लेकिन अब उसके एक नेता ने एक हमलावर के घर पहुंच कर उनकी मदद करने का भी आश्वासन दिया।

पहले दो चरणों में ध्रुवीकरण की कोशिश का तो उलटा ही असर होता दिखा। किसान नेता राकेश टिकैत तो कहते हैं कि भाजपा का वोट कोका (अदृश्य शक्ति) ले गया। उन्होंने कहा, “मुजफ्फरनगर की जनता ने वह स्टेडियम तोड़ दिया, जहां हिंदू-मुसलमान मैच खेला जाता था।“

दूसरे चरण में ही एक और दिलचस्प बात देखने को मिली। बरेली और शाहजहांपुर से भाजपा के पाले की पिछड़ी जातियों कश्यप और लोध का रुझान भी गठबंधन की ओर दिखा। इसका असर शायद आगे के चरणों में दिखे। मध्य या अवध क्षेत्र से भाजपा को काफी उम्मीदें हैं। लेकिन पूरब में सपा के गठबंधन में ओम प्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अलावा स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान, लालजी वर्मा जैसे नेताओं के कारण गठबंधन को ज्यादा शह है। पूरब में हरिशंकर तिवारी के बेटे विनय तिवारी के आने से ब्राह्मण वोटों में भी बंटवारा दिख रहा है।

बहरहाल, चुनाव में सारा जोर शुरू से ही जातियों की गोलबंदी पर दिखने लगा था। सपा ने इस बार राष्ट्रीय लोक दल, अखिल भारतीय सुहेलदेव समाज पार्टी, महान दल, अपना दल (कमेरावादी), एक निषाद पार्टी का गठजोड़ बनाया है। इसके अलावा भाजपा से टूटकर आए स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान और धर्म सिंह सैनी के अलावा कई असरदार नेताओं का शामिल किया है, जो 2016 में बसपा से अलग होकर भाजपा में गए थे। लालजी वर्मा और कई छोटी पिछड़ी तथा दलित जातियों के खास इलाकों में असर रखने वाले नेताओं को शामिल करके अपनी छतरी बड़ी की है। 2017 में कांग्रेस और 2019 में बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन में हाथ जला बैठे सपा अध्यक्ष अखिलेश पहले ही ऐलान कर चुके हैं, “बड़े दलों से नहीं, छोटे दलों से समझौता करेंगे।”

लगभग ऐसी ही छतरी भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष अमित शाह ने 2014 के बाद तैयार की थी, जो 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के बाद फैली सांप्रदायिक नफरत की हवा में भाजपा की जीत का अकाट्य समीकरण बन गई थी। गैर-यादव पिछड़ी जातियों और गैर-जाटव दलित नेताओं को सपा, बसपा और कांग्रेस से तोड़कर लाने से मध्य और पूर्वी उत्तर प्रदेश के साथ बुंदेलखंड में भाजपा को काफी बढ़त मिल गई थी।

इसका फायदा उसे पश्चिम उत्तर प्रदेश में ज्यादा मिला, जहां सांप्रदायिक फिजा ने जाट और गूजर समुदाय को उसके पाले में लाकर चमत्कार कर दिया था। दरअसल बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद पूर्व मंत्री कल्याण सिंह, विनय कटियार, उमा भारती जैसे नेताओं की वजह से लोध, कोयरी, कुर्मियों का एक हिस्सा जैसी पिछड़ी जातियां पहले ही भाजपा से जुड़ गई थीं। बाद के दौर में अपना दल (सोनेलाल) के जुड़ने से कुर्मी वोट भी भाजपा से जुड़ गए, जिसकी अनुप्रिया पटेल फिलहाल केंद्र में मंत्री हैं।

लेकिन 2014 और उसके बाद मोदी को पिछड़ी जाति के नेता के रूप में स्‍थापित करने के साथ अति पिछड़ी तथा गैर-जाटव दलित जातियों के बीच उस नाराजगी को हवा दी गई कि आरक्षण की सारी मलाई दबंग जातियां ही ले जा रही हैं। इसके अलावा, बसपा और सपा के लंबे समय से सत्ता के खिलाफ भी नाराजगी का आलम बढ़ रहा था। इसी का लाभ भाजपा को मिला और उत्तर प्रदेश में उसने जीत का रिकॉर्ड कायम कर दिया। इसे गाहे-बगाहे मोदी-शाह चमत्कार कहा जाता है, लेकिन पिछड़ी और दलित जातियों को अपने पाले में लाकर ब्राह्मण-बनिया पार्टी के तमगे से मुक्ति के लिए यह प्रक्रिया 1990 के दशक के आखिर में पार्टी के गोविंदाचार्य जैसे नेताओं ने शुरू कर दी थी। उसे सामजिक न्याय के बरअक्स सोशल इंजीनियरिंग कहा गया था।

लेकिन इस बार उसकी यह छतरी बिखर गई। उसकी छतरी में अब अनुप्रिया पटेल की पार्टी के अलावा डॉ. संजय निषाद की पार्टी और कुछ छोटे-मोटे समूह ही बच गए हैं। इन्हें भी आखिरी क्षण में मनाने और अपने पाले में बनाए रखने के लिए उसे मशक्कत करनी पड़ी। फिर, निषाद अनुसूचित जाति के कोटे में आरक्षण न मिलने से नाराज बताए जा रहे हैं, जिसका वादा भाजपा ने किया था। उधर, अनुप्रिया की मां कृष्‍णा पटेल सपा गठबंधन में शामिल हो गई हैं और वे प्रतापगढ़ से तथा उनकी छोटी बेटी पल्लवी पटेल सिराथु में उप-मुख्यमंत्री केशव देव मौर्य के खिलाफ चुनाव लड़ रही हैं, जो 2017 में भाजपा का पिछड़ा चेहरा थे।

असल में पिछड़े नेताओं की शिकायत है कि पिछले पांच साल प्रदेश में भाजपा के शासनकाल में उन्हें किनारे धकेल दिया गया। इसी भावना को अखिलेश ने पकड़ा और सपा ने पिछड़ी जातियों की अपनी छतरी बड़ी करने की ठानी, ताकि उस पर से यादव-मुस्लिम पार्टी होने का दाग मिटे। शायद इसका परिणाम यह हुआ कि विपक्ष का मुकम्मल चेहरा सपा गठजोड़ बन गया।

बसपा की मायावती ने जोर नहीं दिखाया तो उनका अपना वोट भी बिखरता-सा लगा। हालांकि सपा गठजोड़ ने दलितों को अपने पाले में करने के खास प्रयास नहीं किए, फिर भी बदलाव की बयार बहती रही तो उसे कुछ फायदा मिल भी सकता है। अखिलेश और उनके गठबंधन के नेता लगातार डॉ. आंबेडकर के संविधान और आरक्षण को बचाने की दुहाई दे रहे हैं। फिर, बसपा से निकले नेताओं का भी दलित वोट लाने में थोड़ा-बहुत असर हो सकता है।

अब ऐसे संकेत हैं कि दलित वोटों को खींचने की कोशिश भाजपा अपनी ओर शिद्दत से कर रही है। पहले उसे भरोसा था कि बसपा अच्छा वोट हासिल कर लेती है तो तिकोणी लड़ाई में उसे फायदा मिलेगा। लेकिन दलितों के एक वर्ग में भी बसपा से व्यापक मोहभंग को देखकर कई इलाकों में संदेश देने की कोशिश की गई कि बसपा बाद में भाजपा के साथ गठजोड़ कर लेगी, ताकि उससे विदके दलितों का रुझान भाजपा की ओर हो जाए। गैर-जाटव दलितों का रुझान भाजपा की ओर बना हुआ लगता है। हालांकि हाथरस में वाल्मीकि समाज की लड़की की बलात्कार और हत्या की घटना से कुछेक इलाकों में वोट जरूर खिसक सकते हैं।

जहां तक कांग्रेस का सवाल है तो प्रियंका गांधी ने काफी सक्रियता दिखाई और महिलाओं में खासी दिलचस्पी पैदा की मगर वे ज्यादा वोट अपनी नहीं कर पाईं। इसलिए चुनाव भाजपा और सपा गठबंधन के बीच दोतरफा बन गया है। अखिलेश की सभाओं में उमड़ती भीड़ भी हवा के रुख का अंदाजा दे रही है। भाजपा की सभाओं में खाली कुर्सियां दिखीं तो पार्टी ने डोर टु डोर कंपेनिंग पर जोर बढ़ा दिया।

वैसे भाजपा अति पिछड़ी जातियों और दलितों को लुभाने के लिए लाभार्थी कार्ड भी खेल रही है। यानी सरकारी योजनाओं से जिन्हें लाभ मिला है, उनकी गोलबंदी की जाए। इस गोलबंदी में कौन बाजी मारता है, यह तो देखना ही होगा, लेकिन बनारस में ओम प्रकाश राजभर के साथ हाथापाई की घटना भी भाजपा के लिए मुश्किल पैदा कर सकती है। जो भी हो, इसके नतीजे तो 10 मार्च को ही दिखेंगे, लेकिन मतदान केंद्रों पर कतार में लगे लोग बेशक असली मुद्दों को तरजीह दे रहे थे। वे ऐसी सरकार चाहते हैं, जो महंगाई, बेरोजगारी से निजात दिलाए और भाईचारे तथा सुरक्षा की गारंटी दे।

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