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आवरण कथा: जो पीछे रह गए बेसहारा, उनकी सुध लेने वाला अब कौन?

  “मध्य प्रदेश में लिखे जा रहे ‘विकास’ के ‘नए अध्याय’ का हिस्सा वर्मा अब कभी नहीं बन...
आवरण कथा: जो पीछे रह गए बेसहारा, उनकी सुध लेने वाला अब कौन?

 

“मध्य प्रदेश में लिखे जा रहे ‘विकास’ के ‘नए अध्याय’ का हिस्सा वर्मा अब कभी नहीं बन पाएंगे”

खुदकुशी करने वाला चला जाता है, जो पीछे बच जाते हैं उनका जीवन मर-मर के कटता है। मोनिका की कहानी ऐसी ही है। पहले उनका बेटा कोरोना में चला गया। फिर हालात सुधरे तो एक शाम उनका पति अतिक्रमण हटाओ अभियान की भेंट चढ़ गया। अब वे एक अकेले बेटे के साथ निस्सहाय हैं।

बीती 11 जनवरी को मध्य प्रदेश का ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट इंदौर में शुरू हुआ। आयोजन स्थल के पास बीते पंद्रह साल से पंचर की दुकान चला रहे पैंतीस साल के राहुल वर्मा ने उसी शाम नदी में कूद कर खुदकुशी कर ली। राज्य सरकार के इस भव्य निवेश आयोजन के लिए जब अक्टूबर में तैयारियां शुरू हुई थीं, तभी वर्मा सहित वहां लगने वाली कई दुकानों को उजाड़ दिया गया था। उसके बाद से वर्मा पक्की दुकान लगाने के लिए यहां-वहां भटक रहे थे, लेकिन प्रशासन ने कह दिया था कि दुकान दोबारा वहां नहीं बसाने दी जाएगी। जब रोज की कमाई खत्म हुई और खाने का संकट आ गया, तो राहुल ने भी खुद को खत्म करना ही बेहतर समझा।

राहुल वर्मा

राहुल वर्मा 

मरने से पहले उसने पत्नी मोनिका को फोन किया और भाई रवि को एक वीडियो संदेश भेजा, जिसमें उसने किसी को अपनी मौत का दोषी नहीं ठहराया है। मोनिका और रवि ने आउटलुक से बातचीत में साफ कहा कि महीने का करीब पंद्रह हजार तक कमा लेने वाले राहुल नगर निगम की कार्रवाई के बाद अचानक तनाव में आ गए थे, इसीलिए उन्होंने जान दे दी। अब उनके घर की कुल कमाई केवल पांच सौ रुपये महीने पर आ कर टिक गई है, जो मोनिका के बीड़ी बनाने से आती है। पालने के लिए दिल के रोगी बूढ़े मां बाप और सात साल का एक बच्चा है। ईश्वर नगर स्थित पिता के जिस घर में परिवार रहता था उस पर फिलहाल ताला लटका है।

नगर निगम इस मामले में कुछ भी जानने से इनकार कर रहा है। निगम की उपायुक्त और अतिक्रमण हटाओ अभियान की इंचार्ज लता अग्रवाल राहुल की मौत के बारे में पूछे जाने पर आउटलुक से कहती हैं, "हम लोग कुछ नहीं जानते, न हमें पता है। सरकारी जमीन पर कोई कब्जा नहीं कर सकता। हमने रेगुलर अभियान के तहत अतिक्रमण हटाया है।" वे कहती हैं कि राहुल या किसी और की दुकान को हटाए जाने का किसी आयोजन से कोई लेना-देना नहीं है।

रवि बताते हैं कि उनके दिवंगत भाई का एक बेटा कोरोना महामारी के दौर में ही गुजर गया था। दूसरा बेटा लकी स्कूल में पढ़ता है। पिता पहले चाय की दुकान चलाते थे, लेकिन बाद में रवि और राहुल ने मिलकर परिवार का पूरा खर्चा अपने सिर पर उठा लिया। उनकी मदद करने के लिए राहुल की पत्नी मोनिका घर में ही बीड़ी बनाती थी। चार-पांच दिन की मेहनत से एक हजार बीड़ी बनाने पर उसे सौ रुपये मिलते हैं। अब राहुल के जाने के बाद पिता कह रहे हैं कि वे सब्जी का धंधा करेंगे। रवि पूछते हैं, "आप बताओ, इतनी उम्र में वे काम कैसे कर पाएंगे?"

मोनिका को अब कोई अंदाजा नहीं है कि घर कैसे चलेगा। वे कहती हैं, "पहले तो कोई टेंशन ही नहीं थी। नगर निगम के दुकान हटाने के बाद वो (राहुल) घबरा गए थे। फिर पार्षद ने कह दिया कि अब दुकान नहीं लगाने देंगे। अब हम क्या सोचें, कैसे सब होगा। इकलौता कमाने वाला ही चला गया।"

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'न्यू इंडिया' की ताजा तस्वीर

नया इंडिया

अंतरराष्ट्रीय दानदात्री संस्था ऑक्सफैम ने भारत पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की है जो बताती है कि बीते ढाई दशक में पहली बार अत्यधिक अमीरी और अत्यधिक गरीबी के बीच की खाई सबसे चौड़ी हो चुकी है। यह रिपोर्ट स्विट्जरलैंड के दावोस में हो रहे वर्ल्ड इकॉनमिक फोरम के उद्घाटन के साथ ही जारी की गई है। इसका नाम है "सर्वाइवल ऑफ द रिचेस्ट: द इंडिया सप्लीमेंट।" प्रमुख निष्कर्षः

भारत के शीर्ष 1 प्रतिशत लोग 2021 तक कुल संपदा के 40.5 प्रतिशत हिस्से के मालिक हो गए जबकि आबादी के निचले 50 प्रतिशत हिस्से यानी 70 करोड़ लोगों के पास मात्र 3 प्रतिशत संपदा है।

कोरोना महामारी की शुरुआत से लेकर नवंबर 2022 तक भारत के अरबपतियों की संपत्ति में 121 प्रतिशत की वृद्धि हुई है जो कमाई के लिहाज से प्रतिदिन 3608 करोड़ रुपये यानी प्रति मिनट ढाई करोड़ रुपये बनती है।

इसी अवधि में भूखे लोगों की संख्या भारत में 19 करोड़ से बढ़कर 35 करोड़ हो गई है। 2022 में 5 वर्ष से कम आयु वर्ग के 65 प्रतिशत बच्चों की मौत इस कारण से हुई।

भारत के सबसे धनी व्यक्ति की संपत्ति वर्ष 2022 में 46 प्रतिशत बढ़ी है।

पांच प्रतिशत भारतीयों के पास देश की संपत्ति का 60 प्रतिशत हिस्सा है।

भारत में अरबपतियों की संख्या वर्ष 2020 में 102 से बढ़कर वर्ष 2022 में 166 हो गई।

भारत के 100 सबसे धनी व्यक्तियों की कुल संपत्ति 54 लाख करोड़ रुपये पहुंच गई जिससे 18 महीने का केन्द्रीय बजट बन सकता है।

सबसे धनी 10 भारतीयों की कुल संपत्ति 27 लाख करोड़ रुपये है। पिछले वर्ष से इसमें 33 प्रतिशत की वृद्धि हुई। यह संपत्ति स्वास्थ्य व आयुष मंत्रालयों के 30 वर्ष के बजट, शिक्षा मंत्रालय के 26 वर्ष के बजट व मनरेगा के 38 वर्ष के बजट के बराबर है।

कॉरपोरेट क्षेत्र को दिए गए 11 लाख करोड़ रुपये के कर्ज सार्वजनिक बैंकों द्वारा रद्द किए गए।

कॉरपोरेट टैक्स में 2019 में कमी की गई व छूट तथा प्रोत्साहन के रूप में 2021 में 1,03,285 करोड़ रुपए का लाभ अमीरों को मिला जो 1.4 वर्ष के लिए मनरेगा बजट के बराबर है।

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बैंकों की पूंजी कैसे बन गई मुट्ठी भर कॉरपोरेट की चाकर

कॉरपोरेट

 

आज से आठ साल पहले 2015 में जब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत आए थे, तब राष्ट्रपति भवन में उनके अभिनंदन समारोह में करीब दो दर्जन उद्योगपतियों को बुलाया गया था। उनमें छह से आठ उद्योगपति आज की तारीख में बैंकों के साढ़े तीन लाख करोड़ रुपये के बकायेदार हैं, जिनमें ज्यादातर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक हैं। भारत के बैंकों की कुल पूंजी पांच लाख करोड़ रुपये के आसपास है। इस पूंजी का करीब सत्तर प्रतिशत महज आधा दर्जन औद्योगिक समूहों के पास कर्ज है। लिहाजा तकनीकी रूप से देखें तो अगर ये आधा दर्जन उद्योग डूबे, तो भारत की सत्तर प्रतिशत बैंकिंग पूंजी भी डूब जाएगी। यानी व्यवस्था ही डूब जाएगी। इसीलिए समूची व्यवस्था मुट्ठी भर उद्योगों को बचाने में लगी रहती है, इन्हें डूबने नहीं देती। इसका खमियाजा बाकी को भुगतना पड़ता है।

क्रोनी पूंजीवाद पर एम.के. वेणु के लिखे एक पुराने लेख से उपर्युक्त आंकड़ों को उद्धृत करते हुए प्रोफेसर जैरस बनाजी ने अपने एक लंबे विश्लेषण (इंडियन बिग बिजनेस, फेनोमेनल वर्ल्ड, 20 दिसंबर 2022) में सन 2000 से 2020 के बीच भारतीय कॉरपोरेट क्षेत्र के विकास का जायजा लिया है। उन्होंने इस विश्लेषण में दिखाया है कि भारत में औद्योगिक पूंजीवाद की नींव रखने वाले परंपरागत पारिवारिक उद्योग क्यों और कैसे इस बीच नष्ट हो गए और कैसे एक नए पूंजीपति वर्ग का उदय हुआ जिसने सार्वजनिक उपक्रमों के बाद बाकी अर्थव्यवस्था को अपने कब्जे में ले लिया। वे लिखते हैं कि इस बदलाव की प्रक्रिया में भारतीय बैंकों ने बड़ी निजी पूंजी के आगे पूरी तरह घुटने टेक दिए।

प्रोफेसर बनाजी ने शीर्ष 270 असूचीबद्ध गैर बैंकिंग कंपनियों की आय और बिक्री के आंकड़े रखे हैं। कुल 270 कंपनियों की शुद्ध बिक्री के 90 प्रतिशत पर मात्र शीर्ष 100 कंपनियों का कब्जा है। ये ही भारत के कॉरपोरेट क्षेत्र की रीढ़ हैं। उनमें 44 प्रतिशत बिक्री केवल 14.4 प्रतिशत सार्वजनिक उपक्रमों की है, जो दिखाता है कि सरकारी नियंत्रण के अंतर्गत आने वाले उपक्रमों का हिस्सा औसत से ज्यादा है।

इस 270 के बीच संख्याबल के मामले में सबसे बड़ा समूह ऐसी 102 कंपनियों का है जिनका उदय अस्सी के दशक के बाद हुआ है। लेखक इन्हें नए पूंजीपति का नाम देते हैं। इनमें जो कंपनियां कारोबारी घरानों से संबद्ध हैं, उनका आकार इसी श्रेणी की 65 स्वतंत्र कंपनियों से औसतन तीन गुना बड़ा है। निजी क्षेत्र की कुल शुद्ध बिक्री के 56.3 प्रतिशत पर दस सबसे बड़े निजी समूहों और कंपनियों का कब्जा है। इनमें शीर्ष दो यानी अकेले रिलायंस और टाटा का पच्चीस प्रतिशत बिक्री पर कब्जा है। लेखक ने 172 असूचीबद्ध गैर बैंकिंग कंपनियों का भी एक विश्लेषण किया है। इनमें 78 कंपनियां यानी 45.30 प्रतिशत कंपनियां विदेशी हैं जिनका कुल आय के 44.2 हिस्से पर कब्जा है। इस तरह भारत के कॉरपोरेट सेक्टर के आज तीन अहम अंग हैं: सरकारी उद्यम, नए पूंजीपति और विदेशी कंपनियां। सूचीबद्ध और असूचीबद्ध कंपनियों की कुल बिक्री का 80 प्रतिशत इन्हीं के खाते में जाता है।

आर्थिक ढांचे में निजी पूंजी का प्रवाह बैंकों के कर्ज की मदद से और सरकारी-निजी भागीदारी परियोजनाओं के रास्ते हुआ। लेखक 2012 में आई क्रेडिट सुइस की एक रिपोर्ट हाउस ऑफ डेब्ट का हवाला देते हुए गिनाते हैं कि 2007 से भारतीय बैंकों ने चुनिंदा कार्पोरेट को अपना कर्ज 20 प्रतिशत बढ़ा दिया। इसके चक्कर में महज दस कॉरपोरेट समूहों के पास कुल बैंक कर्ज का 13 प्रतिशत इकट्ठा हो गया जो समूचे भारतीय बैंकिंग तंत्र के नेट वर्थ के 98 प्रतिशत के बराबर था। इसी कारण बैंकों को पिछले पांच साल में दस लाख करोड़ रुपए का कॉरपोरेट कर्ज माफ करना पड़ा है। बैंकों और कॉरपोरेट के बीच इस निर्भरता को 2016 के इंसॉल्वेंसी ऐंड बैंकरप्टसी कोड ने और बढ़ावा दिया, जिसके बाद हुए विशाल अधिग्रहण और विलय सौदों ने परंपरागत कारोबारी घरानों के ताबूत में आखिरी कील ठोंक दी। कॉरपोरेट क्षेत्र के अंधाधुंध विकास की इस पूरी कहानी में छोटे और मझोले कारोबारी, उद्यमी, स्वरोजगार करने वाले लोग पूरी तरह गायब हो गए। 

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