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झारखंड: वन्या ने छोड़ी 25 लाख की नौकरी, महिलाओं के लिए बना रही ऑर्गेनिक सैनिटरी पैड

चाटर्ड एकाउंटेंट हो जाना ही किसी का सपना होता है। झारखंड के रांची की वन्‍या वत्‍सल ने सीए के बाद...
झारखंड: वन्या ने छोड़ी 25 लाख की नौकरी, महिलाओं के लिए बना रही ऑर्गेनिक सैनिटरी पैड

चाटर्ड एकाउंटेंट हो जाना ही किसी का सपना होता है। झारखंड के रांची की वन्‍या वत्‍सल ने सीए के बाद आइआइएम लखनऊ से वित्‍त एवं मार्केटिंग में विशेषज्ञता के साथ एमबीए किया। फिर दो साल तक अमेरिकन मल्‍टीनेशनल बैंक में 25 लाख के पैकेज पर बेंगलुरू और मुंबई में दो साल नौकरी की। मगर यह सब उसके रास नहीं आया।

वन्‍या खुद कहती है कि मन में हमेशा सवाल उठता रहा कि महानगरों की भीड़ में गुम हो जाने के बदले अपने ही छोटे शहर में कुछ नया किया जाये। कुछ ऐसा करें कि उसका लाभ अधिक से अधिक लोगों को मिले और कुछ लोगों प्रत्‍यक्ष-अप्रत्‍क्ष रोजगार से भी जोड़ा जा सके। उसे मालूम था कि चुनौती भरा काम है और संभव है इसमें कड़ी मेहनत के बाद भी आमदनी शायद कम हो। मगर उसने जो एजेंडा चुना उसमें उसे यह भी मंजूर था। कहती है कि प्रधानमंत्री के आत्‍मनिर्भर अभियान से उसे प्रेरणा मिली। उसने सैनिटरी पैड्स से संबंधित अपना स्‍टार्टअप प्रारंभ किया है। इलारिया नामक कंपनी बनाकर। अभी चार दिन पहले दीपावली के मौके पर ही लॉंचिंग की। झारखंड, महाराष्‍ट्र, कर्नाटक, एमपी, ओडिशा, प.बंगाल आदि से ऑनलाइन आर्डर भी मिलने लगे हैं। वैसे तो देशी-विदेशी अनेक कंपनियां सैनिटरी पैड बना रही हैं मगर वन्‍या के उत्‍पाद का खास यह है कि यह पूरी तरह आर्गेनिक रूप से तैयार कपास से निर्मित है। रैपर या पैकेट में किसी तरह प्‍लास्टिक का इस्‍तेमाल नहीं किया है। किसी तरह के रंग और प्‍लास्टिक का इस्‍तेमाल न होने से शरीर और प्रकृति दोनों के लिए पूरी तरह सुरक्षित और अनकूल है।

बुक्‍स और बिल्लियां

वन्‍या को अपने काम से फुर्सत मिले तो उसका दूसरा ठिकाना बुक्‍स और बिल्लियां हैं। उसके संग्रह में कोई एक हजार उपन्‍यास और उधम माती दो बिल्लियां हैं। बिल्लियों से प्रेम इस कदर कि बेंगलुरू से रांची लाने के लिए 32 हजार रुपये किराया अदा किया। बताती है कि छोटी बिल्‍ली रेस्‍क्‍यू की गई है। निर्माणाधीन भवन के गिर जाने से इसकी मां-बहनें दब कर मर गईं। लोगों ने निकाला वहीं से इसे मिली। मोह लगा तो साथ ले आई। दूसरी भी कुछ इसी तरह आई। लॉकडाउन में मिली बिल्लियां अकेलेपन का साथी थीं। ठंड में गर्म लिवास पहने बिल्लियां वन्‍या का एक आवाज भी समझती हैं।

ऐसा क्‍यों है, वैसा क्‍यों नहीं

बिल्लियों में उलझी वन्‍या का पैड्स को लेकर अपनी संवेदना, अपना दर्शन है। बोलती है तो बोलती चली जाती है। जब शराब खुले में लोग ले जा सकते हैं तो सैनिटरी पैड काले पॉलीथिन या अखबार के रैपर में क्‍यों खरीदी जाये। पीरियड्स सामाजिक धब्‍बा, अभिशाप नहीं है। देवी-देवता, संत-साध्‍वी से महापुरुष से लेकर मजदूरी करने वाला तक इसलिए जन्‍म ले सके क्‍योंकि मातृशक्ति इस दौर से गुजरती है। इसलिए इस दौरान की परेशानी को कम करने, यह सामान्‍य अवस्‍था है पर खुले विमर्श की जरूरत है। उसकी भाषा थोड़ी क्रांतिकारी होती है, कहती है कि पीरियड की अवधि जो प्राकृतिक जनन चक्र, जीवनदायिनी है, मानव अस्तित्‍व का आधार है उसे अपवित्र क्‍यों माना जाये। इस दौरान उसे पूजन, विधि-विधान, संस्‍कार से क्‍यों अलग रखा जाये। उस अवधि में भी अपनी माता का दूध पीकर जो देवी-देवता, साधु-संत पुरोहित पूज्‍य हैं तो उस अवधि में माता कैसे अशुद्ध हो सकती है।

इसकी कोई कीमत नहीं

वन्‍या कहती है कि कोई भी ऑर्गेनिक, इको फ्रेंडली, बायो डिग्रेडेबल उत्‍पाद महंगा जरूर हो सकता है मगर मां और धरती माता ( पर्यावरण) को होने वाले नुकसान की भरपाई की लागत से कम ही है। कह सकते हैं कि उस नजरिये से इसकी कोई कीमत नहीं है। कुछ यही सब सोच ने इस दिशा में कदम उठाने को प्रेरित किया। हमारे उत्‍पाद की पैकेजिंग भी कुछ इस तरह है कि आप ड्राइंग रूम में भी रख दें तो गिफ्ट पैक की तरह दिखेगा, उसके सामने रहने पर आपको संकोच नहीं होगा।

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