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आरे कॉलोनी की तरह इन जगहों पर भी लोग सड़क पर उतरे, जान देकर की पेड़ों की रक्षा

मायानगरी कही जाने वाली मुंबई इन दिनों एक ऐसे प्रदर्शन की वजह से सुर्खियों में है, जिसमें लोग पर्यावरण...
आरे कॉलोनी की तरह इन जगहों पर भी लोग सड़क पर उतरे, जान देकर की पेड़ों की रक्षा

मायानगरी कही जाने वाली मुंबई इन दिनों एक ऐसे प्रदर्शन की वजह से सुर्खियों में है, जिसमें लोग पर्यावरण को बचाने के मकसद से पेड़ कटाई का विरोध कर रहे हैं। मामला मुंबई की आरे कॉलोनी का है, जहां प्रशासन की ओर से करीब 2500 पेड़ों की कटाई शुरू की गई है। इन पेड़ों को काटकर यहां मेट्रो रेल डिपो बनाने की योजना है, लेकिन वहां के लोग पेड़ कटाई के विरोध में सड़कों पर उतर आए हैं और प्रदर्शन किया। इस दौरान 29 वप्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया था। हालांकि सोमवार यानी आज उन्हें छोड़ दिया गया। यह देश का कोई पहला ऐसा जनांदोलन नहीं है, जो पर्यावरण को बचाने के लिए किया जा रहा है। इससे पहले भी कुछ बड़े जनांदोलन हुए हैं, जिन्‍होंने हमारे पर्यावरण की रक्षा के लिए बड़ी अहम भूमिका निभाई है। ये आंदोलन न सिर्फ आजादी के बाद ही बल्कि आजादी से पहले भी चलाए गए थे जो पूरी तरह से पर्यावरण को समर्पित थे। आइए जानते हैं इनके बारे में-

बिश्नोई आंदोलन

साल 1730 में जोधपुर के महाराजा अभय सिंह ने अपना नया महल बनवाने की योजना बनाई, लेकिन जब इसके लिए लकड़ी की जरूरत पड़ी तो सामने आया कि राजस्‍थान में तो लकड़ियों का अकाल है। महाराज ने लकड़ियों का इंतजाम करने के लिए सैनिकों को भेजा। सैनिक पेड़ का इंतजाम करने के लिए बिश्‍नोई समाज के गांव खेजरी पहुंचे। यहां पर पेड़ बड़ी संख्‍या में थे। गांव की निवासी अमृता देवी को इसकी भनक लगी तो उन्‍होंने इसका विरोध किया।

उन्‍होंने पेड़ से लिपटकर अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। उन्हें देखकर उनकी बेटियां भी पेड़ों से लिपट गईं। उनकी भी जान चली गई। यह खबर जब गांव में फैली तो पेड़ों को बचाने के लिए बिश्‍नोई समाज के लोगों ने आंदोलन शुरू किया। इसमें करीब 363 लोगों ने उस आंदोलन में अपने प्राणों की आहुति दी। बिश्नोई समाज के लोग पेड़ों की पूजा करते थे। इसके बाद 1972 में देश में शुरू हुआ चिपको आंदोलन, जो इसी से प्रेरित था।

छत्तीसगढ़ का कोई विद्रोह

बस्त‍र की दोरली भाषा में कोई का अर्थ है, वनों और पहाडों में रहने वाले लोग। साल 1859 में फोतकेल के जमीन्दार नागुला दोरला ने भेपालपट्टनम के ज़मीन्दार राम भेई और भेजी के ज़मीन्दार जुग्गाराजू के साथ मिलकर पेड़ों को काटे जाने को लेकर विद्रोह किया था। इसके बाद आदविासियों ने पेड़ न कटने देने की सूचना अंग्रेजों के हैदराबाद के ठेकेदारों को दी। सूचना मिलने के बाद अंग्रेजों ने नागुला के खिलाफ बंदूकधारी सिपाही भेजे। आदिवासियों ने अंग्रेजों की लकड़ी की टालें जला दीं और आरा चलाने वालों को मार डाला। उन्होने इस दौरान 'एक साल वृक्ष के पीछे एक व्यक्ति का सिर' का नारा दिया। अंग्रेज़ों और हैदराबाद के ठेकेदारों में मजबूरी में नागुला के साथ समझौता कर लिया। सिरोंचा के डिप्टी कमिश्नर ने अपनी हार मानकर बस्तर से लकड़ी काटने की ठेकेदारी प्रथा को ही समाप्त कर दिया।

चिपको आंदोलन

पेड़ों को बचाने के लिए चिपको आंदोलन की शुरुआत उत्‍तराखंड (उस समय यूपी का हिस्‍सा) के चमोली जिले में गोपेश्वर में की गई थी। इस आंदोलन की शुरुआत चंडीप्रसाद भट्ट, गौरा देवी और सुंदरलाल बहुगुणा समेत अन्‍य लोगों की ओर से 1973 में की गई थी। इन लोगों ने इस आंदोलन का नेतृत्‍व किया। इस आंदोलन को जंगलों को अंधाधुंध और अवैध कटाई से बचाने के लिए किया गया था।

इस आंदोलन के तहत लोग पेड़ों को बचाने के लिए उनसे लिपट जाते थे, जिसके कारण इसका नाम चिपको आंदोलन पड़ा। लोग ठेकेदारों को पेड़ नहीं काटने देते थे। तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहूगुणा को हस्तक्षेप करना पड़ा और उन्होंने इसके लिए कमेटी बनाई। कमेटी ने ग्रामीणों के पक्ष में फैसला दिया। 1980 में लोगों की जीत हुई और तत्‍कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने हिमालयी वन क्षेत्र में पेड़ों की कटाई पर 15 साल के लिए रोक लगा दी थी। यह आंदोलन बाद में कई अन्‍य राज्‍यों तक फैल गया।

कर्नाटक का एप्पिको आंदोलन

कर्नाटक के उत्‍तर कन्‍नड़ और शिमोगा जिले में वन क्षेत्र और पेड़ों को बचाने के लिए यह आंदोलन चिपको आंदोलन की तर्ज पर 1983 में शुरू किया गया था। यह आन्दोलन वनों की सुरक्षा के लिए कर्नाटक में पांडूरंग हेगड़े के नेतृत्व में चलाया गया था। स्‍थानीय लोग ठेकेदारों द्वारा पेड़ों की कटाई का विरोध कर रहे थे। इस आंदोलन के तहत लोगों ने मार्च निकाले, नुक्‍कड़ नाटक किए। आंदोलन लगातार 38 दिनों तक चलता रहा। आंदोलन ने सरकार को पेड़ों की कटाई रुकवाने का आदेश देने के लिए मजबूर कर दिया था। आंदोलन के अधिक चर्चित हो जाने के बाद पेड़ काटने गए मजदूर भी पेड़ों की कटाई छोडक़र चले गए। अंत में लोगों की जीत हुई।

बिहार का जंगल बचाओ आंदोलन

जंगल बचाओ आंदोलन की शुरुआत 1982 में बिहार के सिंहभूम जिले में हुई थी। बाद में यह आंदोलन झारखंड और उड़ीसा तक फैला। सरकार ने बिहार के जंगलों को सागौन के पेड़ों के जंगलों में तब्‍दील करने की योजना बनाई थी। इस योजना के खिलाफ बिहार के सभी आदिवासी कबीले एकजुट हुए और उन्होंने अपने जंगलों को बचाने के लिए जंगल बचाओ आंदोलन चलाया।

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