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क्या बस्तर में 'कैंप' खोलने से ही होगा आदिवासियों का विकास?

"हम 'कैंप' बना रहे हैं सड़क बनाने के लिए, जब सड़कें बनेंगी तभी स्कूल बनेंगे और यहां आधारभूत सुविधाएं...
क्या बस्तर में 'कैंप' खोलने से ही होगा आदिवासियों का विकास?

"हम 'कैंप' बना रहे हैं सड़क बनाने के लिए, जब सड़कें बनेंगी तभी स्कूल बनेंगे और यहां आधारभूत सुविधाएं उपलब्ध होंगी। अब इसका विरोध यहां के ग्रामीण तो कर नहीं सकते। आप समझ सकते हैं कि इसका विरोध कौन कर रहे हैं? "

छत्तीसगढ़ सरकार के प्रवक्ता और कृषि मंत्री रविंद्र चौबे ने 'आउटलुक' को यह बयान ऐसे समय में दिया है जब बीजापुर-सुकमा जिले के सरहद पर स्थित सिलगेर में सुरक्षाबलों के कैंप स्थापित करने के खिलाफ लगातार विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। वहीं प्रदर्शन के दौरान 17 मई को हुई गोलीबारी की घटना में 3 लोगों की मौत ने इस आंदोलन को और हवा दे दी है।

कृषि मंत्री का दावा है कि यहां जुटे लोग सिलगेर के रहने वाले नहीं हैं। वे 10-15 किलोमीटर दूर से आए हैं। चौबे ने कहा, "लोगों को इकट्ठा किया गया है। ये कौन कर रहा है? बाकी किसकी मौत हुई है इसकी सच्चाई भी जांच के बाद सामने आ जाएगी।"

यह गतिरोध तब शुरू हुआ जब सरकार की ओर से 12 मई को सिलगेर में सुरक्षाबलों का कैंप स्थापित किया गया। ग्रामीणों का कहना है कि उनकी सहमति के बगैर ऐसे कैंप स्थापित करना सही नहीं हैं। इस कैंप के खिलाफ कई गांवों के लोग यहां इकट्ठा होने लगे। 17 मई को भी बड़ी संख्या में ग्रामीण वहां पहुंचे थे। पुलिस के मुताबिक, "ग्रामीणों ने शिविर पर पथराव शुरू कर दिया। इस दौरान नक्सली भी वहां मौजूद थे। पथराव के दौरान ही नक्सलियों ने सुरक्षा बलों पर गोलीबारी शुरू कर दी, जिसका सुरक्षा बलों ने जवाब दिया। इस घटना में तीन लोगों की मौत हो गई और पांच अन्य घायल हो गए। "

जबकि ग्रामीणों का कहना है कि 17 मई को प्रदर्शन के दौरान सुरक्षाबल के जवानों के बीच बहस शुरू हुई और सुरक्षाबल के जवानों ने लाठी चार्ज कर दिया। लाठी चार्ज के बाद भी जब वो नहीं माने और कैंप की ओर बढ़े तो जवानों ने गोलीबारी शुरु कर दी। ग्रामीणों ने आरोप लगाया है कि घटना में ग्रामीणों की मौत हुई है। इस दौरान वहां नक्सली मौजूद नहीं थे।

अब ग्रामीणों का प्रदर्शन कैंप के विरोध के साथ-साथ गोलीकांड की न्यायिक जांच की मांग की ओर भी केंद्रित हो गया है। हालांकि नियमानुसार सरकार ने दंडाधिकारी जांच के आदेश दिए हैं।

बता दें कि यह कैंप के खिलाफ ग्रामीणों की नाराजगी की पहली घटना नहीं है। इससे पहले बीते साल दिसंबर में राज्य के कांकेर जिले में भी ग्रामीणों का आक्रोश देखने के लिए मिला था। यहां कोयलीबेड़ा ब्लॉक के करकाघाट और तुमराघाट में खुले बीएसएफ कैंप का भारी विरोध हुआ था। यहां ग्रामीणों का आरोप था कि बीएसएफ का कैंप आदिवासी धर्म स्थल पर लगाया गया है। यह पांचवीं अनुसूची का उल्लंघन है।

'लोगों का विश्वास नहीं जीत पाई कांग्रेस'

राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह भी मानते हैं कि इन इलाकों में कैंप खुलना जरूरी है। लेकिन वे जोर देकर कहते हैं कि इसके लिए आदिवासियों को विश्वास में लेना भी आवश्यक है। उन्होंने आउटलुक से कहा, " हमने कार्ययोजना बनाकर नक्सलियों को काफी पीछे खदेड़ा था। हम लोगों ने भी 25-30 कैंप खोले थे, नए थाने और चौकी बनाए थे लेकिन यहां कोई समस्या उत्पन्न नहीं हुई थी। वहीं इन्होंने नया कैंप खोल दिया है तब 10 हजार आदिवासी विरोध में बैठे हैं।" 

छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह

पूर्व मुख्यमंत्री ने भूपेश सरकार से पूछा है, "क्या आप आदिवासियों को विश्वास में लेकर काम नहीं कर सकते ?" डॉ रमन सिंह दावा करते हैं कि कांग्रेस राज्य में चुनाव भले जीत गई है लेकिन वह लोगों का भरोसा नहीं जीत पाई है।


'कांग्रेस समझती है कैंप होना क्यों है जरूरी'

कांग्रेस सरकार का साफ कहना है कि माओवाद से लड़ाई और क्षेत्र के विकास के लिए कैंप खोलना बेहद जरूरी है। कांग्रेस के प्रवक्ता शैलेश नितिन त्रिवेदी बताते हैं कि अभी इस इलाके में 6 कैंप और खोले जाएंगे। त्रिवेदी कहते हैं, "हिड़मा का गांव यहां से ढाई किलोमीटर दूर है, ऐसे में आज यहां कैंप लग जाएगा तो उसका यहां रहना संभव नहीं हो पाएगा। यहां सरकार और पुलिस का प्रभुत्व बढ़ जाएगा। इसलिए यह विरोध ग्रामीणों से करवाया जा रहा है। "

उन्होंने कहा कि अगर माओवाद खत्म करना है तब यहां कैंप तो स्थापित करने ही पड़ेंगे।

छत्तीसगढ़ के कृषि मंत्री रविन्द्र चौबे

बस्तर अंचल में कैंप खोलने की पैरवी करते हुए कृषि मंत्री चौबे कहते हैं कि कांग्रेस कैंप नहीं होने का दंश समझती है। वे सवालिया लहजे में कहते हैं, "अगर झीरमघाटी में कैंप होता तो क्या उस दिन हम नंदकुमार पटेल और महेंद्र कर्मा जैसे नेताओं को खो देते?" 

कैंप का विरोध क्यों?

आखिर कैंप से ग्रामीणों को परेशानी क्यों है? कहीं ऐसे विरोध प्रदर्शन माओवादियों के इशारे पर तो नहीं हो रहे हैं? इस सवाल पर बस्तर अंचल में सक्रिय मानवाधिकार कार्यकर्ता और वकील बेला भाटिया कहती हैं कि हो सकता है कि माओवादी भी यहां खनन, कैंप आदि नहीं चाहते होंगे। लेकिन यह तथ्य भी सही है कि यहां के लोग भी यह नहीं चाहते। सुरक्षाबलों से उन्हें डर लगता है। वे असहज महसूस करते हैं। कैसे एकतरफा कार्रवाई होती है यह यहां के आदिवासी कई दशकों से देख रहे हैं।"

विरोध प्रदर्शन के पीछे माओवादियों का हाथ होने के आरोप को नकारते हुए वे कहती हैं, "10 हजार से 15 हजार लोगों को कोई डर दिखा कर इकट्ठा नहीं कर सकता।"

पूर्व विधायक और आदिवासी महासभा के महासचिव मनीष कुंजाम भी राज्य सरकार के इस रवैये पर नाराजगी जाहिर करते हैं। उन्होंने आउटलुक से कहा, "ये सरकार अपने वादे के विपरीत कार्य कर रही है। पेसा कानून को प्रभावी ढंग से लागू करने से भी पीछे हट गई है। वह लगातार नए कैंप खोलने में लगी हुई है। नक्सल मामलों पर बीजेपी जिस लीक पर चल रही थी ठीक उसी नक्शेकदम पर भूपेश सरकार भी चल रही है। "


'सड़कें चाहिए लेकिन इतनी चौड़ी नहीं'

सवाल उठना लाजिमी है कि क्या इन क्षेत्रों का विकास तभी हो पाएगा जब यहां कैंप खुलेंगे और चौड़ी-चौड़ी सड़कें बनेंगी ?

'नक्सलबाड़ी अबूझमाड़: नक्सलवाद पर केंद्रित बातचीत' पुस्तक के लेखक और वरिष्ठ पत्रकार आलोक पुतुल सरकार के इन दावों पर सवाल उठाते हुए कहते हैं, "राज्य सरकार जब कहती है कि कैंपों के निर्माण से विकास की नई इबारत गढ़ी जा रही है तो उसे बताना चाहिए कि सरकार के बाकी हिस्से विकास की इस तस्वीर में कहां हैं? गांवों के स्कूल, अस्पताल, राशन दुकान, आंगनबाड़ी क्यों बंद हैं? राज्य सरकार को अपनी विकास की प्राथमिकता तय करनी होगी।"

बेला भाटिया भी कहती हैं, "यहां के ग्रामीणों को आंगनबाड़ी, स्कूल और अस्पताल चाहिए। वे इसकी मांग भी करते हैं। बेशक यहां के आदिवासियों को सड़कें भी चाहिए लेकिन इतनी चौड़ी नहीं। सरकार को इसे समझना होगा।"

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