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वैक्सीन गड़बड़झाला: इन वजहों से टीकाकरण कार्यक्रम पटरी से उतरा

“अस्पष्ट नीति, समय पर ऑर्डर न देने, राज्यों के साथ भेदभाव और तिहरी मूल्य प्रणाली की वजह से वैक्सीन...
वैक्सीन गड़बड़झाला: इन वजहों से टीकाकरण कार्यक्रम पटरी से उतरा

“अस्पष्ट नीति, समय पर ऑर्डर न देने, राज्यों के साथ भेदभाव और तिहरी मूल्य प्रणाली की वजह से वैक्सीन कार्यक्रम मकसद से दूर”

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 8 अप्रैल को जब देश में तीन दिनों के ‘टीका उत्सव’ का ऐलान किया तब भी कोविड वैक्सीनेशन की कोई स्पष्ट नीति नहीं थी। राज्यों को केंद्र के सख्त निर्देश पर टीके खरीदने के आदेश दिए गए थे और केंद्र अपने हिसाब से टीके उपलब्ध करा रहा था। विपक्ष सार्वजनिक टीकाकरण अभियान चलाने की मांग कर रहा था, पर केंद्र सरकार मुट्ठी खोलने को तैयार नहीं थी। फिर भी कुछ लोग यही उम्मीद कर रहे थे कि कोरोना के खिलाफ लड़ाई अब आखिरी चरण में पहुंच गई है और जल्द ही वैक्सीन लगने के साथ जीवन पटरी पर आ जाएगा। कुछ उसके पहले अंतरराष्ट्रीय मंचों पर प्रधानमंत्री के कोविड विजय के दावे का हवाला देने लगे तो कुछ केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन के 7 मार्च के बयान का, कि कोविड अब तो बस विदा होने की राह पर है। लेकिन महीने भर में दावे हवा हुए तो लोग हक्काबक्का रह गए।

आज हालात ये हैं कि देश के अनेक वैक्सीन सेंटर में वैक्सीन नहीं है। लोगों को कोविन पोर्टल पर वैक्सीन के लिए स्लॉट नहीं मिल रहा है। बार-बार दूसरा डोज लगवाने की बदलती पॉलिसी ने पहला डोज लगवा चुके लोगों के लिए नई मुसीबत खड़ी कर दी है। उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि आगे क्या करना है? कई राज्य पैसा चुका कर वैक्सीन खरीदने की गुहार लगा रहे हैं लेकिन केंद्र ने वैक्सीन का ऑर्डर दिया हो तब न मिले। पहले तो वह ‘वैक्सीन मैत्री’ का दावा करके वाहवाही बटोर रही थी लेकिन बाद में पता चला कि उसमें तीन-चौथाई से ज्यादा तो भारत में टीका बना रही कंपनियों को विदेश से मिले अग्रिम ऑर्डर के तहत निर्यात किए गए। वैक्सीन की भारी कमी उजागर होने और राज्यों की मांग से घबराए केंद्र ने उन्हें सीधे ग्लोबल टेंडर जारी करके खुद से वैक्सीन खरीदने की छूट दे दी।

सबसे पहले ग्लोबल टेंडर जारी किया उत्तर प्रदेश ने, जहां गंगा में लाशों के बहने की खबरों से तहलका मचने लगा था। बाकी कई राज्यों ने भी ऐसा किया लेकिन इसकी भी असलियत जल्दी ही सामने आ गई। फाइजर और मॉडर्ना कंपनियों ने दिल्ली, पंजाब जैसे राज्यों को सीधे वैक्सीन देने से इनकार कर दिया और कहा कि वे भारत सरकार के अलावा किसी से सौदा नहीं करेंगी।

जाहिर है, वैक्सीनेशन कार्यक्रम औंधे मुंह गिर पड़ा है। हालात ऐसे हो गए हैं कि अनेक वैक्सीन सेंटर पर ‘वैक्सीन नहीं है’ के बोर्ड लटक गए हैं। ऐसी स्थिति में तो कुछ लोग वैक्सीन लगवाने की उम्मीद ही छोड़ चुके हैं। गुरुग्राम की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करने वाले रत्नेश त्रिपाठी कहते हैं, ‘‘एक मई से इस उम्मीद में रोज कोविन पोर्टल पर लॉग इन करता हूं कि वैक्सीन के लिए स्लॉट मिल जाएगा, लेकिन 25 दिन हो गए, आज तक स्लॉट नहीं मिला। अगर वैक्सीन देनी ही नहीं थी तो फिर ऐलान क्यों किया कि सबको टीका मिलेगा। मैं तो पैसा देकर भी वैक्सीन लगवाने को तैयार हूं, पर निजी अस्पतालों में भी ऐसा ही हाल है।’’

 

डोज में फासले पर सवाल

वैक्सीन की किल्लत बढ़ने के साथ वैक्सीनेशन कैसे घटती जा रही है, इसकी बानगी देखिए। 26 अप्रैल को देश में 31.95 लाख डोज लगाई गई थी। उसमें से 19.13 लाख पहली डोज थी और 12.82 लाख दूसरी डोज थी। वह 25 मई को घटकर केवल 20.63 लाख डोज रह गई। उससे भी चौंकाने वाली बात यह है कि दूसरी डोज केवल 1.98 लाख लोगों को मिली है। यानी जो लोग पहला डोज लगवा चुके हैं, उन्हें दूसरी डोज मिलने में देरी हो रही है। इस उलझन को देवरिया के रहने वाले प्रमोद कुमार बताते हैं, ‘‘6 अप्रैल को वैक्सीन की पहली डोज लगवाई थी, और बोला गया था कि दूसरी डोज 45 दिन बाद लगेगी। लेकिन तय वक्त पर पहुंचा तो बोल दिया गया अब 80 दिन बाद लगेगी। इस बीच मुझे कोरोना हो गया तो फिर वैक्सीन लगवाने का क्या फायदा? सरकार ऐसे बीच में किस आधार पर नियम बदल रही है? उससे वैक्सीन का फायदा ही नहीं होगा।’’

जाहिर है, लोग यह समझने लगे हैं कि सरकार डोज के बीच नियम किसी वैज्ञानिक आधार पर नहीं, बल्कि सप्लाई के लिहाज से बदल रही है। 16 जनवरी को जब देश में वैक्सीनेशन शुरू हुआ तो कोविशील्ड और कोवैक्सीन की दूसरी डोज में 28 दिनों का अंतर रखा गया था। मार्च के तीसरे हफ्ते तक ऐसा ही चलता रहा। फिर 23 मार्च को सरकार ने फैसला किया कि कोविशील्ड की दूसरी डोज के लिए 6-8 हफ्ते का अंतर होना चाहिए जबकि कोवैक्सीन की स्थिति में कोई बदलाव नहीं किया गया। इसके पीछे सरकार का तर्क यह था कि ऐसा करने से कोविड-19 के खिलाफ वैक्सीन कहीं ज्यादा प्रभावी रहेगी। ब्रिटेन की वैक्सीन एस्ट्राजेनेका को ही भारत में कोविशील्ड के नाम से सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया तैयार कर रही है। एस्ट्राजेनेका का दावा था कि उसके ट्रॉयल में पाया गया है कि 6 हफ्ते के अंदर दूसरा डोज देने पर वैक्सीन 54.9 फीसदी कारगर थी, जबकि 8 हफ्ते पर यह बढ़कर 59.9 फीसदी हो जाती है।

वैक्सीन की किल्लत इतनी बढ़ गई है कि पूरे देश में अनेक टीकाकरण केंद्र अस्थायी रूप से बंद करने की नौबत आ गई

मार्च में उठाए गए इस कदम को लोगों ने आसानी से स्वीकार भी कर लिया। लेकिन फिर 13 मई को सरकार ने नई स्टडी का हवाला देते हुए दूसरे डोज के अंतर को 12-16 हफ्ते कर दिया। इसके लिए सरकार ने ब्रिटेन का हवाला दिया। लेकिन अहम बात यह है कि केंद्र सरकार ने जिस ब्रिटेन की स्टडी का हवाला दिया है, उसने दो डोज के बीच के अंतर को घटा दिया है। उसने ऐसा भारत में दूसरी लहर के दौरान पाए गए स्ट्रेन बी.1.617.2 की रोकथाम के लिए किया है। नई नीति का ऐलान करते हुए प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने कहा कि 50 साल से अधिक उम्र के लोगों और बीमारों को वैक्सीन की दूसरी डोज जल्दी लगाई जाएगी। पहले दो डोज के बीच 12 सप्ताह का अंतर रखा गया था, अब इसे घटाकर 8 सप्ताह कर दिया गया है। इंग्लैंड के चीफ मेडिकल ऑफिसर कृश व्हिटी ने कहा, यह बात स्पष्ट है कि बी.1.617.2 स्ट्रेन ब्रिटेन के पुराने केंट वैरिएंट से ज्यादा संक्रामक है। अब सवाल उठता है कि भारत में पाए जाने वाले जिस वैरिएंट के डर से ब्रिटेन अपने यहां दूसरे डोज के अंतर को घटा रहा है, तो जिस वैरिएंट ने भारत ने इतनी तबाही मचाई वहां क्यों दूसरे डोज का अंतर बढ़ाया जा रहा है। इस पर वॉयरोलॉजिस्ट टी.जैकब.जॉन कहते हैं, ‘‘मोटे तौर पर तो यही लगता है कि सरकार वैक्सीन की कमी पर परदा डालनेे के लिए ऐसा कर रही है।’’

25 मई तक के आंकड़ों के अनुसार  देश में 2.71 करोड़ लोग कोरोना संक्रमित हो चुके हैं। मौतों का आकड़ा 3 लाख पार कर चुका है, जो अमेरिका और ब्राजील के बाद दुनिया में तीसरे नंबर पर है। मई के 25 दिनों में एक लाख लोगों की मौत हुई है। यानी औसतन हर रोज 4000 लोग मर रहे हैं। ऐसे हालात में वैक्सीन की किल्लत बड़ी समस्या बन गई है।

 

वैक्सीन किल्लत का असर

वैक्सीन को लेकर सरकार की तैयारियों पर पूर्व केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम कहते हैं, ‘‘मोदी सरकार यह नहीं कह सकती है कि उसे पता नहीं था कि वैक्सीन की ऐसी किल्लत हो सकती है। अगर उसने वैक्सीनेशन में तेजी नहीं लाई तो तीसरी लहर को नहीं रोका जा सकेगा।’’

चिदंबरम जिस तीसरी लहर की बात कर रहे हैं, उसे खुद सरकार ने माना है। सरकार के प्रधान वैज्ञानिक सलाहकार के.विजयराघवन के अनुसार जिस तरह से संक्रमण फैला हुआ है, उसे देखते हुए कोरोना की तीसरी लहर आना तय है। 6 मई को स्वास्थ्य मंत्रालय की प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान उन्होंने कहा, ‘‘हमें यह नहीं पता कि तीसरी लहर कब आएगी लेकिन हमें उसके लिए तैयार रहना चाहिए।’’ राघवन जिस तीसरी लहर का अंदेशा जता रहे हैं, उसकी बड़ी वजह भारत में पहली और दूसरी लहर का पैटर्न है। भारत में मार्च 2020 में संक्रमण के मामले सामने आए थे, और वह सितंबर में चरम पर पहुंचा था। उस समय एक दिन में 98 हजार तक लोग संक्रमित हुए थे। इसी तरह दूसरी लहर अप्रैल 2021 से जब शुरू हुई तो उसका चरम 4 मई के करीब रहा, जब एक दिन में 4 लाख से ज्यादा लोग संक्रमित हो रहे थे।

 

तीसरी लहर के पहले

अमेरिका में जनवरी 2020 से लेकर मई 2021 तक चार लहर आ चुकी है। इसीलिए यह आशंका जताई जा रही है, कि भारत में भी तीसरी लहर आएगी और वह बच्चों पर ज्यादा असर कर सकती है। विशेषज्ञों का कहना है कि तीसरी लहर के समय ज्यादातर वयस्क लोगों को वैक्सीन लग चुकी होगी। ऐसे में बच्चे कोरोना के शिकार हो सकते हैं। हालांकि विशेषज्ञ यह बात सरकार के दावे के आधार पर कह रहे हैं। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री डॉ. हर्षवर्धन के मुताबिक, ‘‘31 दिसंबर 2021 तक देश के सभी वयस्कों को वैक्सीन लग चुकी होगी। इसके तहत सरकार जुलाई तक 51 करोड़ वैक्सीन की डोज खरीद चुकी होगी और अगस्त से दिसंबर के बीच 216 करोड़ वैक्सीन डोज खरीदी जाएगी।’’

तैयारी कितनीः कैप्टन अमरिंदर, केजरीवाल, ममता और ठाकरे वैक्सीन उपलब्धता की शिकायत कर चुके हैं। स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन के अनुसार 31 दिसंबर तक सभी वयस्कों को वैक्सीन

 

हालांकि उनके इस दावे को चिदंबरम नकारने के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) और विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट का हवाला देते हैं। आइएमएफ ने कहा है कि वैक्सीन की मौजूदा स्थिति को देखते हुए दिसंबर 2021 तक देश की केवल 35 फीसदी जनसंख्या का ही वैक्सीनेशन हो पाएगा।

 

कंपनियां और सौदेबाजी

लेकिन सरकार कहां से इतनी वैक्सीन लाएगी? उसका दावा है कि अगस्त से दिसंबर के बीच कोविशील्ड की 75 करोड़, कोवैक्सीन की 55 करोड़ और रूस की स्पूतनिक-वी की 15.6 करोड़ वैक्सीन मिल जाएगी। लेकिन मौजूदा उत्पादन स्थितियों को देखते हुए ऐसा लगता नहीं। केंद्र ने राज्यों को खरीदने की छूट तो दे दी, मगर कंपनियों के इनकार की क्या वही वजह है जो बताई जा रही है। कंपनियों के इनकार करने की बड़ी वजह यह है कि विदेशी कंपनियां भारत को वैक्सीन निर्यात करने से पहले नियमों में छूट चाहती हैं। सूत्रों के अनुसार इस संबंध में भारत सरकार और दो विदेशी कंपनियों के बीच कई दौर की बातचीत हो चुकी है। इसके तहत फाइजर ने अक्टूबर 2021 तक सरकार को 5 करोड़ डोज देने का ऑफर किया है। जुलाई और अगस्त में एक करोड़ डोज देने का ऑफर है। मॉडर्ना ने 2022 में अपनी सिंगल डोज देज का ऑफर दिया है। ये दोनों कंपनियां वैक्सीनेशन के बाद किसी भी तरह की जिम्मेदारी और मुआवजे की शर्तों से छूट चाहती हैं। साथ ही केंद्रीय औषधि प्रयोगशाला (सीडीएल) में परीक्षण की अनिवार्यता में भी वे छूट चाहती हैं। साफ है कि मौके का फायदा कंपनियां उठाना चाहती हैं। उन्हें पता है कि दूसरी लहर की वजह से दुनिया का सबसे बड़ा वैक्सीन निर्माता देश, भारत केवल सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एसआइआइ) और भारत बॉयोटेक के भरोसे वैक्सीन की जरूरत पूरी नहीं कर सकता है।

 

कीमतों का खेल

सीरम इंस्टीट्यूट और भारत बॉयोटेक की तिहरी मूल्य प्रणाली का राज क्या है? दोनों केंद्र को तो प्रति वैक्सीन 150 रुपये में दे रही हैं लेकिन राज्यों को सीरम 400 रुपये और बॉयोटेक 600 रुपये में एक डोज दे रही है। निजी क्षेत्र के लिए सीरम की कीमत 600 रुपये और बॉयोटेक की 1200 रुपये है। यह किसने और किस आधार पर तय किया? सीरम के अदार पूनावाला तो एनडीटीवी के इंटरव्यू में कबूल कर चुके हैं कि 150 रुपये में भी उन्हें लाभ ही है। मामला यही नहीं है, कांग्रेस या समूचा विपक्ष कह रहा है कि सबको मुफ्त टीकाकारण मुहैया कराना चाहिए तो केंद्र क्यों राजी नहीं हुआ? इन सभी प्रश्रों पर सुप्रीम कोर्ट ने भी सवाल किया था तो केंद्र का टका-सा जवाब था कि उसे कार्यपालिका की बुद्धि पर भरोसा करना चाहिए। दरअसल विपक्ष यह भी पूछ रहा है कि बजट में वैक्सीन के लिए जो 35,000 करोड़ रुपये का प्रावधान था, उसका क्या हुआ? इतने में तो देश के 100 करोड़ लोगों को वैक्सीन मुहैया कराई जा सकती थी। देश में इसके लिए करीब 200 करोड़ वैक्सीन चाहिए और 150 रु. प्रति वैक्सीन के आधार पर तो कीमत 30,000 करोड़ रुपये ही बैठती है। वाकई यह पहेली ही है। 

 

पहले तैयारी क्यों नहीं

अब सवाल उठता है कि अमेरिका, यूरोप की तरह भारत सरकार ने पहले से तैयारी क्यों नहीं की। अमेरिका ने कंपनियों में टीका बनाने के लिए 44 हजार करोड़ रुपये का निवेश किया और अगस्त 2020 में अपने लिए 40 करोड़ वैक्सीन डोज बुक कर ली। इसी तरह यूरोपीय संघ ने नवंबर 2020 में 80 करोड़ डोज की एडवांस बुकिंग कर ली थी। भारत सरकार ने जनवरी 2021 में 1.60 करोड़ डोज का पहला ऑर्डर दिया।


बजट में वैक्सीन के लिए 35,000 करोड़ रुपये रखे गए थे, इससे देश के 100 करोड़ लोगों को वैक्सीन मुहैया कराई जा सकती है

इस बीच सरकार के वैक्सीन निर्यात के फैसले से भी संकट बढ़ गया। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में यह हलफनामा दिया है कि देश में हर महीने 8.5 करोड़ वैक्सीन का उत्पादन हो रहा है। इसी तरह केरल हाइकोर्ट को उसने बताया है कि देश में उत्पादित 57 फीसदी वैक्सीन ही नागरिकों को दी जा रही है। बाकी वैक्सीन कहां जा रही है, इसका उल्लेख सरकार ने नहीं किया है। एक बात और समझने वाली है कि सरकार ने मार्च के बाद ही वैक्सीन निर्यात पर प्रतिबंध लगाया है। उस समय तक उसने 6.5 करोड़ वैक्सीन निर्यात कर दी थी। साफ है कि अगर यह वैक्सीन देश में इस्तेमाल हुई होती तो करीब 20-25 दिन का अतिरिक्त वैक्सीन स्टॉक होता।

जाहिर है कि वैक्सीन पॉलिसी पूरी तरह से लड़खड़ा गई है। हमें तीसरी लहर से बचना है तो हर हाल में लोगों का वैक्सीनेशन कराना होगा। नहीं तो अगर राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की चेतावनी सच साबित हुई तो वाकई आने वाली पीढ़ियां जिम्मेदार लोगों को माफ नहीं करेंगी।

 

एम्स में भी किल्लत

 

महामारी कोविड-19 की दूसरी लहर में देश में स्वास्थ्य सुविधाएं कैसे चरमरा गईं, यह अब किसी से छुपा नहीं है। क्या पिछले साल पहली लहर के बाद स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार की पहल हुई? और हुई भी कितनी? देश के प्रमुख स्वास्थ्य संस्थान एम्स (अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान) की स्थिति निश्चित ही इस बारे में बाखबर कर सकती है। दिल्ली के अलावा लगभग हर राज्य में एम्स निर्माण के दावे बढ़-चढ़कर किए जाते हैं लेकिन ज्यादातर में बेड ही कम हैं और कई तो अभी निर्माणाधीन हैं। हालात इशारा कर रहे हैं कि पिछले साल आई कोविड-19 की पहली लहर के बाद भी सरकार सोती रही और सुविधाओं को बढ़ाने की दिशा में महज आदेश ही जारी होते रहे।

उत्तराखंड के काशीपुर निवासी वकील और आरटीआइ एक्टिविस्ट नदीम उद्दीन को आरटीआइ के जरिए मिली जानकारी के मुताबिक देश के 10 एम्स में बिस्तरों की कुल क्षमता 4214 है। इसमें 382 आइसीयू तथा 309 वेंटिलेटर बेड शामिल हैं। उत्तर प्रदेश के दो एम्स अभी निर्माणाधीन हैं तो बंगाल के एक एम्स में अस्पताल अभी शुरू नहीं हो सका है। जबकि केंद्र सरकार लंबे समय से इसका दावा कर रही है। उत्तराखंड के ऋषिकेश, हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर, मध्य प्रदेश के भोपाल और छत्तीसगढ़ के रायपुर के एम्स से बार-बार अपील के बाद भी सुविधाओं के बारे में कोई सूचना उपलब्ध नहीं कराई गई।

देश भर के एम्स में बिस्तरों का हवाला आरटीआइ से मिली जानकारी के मुताबिक इस प्रकार है। एम्स दिल्ली में 1162,  भुवनेश्वर (ओडिशा) में 922, जोधपुर (राजस्थान) में 960, पटना (बिहार) में 960, मंगलागिरी (आंध्र प्रदेश) में 50, नागपुर (महाराष्ट्र) में 80, बठिंडा (पंजाब) में 20, तथा बीबीनगर (तेलंगाना) में कुल 50 बेड उपलब्ध हैं। देश के 10 एम्स में कुल आइसीयू बेड की संख्या 382 है। इसमें एम्स दिल्ली के मुख्य अस्पताल में 92, भुवनेश्वर में 63, जोधपुर में 130, पटना में 82, मंगलागिरी में 10 तथा नागपुर में 5 आइसीयू बेड हैं। नदीम को उपलब्ध सूचना के अनुसार कुल 309 वेंटिलेटर बेड में 74 भुवनेश्वर, 118 जोधपुर, 102 पटना, 10 मंगलागिरी तथा पांच नागपुर में बताए गए हैं।

अहम बात यह है कि देश के सबसे प्रतिष्ठित चिकित्सा संस्थान एम्स में डॉक्टरों और अन्य स्टाफ की भी भारी कमी है। विभिन्न एम्स की ओर से दी गई जानकारी के अनुसार उनके यहां तमाम पद रिक्त पड़े हैं। जब केंद्र सरकार के प्रमुख संस्थान एम्स के ये हालात हैं तो राज्यों के अस्पतालों और स्वास्थ्य सुविधाओं का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।

- देहरादून से अतुल बरतरिया

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