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सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील की दलील, टिक नहीं पाएगा आर्थिक आरक्षण

सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के लिए नौकरियों और शिक्षा संस्‍थानों में 10 फीसदी...
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील की दलील, टिक नहीं पाएगा आर्थिक आरक्षण

सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के लिए नौकरियों और शिक्षा संस्‍थानों में 10 फीसदी आरक्षण की व्यवस्‍था वाला 124वां संविधान संशोधन कई तरह के सवालों को जन्म दे रहा है। क्या यह संवैधानिक मानदंडों पर खरा उतर पाएगा? क्या मौजूदा आर्थिक मानक अदालती समीक्षा में टिक पाएंगे? ये सब सवाल ऐसे हैं जिनके जवाब बेहद जरूरी हैं। संविधान विशेषज्ञ और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील राजीव धवन का मानना है कि सरकार सुप्रीम कोर्ट में आर्थिक आरक्षण को डिफेंड नहीं कर पाएगी।

कितना खरा

आर्थिक रूप से कमजोर सामान्य वर्ग को 10 फीसदी आरक्षण का विधेयक राज्यों में लागू करने का सिलसिला शुरू भी हो गया है। भाजपा शासित गुजरात,  उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और झारखंड ने इसे लागू कर दिया है। हालांकि, संवैधानिक कसौटी पर इसके टिक पाने पर संविधान विशेषज्ञों को संदेह है।

वरिष्ठ वकील राजीव धवन का मानना है, “यह असंवैधानिक है और सरकार इसे सुप्रीम कोर्ट में डिफेंड नहीं कर पाएगी। खासतौर पर, 1992 के इंदिरा साहनी मामले में फैसले के बाद आर्थिक रूप से कमजोर यानी ईडब्ल्यूएस आरक्षण का आधार नहीं हो सकता है। यह सुप्रीम कोर्ट द्वारा आरक्षण की निर्धारित 50 फीसदी सीमा से भी अधिक है।”

संविधान में प्रावधान नहीं

दरअसल, संविधान में आर्थिक आधार पर आरक्षण का प्रावधान नहीं है। यही वजह है कि जब 1991 में प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव की सरकार ने अगड़ी जातियों के लिए 10 फीसदी आरक्षण की व्यवस्‍था करवाई, तो सुप्रीम कोर्ट की नौ सदस्यीय खंडपीठ ने उसे गैर-संवैधानिक करार दे दिया। इंदिरा साहनी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संविधान के अनुच्छेद-16 (4) में आरक्षण का प्रावधान व्यक्ति के लिए नहीं, बल्कि समुदाय के लिए है। साथ ही, आरक्षण का आधार आय और संपत्ति को नहीं माना जा सकता है।

इससे पहले बिहार में 1978 में तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने भी आर्थिक आधार पर सवर्णों को तीन फीसदी आरक्षण दिया, लेकिन कोर्ट ने इसे भी खारिज कर दिया था। सितंबर 2015 में राजस्थान सरकार ने सामान्य श्रेणी के आर्थिक पिछड़ों को शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में 14 फीसदी कोटा देने की घोषणा की, जिसे दिसंबर 2016 में राजस्थान हाइकोर्ट ने रद्द कर दिया। गुजरात सरकार ने अप्रैल 2016 में सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से पिछड़ों को 10 फीसदी आरक्षण देने का फैसला किया। लेकिन अगस्त 2016 में ही गुजरात हाइकोर्ट ने इसे असंवैधानिक करार दे दिया।

निजी शिक्षण संस्थानों की उलझन

सरकार का दावा है कि सामान्य वर्ग के 10 फीसदी आरक्षण को निजी ‌शिक्षण संस्‍थानों में भी लागू होगा। इस बाबत केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने बताया कि संस्थानों में सीटों की संख्या बढ़ाई जाएगी और 10 फीसदी आरक्षण इसी सत्र से सभी पाठ्यक्रमों में लागू होगा। इसके लिए सीटों में 25 फीसदी तक की बढ़ोतरी की जाएगी, ताकि एससी, एसटी और अन्य वर्ग में आरक्षण की व्यवस्था प्रभावित न हो पाए।

हालांकि, इससे पहले भी 93वें संविधान संशोधन के जरिए निजी शिक्षण संस्थानों में आरक्षण की व्यवस्था की गई थी। लेकिन इलाहाबाद हाइकोर्ट ने इसे खारिज कर दिया, जिसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट में गया और यह अभी तक लंबित है। अब मौजूदा 124वें संविधान संशोधन के तहत निजी शिक्षण संस्थाओं में भी आर्थिक रूप से कमजोर सामान्य वर्ग को 10 फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया है।

निजी शिक्षण संस्थानों से मतलब गवर्नमेंट एडेड और अन एडेड संस्थान हैं। हालांकि, मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा कि निजी संस्थानों में इस आरक्षण को लागू करने के लिए इनेबलिंग बिल लाया जाएगा। इसके तहत निजी संस्थानों में आरक्षण के लिए संविधान में व्यवस्था की जाएगी। आवश्यक संशोधन किया जाएगा। हालांकि, बिल का प्रारूप कैसा होगा, इसके बारे में अभी स्थिति साफ नहीं है। यही नहीं, दिल्ली विवि ऑर्डिनेंस के जरिए शिक्षकों की ठेके पर नियुक्ति का विवाद भी शिक्षण संस्‍थानों में सीटें बढ़ाने के आड़े आ सकता है। इस ऑर्डिनेंस को भी इलाहाबाद हाइकोर्ट ने खारिज कर दिया है और केंद्र सरकार फिर नए ऑर्डिनेंस पर विचार कर रही है।

दूसरे वर्गों में बढ़ेगी बेचैनी

संविधान लागू होने के बाद 1953 में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग का मूल्यांकन करने के लिए काका कालेलकर आयोग का गठन किया गया। आयोग की रिपोर्ट के आधार पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की सिफारिशों को माना गया, जबकि ओबीसी की सिफारिशों को नकार दिया गया।

मामला जब 1963 में सुप्रीम कोर्ट के पास गया, तो अदालत ने कहा कि आमतौर पर 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता है। इसके बाद 1979 में सामाजिक-शैक्षणिक रूप से पिछड़ों की स्थिति का पता लगाने के लिए मंडल कमीशन बनाया गया। 1980 में मंडल कमीशन ने कोटा में बदलाव करते हुए 22 फीसदी को 49.5 फीसदी तक करने की सिफारिश की और 1990 में वी.पी. सिंह की सरकार ने मंडल कमीशन की सिफारिशों को सरकारी नौकरियों में लागू किया।

 अभी देश में कुल 49.5 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था है। अन्य पिछड़ा वर्ग को 27 फीसदी, अनुसूचित जातियों को 15 फीसदी और अनुसूचित जनजाति को 7.5 फीसदी आरक्षण का प्रावधान है।

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