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सुप्रीम कोर्ट की रोक से मृत्यु दंड पर बहस तेज

सर्वोच्च न्यायालय ने आज शबनम और उसके प्रेमी को दी गई फांसी की सजा पर रोक लगा दी है। इसके साथ ही एक बार फिर मृत्य दंड पर बहस तेज हो गई है। इस बहस में में एशियन सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स की नई रिपोर्ट –भारतः अंतःकरण के नाम पर मौत (इंडियाः डेथ इन द नेम ऑफ कॉन्सिएंस) ने नई रोशनी डाली है। इस रिपोर्ट ने समाज के विवेक या अंतःकरण के नाम पर दिए गए मृत्यु दंड के पीछे के विरोधाभास, कानूनी मानदंड़ों के ह्रास को बेबाकी से सामने रखा है।
सुप्रीम कोर्ट की रोक से मृत्यु दंड पर बहस तेज

इस रिपोर्ट ने सर्वोच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों द्वारा दिए गए फैसलों की विवेचना करते हुए बताया गया है कि किस तरह से अलग-अलग दृष्टिकोण फैसलों को रुख बदल देते हैं। इस रिपोर्ट में तीन आधारों पर मृत्यू दंड के फैसलों की पड़ताल की गई है, 1) मृत्यूदंड को सही ठहराने के लिए अंतःकरण को तैयार करना, 2) इस अंतःकरण का इस्तेमाल मृत्यू दंड देने के लिए करना, जो सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पर इनकुरिएम घोषित किए जा चुके है। पर इनकुरिएम यानी जिसकी नजीर न दी जा सके। ऐसे फैसले को अदालत के पहले फैसलों के अनुरूप नहीं माना जाता, ये बाध्यकारी प्रवृत्ति के नहीं।  और 3) किस तरह से यह अंतःकरण न्यायाधीशों के रुझान और सोच के अनुरूप फैसलों को प्रभावित करता है। इसमें जबर्दस्त अंतरविरोध दिखाई देता है कि कैसे आरोपी का जीवन और मौत महज न्यायाधीशों के नजरिये पर टिका होता है।

इसके पक्ष में संस्था ने सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठ न्यायाधीशों के फैसलों का उदाहरण दिया है। रिपोर्ट में मृत्यूदंड पर सुनाए गए 48 फैसलों की विवेचना की गई है, जिन्हें न्यायाधीश एम.बी. शाह और न्यायाधीश अर्जीत पसायत ने सुनाया। संस्था ने पाया कि अर्जीत पसायत ने 33 मामलों में से 15 मामलों में मृत्यूदंड दिया। इनमें से चार मामलों में उच्चा न्यायालय ने कम सजा सुनाई गई थी, जिसे न्यायाधीश पसायत ने बढ़ा मृत्यूदंड दिया। जबकि न्यायाधीश एमबी. शाह ने 15 मामलों में से एक भी मामले में मृत्यूदंड नहीं दिया। उन्होंने कई मामलों में मृत्यूदंड की सजा को आजीवन कारावास में तब्दील कर दिया।  

संस्था की रिपोर्ट के मुताबिक 1980 के बच्चन सिंह के फैसले जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने मृत्यू दंड की वैधानिकता को जाएज ठहराने के बाद से जितने भी फैसले मृत्यू दंड के दिए गए हैं उनमें सबमें सामूहिक विवेक या अंतःकरण का हवाला दिया गया। इस संस्था का मानना है कि सामूहिक विवेक के आधार पर मृत्यू दंड का फैसला देना बेहद त्रुटिपूर्ण है और इसे हर चरण पर प्रभावित किया जाता रहा है। इसका शिकार सबसे गरीब, हाशिए पर खड़े लोग और आतंकी घटनाओं के आरोपी बनाए गए लोग होते हैं। अक्सर इन लोगों के पास खुद को बचाने के न तो साधन होते हैं और न ही कोई तैयार होता है।

ऐसा अनेका-अनेक मामलों में सामने आया। हाल ही में निठारी कांड के आरोपी सुरेंद्र कोली के मामले में भी देखने को आया। सुरेद्र कोली को मृत्यू दंड न दिए जाने की वकालत कर रही अंतरराष्ट्रीय कानूनविद उषारमानाथन ने कहा कि मृत्यू दंड के प्रावधान का खात्मा बेहद जरूरी है। इसके पक्ष में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सहमति बनी है लेकिन भारत में इसे गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। सर्वोच्च न्यायालय में अधिवक्ता दीपक सिंह का कहना है कि मृत्यू दंड में जिस तरह से विरोधाभासी नजीरें हैं, वे इंसाफ की प्रस्थापना पर ही सवाल उठाती हैं।  

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