सरकारी वाहनों में परिजन घूमते-फिरते हैं। पेट्रोल-डीजल सरकार का होता है। विदेश सेवा में रहने वाले भारतीय राजनयिक तो घर में पानी से लेकर महंगी से महंगी शराब और खाने की व्यवस्था सरकारी खर्च पर करते हैं। ब्रिटिश राज की परंपरा के कारण जिलों में तैनात कलेक्टरों को शानदार बंगलों के इर्द-गिर्द सब्जी-फल को उगाने, खाने, बेचने तक का हक और ‘मीटिंग’ के नाम पर चाय-भोजन के बिल सरकारी खजाने से वसूलने की सुविधा है। अधिकांश पुलिस अधिकारियों को रुतबे के साथ ‘गुप्त सूचनाओं’ को इकट्ठा करने के बहाने खाने-पीने के फंड का इंतजाम हो जाता है।
आजादी के बाद 1990 तक मत्रियों, सांसदों, विधायकों, मुख्यमंत्रियों, प्रधानमंत्री, उप राष्ट्रपति और राष्ट्रपति तक के वेतन-भत्ते बहुत कम होते थे। 1990 से पहले उप राष्ट्रपति तक को अपनी तनख्वाह से निवास पर आने वाले देशी-विदेशी मेहमानों के चाय-पानी का इंतजाम करना होता था। लेकिन राव-मनमोहन सिंह जोड़ी के सत्ता में आने के बाद उदार अर्थव्यवस्था के साथ सरकारी खजाने से नेताओं-अफसरों के खर्च बढ़ते चले गए। मंत्रियों-सांसदों-विधायकों तक को दो लाख तक की मासिक तनख्वाह-भत्तों के अलावा नाममात्र के किराये पर मकान, पानी, बिजली के अलावा अधिकाधिक बिलों के भुगतान की व्यवस्था हो गई है। तब से अमेरिका के साथ संबंध बढ़ते गए हैं। बिल क्लिंटन, जॉर्ज बुश और बराक ओबामा के सत्ताकाल में अमेरिका से रिश्तों के प्रगाढ़ होने के दावे भारतीय नेता करते रहे हैं।
संभव है बिजनेसमैन डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने पर संबंधों के तार अधिक मजबूत हो जाएं। लेकिन अमीर व्यापारी राष्ट्रपति की शान-शौकत से प्रेरणा लेकर कहीं भारतीय नेता खर्च बढ़ाने की कोशिश न करने लगें। इस दृष्टि से विदा हो रहे राष्ट्रपति बराक ओबामा के ताजे इंटरव्यू पर भारतीयों को ध्यान देना चाहिए। ओबामा ने एक इंटरव्यू में बताया है कि ‘व्हाइट हाउस (राष्ट्रपति भवन) में रहते हुए उन्होंने टायलेट पेपर, टूथ पेस्ट से लेकर परिवार के खाने-पीने इत्यादि के सारे खर्च स्वयं उठाए हैं। छुट्टियों पर जाने पर भी उनका खर्च स्वयं उठाया। केवल सीक्रेट सर्विस, विमान और संचार व्यवस्था का इंतजाम सरकार करती रही।’ उम्मीद की जाए, हम भी कुछ अच्छी बातें अमेरिका से सीखेंगे।