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आंकड़े अधूरे तो बजट कैसे हो पूरा?

“सरकारी आंकड़ों पर संदेह के घने बादलों के बीच अर्थव्यवस्थात जीडीपी वृद्धि, रोजगार दर सहित हर मोर्चे...
आंकड़े अधूरे तो बजट कैसे हो पूरा?

“सरकारी आंकड़ों पर संदेह के घने बादलों के बीच अर्थव्यवस्थात जीडीपी वृद्धि, रोजगार दर सहित हर मोर्चे पर बेहाल, मगर सबसे बड़ा सवाल कि संदिग्ध आंकड़ों के सहारे कैसे तैयार होगा मुकम्मल बजट”

आर्थिक विकास में आंकड़ों या सांख्यिकी की अहमियत पर 1965 में भारतीय सांख्यिकीय प्रणाली के जनक प्रोफेसर पी.सी. महलनोबिस ने कहा था कि सांख्यिकी का एक महत्वपूर्ण काम “व्यावहारिक या आर्थिक पहलुओं से संबंधित है, जिसका इतिहास बहुत पुराना है।” उन्होंने कहा कि नीतियां बनाने और प्रशासनिक फैसलों में मदद के लिए सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों से संबंधित सूचनाओं को इकट्ठा करने का काम सम्राट अशोक के दिनों से ही शुरू हो गया था और इसकी एक विस्तृत प्रणाली भी रही है, जिसका जिक्र कौटिल्य के अर्थशास्‍त्र में मिलता है। यानी भारत में सांख्यिकीय प्रणाली का लंबा इतिहास है। लेकिन लगता है, पिछले दशकों में वह सुव्यवस्थित सांख्यिकीय प्रणाली बिखरने लगी है, जिसकी ऐतिहासिकता पर भारत गर्व कर सकता है। अब हम ऐसे हालात में पहुंच गए हैं, जहां अकसर यह प्रणाली विवादों में घिर जाती है। सरकार के भीतर और बाहर तीखे सवाल उठ रहे हैं। सरकार की ओर से कई अहम आंकड़ों की गुणवत्ता पर बहस छिड़ गई है। सबसे बड़ा सवालिया निशान भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर और देश में रोजगार की स्थिति को लेकर लग रहा है। इसके अलावा, बाहरी और सामाजिक क्षेत्रों के पहलुओं सहित कई अन्य क्षेत्रों के आंकड़ों और उनकी गुणवत्ता को लेकर भी संदेह उठे। इन पर उठ रहे सवालों से यह गंभीर संदेह पैदा हो गया है कि क्या आधिकारिक आंकड़ों से निकलने वाले निष्कर्षों का इस्तेमाल वाकई ऐसी नीतियों और फैसलों के लिए किया जा सकेगा, जिनसे देश के लोगों का भविष्य बेहतर बने।

हमारा तर्क है कि हमारी सांख्यिकीय प्रणाली को लेकर लगातार उठ रहे सवालों के मद्देनजर सरकार को निम्नलिखित पहलुओं को ध्यान में रखकर विस्तृत समीक्षा करनी चाहिए: (i) आंकड़ों की सत्यता पर की गई टिप्पणियों को ध्यान में रखा जाए, ( ii) उन महत्वपूर्ण क्षेत्रों को ध्यान में रखा जाए, जिनके आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, या केवल आंशिक उपलब्ध हैं और (iii) उपलब्‍ध आंकड़ों की अवधि भी ध्यान में रखनी होगी क्योंकि पुराने आंकड़े एक्सपायर्ड चेक की ही तरह बेकार होते हैं। ऐसी व्यापक समीक्षा अब वक्त की जरूरत बन गई है क्योंकि गंभीर सवाल उठ रहे हैं और कई अहम क्षेत्रों में सवाल उठने की गहरी आशंकाएं हैं। हमारी राय में, केंद्र सरकार के पास अपने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत में सांख्यिकीय प्रणाली में खामियों को दुरुस्त करने का सही मौका है, ताकि भारतीय सांख्यिकीय प्रणाली की विश्वसनीयता पहले से भी अधिक मजबूती के साथ बहाल हो सके।

सबसे पहले तो अर्थव्यवस्था की सेहत का हाल बताने वाले सकल घरेलू उत्पाद या जीडीपी को दुरुस्त करना चाहिए। पिछले कुछ वर्षों में जीडीपी के अनुमानों पर जितनी बार सवाल उठे, वैसा आजाद भारत में शायद ही पहले कभी हुआ हो। केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) ने आधार वर्ष 2004-05 की जगह 2011-12 करके नई सीरीज के मुताबिक जीडीपी के जो अनुमान जारी किए, उसी पर सबसे अधिक विवाद खड़े हुए। सीएसओ ने बताया कि नई सीरीज 2008 के संयुक्त राष्ट्र के सिस्टम ऑफ नेशनल एकाउंट्स (यूएनएसएनए) के दिशा-निर्देशों पर आधारित है। ये दिशा-निर्देश 1994 के यूएनएसएनए के पूर्ववर्ती दिशा-निर्देशों की जगह लाए गए थे। विवाद की एक बड़ी वजह सीएसओ की जीडीपी में मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र के योगदान की गणना के लिए अपनाई गई नई पद्धति है।

सीएसओ ने नई पद्धति के तहत मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र के लिए जुटाए जाने वाले आंकड़े के पहले के स्रोत को बदल दिया। सीएसओ पहले जीडीपी के आंकड़े मुहैया कराने वाले सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (एमओएसपीआइ) की एक अन्य शाखा ऐनुअल सर्वे ऑफ इंडस्ट्री (एएसआइ) का इस्तेमाल करता था, लेकिन नई पद्धति में उसकी जगह कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय (एमसीए) के डेटाबेस ने ले ली, जो कॉरपोरेट सेक्टर के आंकड़े बताता है। इसे एमसीए21 के नाम से जाना जाता है। यह डेटाबेस निजी क्षेत्र की लगभग 5 लाख कंपनियों की सालाना रिपोर्ट के आंकड़े उठाता है। सीएसओ ने मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र के सकल मूल्य संवर्धन (जीवीए) का आकलन करने के लिए अपनी पद्धति बदल दी। पहले इस्टैब्लिशमेंट यानी हर इकाई के आंकड़ों पर गौर किया जाता था, उसकी जगह अब इंटरप्राइज यानी पूरी कंपनी के आंकड़े लिए जाने लगे। मतलब यह कि पहले फोकस फैक्टरी पर होता था, जहां मुख्य रूप से मैन्यूफैक्चरिंग गतिविधियां होती हैं। इसके बदले इंटरप्राइज यानी कंपनियों की सालाना रिपोर्ट पर आधारित एमसीए21 डेटाबेस का इस्तेमाल किया गया। सीएसओ के मुताबिक, एएसआइ डेटा पर विश्वास करने का मतलब है कि ट्रेडिंग या कंपनी मुख्यालय की दूसरी गतिविधियां सर्वे में शामिल फैक्टरियों के दायरे से बाहर की गईं, जिन्हें 2004-05 की सीरीज से बाहर रखा गया था। इसलिए सीएसओ का तर्क था कि फैक्टरियों के डेटा का उपयोग करने के बजाय नई सीरीज में इंटरप्राइज के डेटा का उपयोग किया गया और वे मुकम्मल तसवीर देते थे। सीएसओ के अनुसार, पहले की पद्धति में जीवीए को लगभग 35 फीसदी कम करके आंका गया और नतीजतन, जीडीपी की वृद्धि दर बहुत कम बताई गई। जीवीए मैन्यूफैक्चरिंग के इस नए अनुमान का यह भी मतलब था कि जीडीपी में मैन्यूफैक्चरिंग की हिस्सेदारी पहले की तुलना में बहुत अधिक थी।

कई जानकारों ने इन आंकड़ों को चुनौती दी। ढोलकिया, नागराज और पंड्या ने टिप्पणी की, “आंकड़ों में (नए और पुराने आकलन के बीच) व्यापक अंतर से नए अनुमान की सटीकता को लेकर गंभीर संदेह पैदा होते हैं।” उनका तर्क है, “कथित उच्च वृद्धि दर और अन्य मैक्रो-इकोनॉमिक से जुड़े क्षेत्रों में अंतर था।” उनका व्यापक निष्कर्ष यह था कि सीएसओ का यह नजरिया पूरी तरह गलत है कि एएसआइ का इस्तेमाल करते हुए पहले के तरीके में फैक्टरी के बाहर की कई गतिविधियों को बाहर रखा गया था।

हाल में, सीएसओ का मानना था कि एमसीए21 डेटाबेस अपने आप में पूर्ण है, लेकिन ऐसा लगता है कि इसको लेकर मंत्रालय के भीतर ही मतभेद है। नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) की जुलाई 2016 और जून 2017 के बीच सर्वेक्षण के आधार पर देश में सेवा क्षेत्र के उद्यमों पर तकनीकी रिपोर्ट में कहा गया है कि एमसीए में पंजीकृत 16.4 फीसदी कंपनियां लापता या बंद थीं और 21.4 फीसदी गलत तरीके से दर्ज थीं। इस सर्वेक्षण के जो नतीजे दो महीने पहले सामने आए थे, उसके मुताबिक, एनएसएसओ ने 2013-14 के एमसीए फ्रेम/डेटाबेस से 3,49,500 सेवा क्षेत्र की कंपनियों में से 63,420 कंपनियों का चयन किया था। इन चयनित उद्यमों में से, एनएसएसओ ने पाया कि 42,262 या मोटे तौर पर 67 फीसदी उद्यम ही चल रहे थे।

देश में पंजीकृत कंपनियों के मामले में कंपनी मामलों के विभाग के पास उपलब्ध जानकारी पर बार-बार सवाल उठाए गए हैं। 2001 की शुरुआत में सी. रंगराजन की अध्यक्षता में राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग ने कॉर्पोरेट जानकारी को लेकर गंभीर आपत्ति दर्ज कराई थी कि “रजिस्ट्रार ऑफ कंपनी (आरओसी) में पांच लाख से अधिक कंपनियां पंजीकृत हैं, लेकिन वास्तव में चल रही कंपनियों की संख्या ज्ञात नहीं है। इससे विभिन्न आकलनों की विश्वसनीयता गंभीर रूप से प्रभावित होती है। मार्च 1999 में की गई पड़ताल से संकेत मिलता है कि पंजीकृत कंपनियों में से लगभग 47 फीसदी ने 1997-98 के लिए अपनी बैलेंस शीट दर्ज कराई।” दूसरे शब्दों में, देश में पंजीकृत अधिकांश कंपनियों ने प्रशासनिक मंत्रालय को रिपोर्ट नहीं की।

अभी भी कंपनियों के उपलब्ध आंकड़ों पर जो बार-बार सवाल उठा रहा है, वह है कॉर्पोरेट इंडिया की संदिग्ध रिपोर्टिंग और उसमें वैधानिक लेखा परीक्षकों की मिलीभगत। 2009 में सत्यम कंप्यूटर्स से जुड़े घोटाले के बाद संसद की वित्त संबंधी स्थायी समिति ने भारतीय कॉर्पोरेट क्षेत्र में ऑडिट की गुणवत्ता की निगरानी के लिए स्वतंत्र निकाय के रूप में राष्ट्रीय वित्तीय रिपोर्टिंग प्राधिकरण (एनएफआरए) की स्थापना की सिफारिश की। सरकार ने कंपनी अधिनियम, 2013 में इस सिफारिश को स्वीकार कर लिया था। कंपनियों और उनके ऑडिटरों के बीच मिलीभगत के कई मामले सामने आने के बाद, खासतौर पर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की खिंचाई की, तो फरवरी 2018 में अंततः इस प्राधिकरण की स्थापना हुई। उम्मीद है कि यह निकाय जल्द ही प्रभावी रूप से काम करना शुरू कर देगा क्योंकि प्राधिकरण के नियमों को मई 2019 के अंत में ही अधिसूचित किया गया है।

सरकार जीडीपी के अनुमानों पर उठाए गए सवालों के जवाब में स्पष्टीकरण जारी कर रही है, लेकिन हाल में पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार (सीईए) अरविंद सुब्रह्मण्यम ने अपने एक अध्ययन में उसे खारिज कर दिया और कहा कि 2011-12 और 2016-17 के दौरान जीडीपी वृद्धि दर के आंकड़े को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया गया। सुब्रह्मण्यम के शोध से पता चला है कि जीडीपी की गणना के लिए पद्धतिगत बदलावों के परिणामस्वरूप इन वर्षों में हर साल लगभग 2.5 प्रतिशत तक वृद्धि अधिक दिखाई गई है। इस अवधि में यूपीए और एनडीए दोनों सरकारों के आंकड़ों को शामिल किया गया है। यह पहली बार नहीं है कि अरविंद सुब्रह्मण्यम ने सरकार से उलट तर्क पेश किए हैं। वे मुख्य आर्थिक सलाहकार रहने के दौरान भी ऐसा कर चुके हैं और यहां तक कि नोटबंदी पर भी सरकारी रुख का समर्थन नहीं कर रहे थे। उनकी देखरेख में तैयार किए गए 2016-17 के आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया था, “नोटबंदी अल्पकालिक संकट पैदा करेगी और दूरगामी लाभ के लिए आधार मुहैया कराएगी।” यह साफ-साफ कबूलनामा था कि “संकट वास्तविक और महत्वपूर्ण है” और उसकी कीमत गरीब लोगों को अधिक अदा करनी होगी, जो “अनौपचारिक और नकदी अर्थव्यवस्‍था” पर आश्रित हैं, क्योंकि इससे उनकी आमदनी और रोजगार घटेगा।

इसी तरह बेरोजगारी के आंकड़े भी श्रम बाजार की हकीकत पर कई तरह के सवाल उठा रहे हैं। इस मामले में पिछले छह महीनों से आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) चर्चा में है, जो पहली बार जुलाई 2017 और जून 2018 के बीच किया गया। इस सर्वे के नतीजे इसी साल जनवरी में मीडिया में लीक हो गए थे और श्रम बल के विभिन्न क्षेत्रों में बेरोजगारी दर में वृद्धि विवाद की बड़ी वजह बन गई थी।

रोजगार की अधिक सटीक जानकारी पाने के मकसद से आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण पंचवर्षीय रोजगार-बेरोजगारी सर्वेक्षण की जगह लाया गया। पंचवर्षीय सर्वेक्षण आखिरी बार 2011-12 में किया गया था। बेशक, आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण सही कदम था, बशर्ते उसकी तीन अहम शर्तों को ध्यान में रखा जाता। एक, हर साल प्रत्येक परिवार या घर का सर्वेक्षण किया जाए। दूसरे, परिवार या घर के सदस्यों की विभिन्न आर्थिक गतिविधियों में शिरकत करने की समयावधि की जानकारी के लिए खास समय या अवधि में सर्वेक्षण किया जाए। और तीसरे, टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल से डेटा संग्रह के काम में तेजी लाई जाए और सर्वेक्षण कम समय में पूरा किया जाए।

ये तीनों शर्तें सालाना सर्वेक्षण के लिहाज से बेहद जरूरी हैं। यहां यह जिक्र किया जा सकता है कि बड़ी अर्थव्यवस्थाएं बेरोजगारी के आंकड़े नियमित रूप से पेश करती हैं (मसलन, अमेरिकी श्रम सांख्यिकी ब्यूरो हर महीने रिपोर्ट जारी करता है), जो नीति निर्माताओं को नियमित रूप से श्रम बाजार की निगरानी करने और उसके अनुरूप कदम उठाने के साधन मुहैया कराती है। ऐसे में, भारत सरकार को भी इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए अपना नजरिया साफ करने की जरूरत है और नियमित आंकड़े जुटाने की दरकार है।

आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण की जून 2017-जुलाई 2018 के वार्षिक आंकड़ों की पहली सीरीज आधिकारिक तौर पर मई 2019 के अंत में जारी की गई। इससे पता चलता है कि 2011-12 के बाद से बेरोजगारी दर दोगुनी से अधिक हो गई है। 2011-12 में एनएसएसओ ने अपने आखिरी पंचवर्षीय सर्वेक्षण में समग्र बेरोजगारी दर तीन फीसदी से कम होने का अनुमान लगाया था। यह अनुमान उन श्रमिकों को ध्यान में रखते हुए लगाया गया था, जो आम तौर पर पूरी तरह बेरोजगार थे। उसी परिभाषा के मुताबिक, आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण हमें बताता है कि फिलहाल बेरोजगारी दर 6.1 फीसदी है। इससे श्रमिकों की विभिन्न श्रेणियों के हिसाब से बेरोजगारी के आंकड़ों पर विचार किया जाता है, तो व्यापक निष्कर्ष यह निकलता है कि भारत में बेरोजगारी पिछले 45 वर्षों में सबसे अधिक है। पंचवर्षीय सर्वेक्षण 1972-73 में शुरू किए गए थे।

उच्च बेरोजगारी की दर से बहस छिड़ गई है। हालांकि कई टिप्पणीकारों का तर्क है कि दोनों सर्वे की तुलना नहीं की जा सकती है। इस विवाद ने तूल इस वजह से पकड़ा कि आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण में नोटबंदी के तुरंत बाद की अवधि को शामिल किया गया और इसलिए इसके निष्कर्षों को रोजगार पर उसके “झटके” की तरह देखा गया। हालांकि अब आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण आधिकारिक तौर पर जारी किया चुका है, इसलिए इससे केंद्र सरकार को बेरोजगारी दर को ध्यान में रखकर हालात बेहतर करने के लिए नीतियों में फेरबदल करने में मदद मिल सकती है।

फिर भी, देश में बेरोजगारी की मौजूदा स्थिति पर बहस जारी रहेगी, लेकिन यह भी गौरतलब है कि देश में मांग या खपत लगातार घट रही है, जो पिछले कई महीनों से खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में क्रय-शक्ति के खतरनाक रूप से घटने का संकेत दे रही है। वहां न सिर्फ उपभोक्ता सामग्रियों (एफएमसीजी उत्पादों) की मांग में भारी कमी दिखी है, बल्कि ऑटोमोबाइल, खासकर दुपहिया वाहनों की बिक्री लगभग ठप हो गई है। कहने की जरूरत नहीं कि श्रम बाजार की स्थिति और घरेलू मांग के घटने के बीच सीधा रिश्ता है और इसे सरकार को स्वीकार करना चाहिए।

फिर, सरकार की प्राथमिकता यह भी होनी चाहिए कि वह बाहरी क्षेत्र के वास्तविक और समय के हिसाब से प्रासंगिक विश्वसनीय आंकड़े उपलब्ध कराए, क्योंकि साझीदार देशों के साथ उसके व्यापारिक संबंध व्यापक होते जा रहे हैं। मैकेनाइज्ड सामग्रियों के व्यापार और हाल के वर्षों में सेवा क्षेत्र के आंकड़े एक महीने के अंतराल में उपलब्ध होते हैं, लेकिन इनके अलग-अलग आंकड़े कुछ महीनों के बाद ही उपलब्ध होते हैं। यह फर्क घरेलू उद्योग के लिए नुकसानदेह हो सकता है, और वे विदेशी आयात से होड़ में पिट सकते हैं।

आंकडों की समयबद्ध उपलब्‍धता आश्वस्त करने के अलावा, सरकार और उसकी एजेंसियों को सार्वजनिक रूप से उपलब्ध डेटा में कुछ महत्वपूर्ण अंतर को पाटना चाहिए, जिससे मीडिया और नीति अनुसंधान समुदाय को बाहरी क्षेत्र की गतिशीलता का अधिक प्रभावी ढंग से विश्लेषण करने में सक्षम बनाया जा सके। इनमें से पहला मामला भारत और उन देशों के बीच होने वाले व्यापार पर विस्तृत डेटा की उपलब्धता से संबंधित है, जिनके साथ इसने मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) किए हैं। ऐसे डेटाबेस में उन व्यापारों के आंकड़े होने चाहिए जो मुक्त व्यापार समझौते वाले देशों के साथ तरजीही शुल्क, मोलतोल के बाद कम टैरिफ के जरिए होता है। इससे तरजीही शुल्क का उपयोग करके अंतरराष्ट्रीय व्यापार में लगे व्यवसायों के हित का आकलन किया जा सकता है, क्योंकि टैरिफ कम करने के लिए कई प्रक्रियागत जरूरतों के रूप में कीमत चुकानी पड़ती है, जिससे आमतौर पर व्यापार की लागत में बढ़ोतरी होती है।

एक समान एफटीए वाले अन्य देशों के अनुभव से पता चलता है कि तरजीही टैरिफ इस्तेमाल करने के मामले में बिजनेस आमतौर पर कम उत्साही होते हैं, क्योंकि इसमें ढेर सारी कागजी प्रक्रिया शामिल होती है। भारत फिलहाल कई एफटीए पर बातचीत कर रहा है, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) को लेकर बातचीत जारी है। इसलिए यह समझना जरूरी है कि क्या कारोबारी तरजीही टैरिफ को उपयोगी मानते हैं।

फिर भी सार्वजनिक क्षेत्र में डेटा की उपलब्धता में एक और फर्क किसी खास साझेदार देश के साथ सेवा क्षेत्र में होने वाला व्यापार है। आरबीआइ हर श्रेणी की सेवाओं द्वारा उपलब्ध कुल डेटा मुहैया कराता है, लेकिन इसकी वजह से देश के बड़े बाजार के साथ-साथ संभावित बाजार में मौजूद अवसरों में चुनौतियों का हितधारकों द्वारा विश्लेषण किया जा सकता है। इसलिए सरकार को सार्वजनिक डोमेन में सर्विस ट्रेड को लेकर संपूर्ण डेटासेट जारी करना चाहिए। उसी से हमारे उद्योगों को मदद मिलेगी।

इसके अलावा वैश्विक प्रतिस्पर्धा हासिल करने की दिशा में हम प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) की ओर ज्यादा झुक गए हैं। आरबीआइ की तरफ से एफडीआइ के लिए डेटा मुहैया कराया जाता है। के.एस. चलपति राव के साथ एफडीआइ पर अपने विस्तृत अध्ययन में इस लेखक ने कई उदाहरण पेश किए हैं, जहां फंडों/शेयरों को जारी करने और उसे रिपोर्ट करने के समय के बीच अंतराल देखे गए हैं। पिछले कुछ वर्षों के दौरान एफडीआइ के कुछ सबसे बड़े मामलों में लेखक ने पाया कि रिपोर्ट किए गए आंकड़े हमेशा कंपनियों द्वारा कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय (एमसीए) को दी गई मात्रा से मेल नहीं खाते हैं।

एक और समस्या है, जो आगे चलकर वालमार्ट इंडिया सहित बड़े निवेश के मामले में डुप्लीकेट प्रविष्टियों से मिले डेटा की गुणवत्ता पर प्रतिकूलता और गंभीरता को दर्शाती है। जब खासतौर पर सेक्टोरल स्तर पर एक निश्चित अवधि के दौरान इनफ्लो की जांच की जाती है, तो ऐसी दोहरी गणना के गंभीर प्रभाव हो सकते हैं।

एफडीआइ डेटा की गुणवत्ता को गैर-रिपोर्टिंग और इनफ्लो की देरी से रिपोर्टिंग के मामलों से भी कमतर आंका जाता है और इसके कई मामले हैं। हालांकि, आवंटन की तारीख के बारे में पता लगाने के लिए कंपनी मामलों के मंत्रालय में फाइलिंग के ऑटोमेटिक अनुमोदन मार्गों के तहत रिपोर्ट किए गए इनफ्लो को क्रॉसचेक करना अपेक्षाकृत आसान है। यह रिपोर्ट नहीं किए गए मामलों की खोज से जुड़ा नहीं है। साथ ही, अधिग्रहण के जरिए किए गए निवेशों का सही तरीके से मिलान करना भी मुश्किल है, ऐसा इसलिए कि न केवल लेखांकन अवधि के अंत में कंपनियों द्वारा शेयर हस्तांतरण की सूचना दी जाती है, बल्कि फाइलिंग के तहत शामिल राशि की रिपोर्ट करने का प्रावधान भी नहीं है। रिपोर्टिंग न करना लंबे समय से चली आ रही समस्या है।

बहरहाल, देश में सरकारें “प्रामाणिक साक्ष्यों के आधार पर फैसले लेने” के महत्व पर जोर देती रही हैं। नीति-निर्माता अमूमन यह मुहावरा जपते रहते हैं, लेकिन ऊपर जिक्र में आई बातों से ही जाहिर है कि देश की सांख्यिकीय प्रणाली सटीक आंकड़े या साक्ष्य उपलब्‍ध नहीं करा पा रही है, जो देश की समस्याओं का सही निदान करने में मदद कर सके। निजी तौर पर, हम सभी वाकिफ हैं कि डॉक्टर हमारी बीमारी का निदान पैथोलॉजिकल लैब के डेटा के आधार पर ही करते हैं। लिहाजा, बतौर राष्ट्र हम आंकड़ों की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं देंगे तो देश की समस्याओं और बीमारियों का बेहतर इलाज नहीं कर पाएंगे। अंत में, सांख्यिकीय प्रणाली के लिए महालनोबिस की उक्ति का पालन करना चाहिए, “सांख्यिकी में स्पष्ट रूप से परिभाषित उद्देश्य होना चाहिए, जिसका एक पहलू वैज्ञानिक उन्नति है, तो दूसरा, मानव कल्याण और राष्ट्रीय विकास है।”

(लेखक सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज ऐंड प्लानिंग, जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली में प्रोफेसर हैं)

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