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ग्राउंड रिपोर्ट: हसदेव अरण्य को बचाने के लिए धरने पर बैठे आदिवासियों की सुध कौन लेगा?

“सरगुजा के घने हसदेव अरण्य में कोयला खदान की मंजूरी पर पिछले तीन महीने से जंगल बचाने के संकल्प के साथ...
ग्राउंड रिपोर्ट: हसदेव अरण्य को बचाने के लिए धरने पर बैठे आदिवासियों की सुध कौन लेगा?

“सरगुजा के घने हसदेव अरण्य में कोयला खदान की मंजूरी पर पिछले तीन महीने से जंगल बचाने के संकल्प के साथ धरने पर बैठे आदिवासियों की सुध कौन लेगा”

चारों तरफ दूर-दूर तक हरियाली छाई है। भीषण गर्मी की तपती दोपहरी में भी सूरज की तीखी किरणें छतनार पेड़ों से टकरा कर नरमी का एहसास दे रही हैं। जैसे बता रही हों कि ‘हसदेव अरण्य’ क्षेत्र में स्वागत है। हम छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले के घने जंगलों के बीच स्थित हरिहरपुर गांव पहुंच चुके हैं। कई तरह के पत्ते और टहनियों से बने हरे-भरे शामियाने के नीचे सैकड़ों की तादाद में आदिवासी महिला-पुरुषों का जमावड़ा दूर से ही दिखाई देने लगा है। ज्यादातर लोग जंगलों से बीनकर लाए तेंदू पत्तों को सलीके से जमाने में तल्लीन हैं। कुछ लोग भोजन बनाने में जुटे हुए हैं। चूल्हे पर भात पक रहा है और अमारी भाजी (एक तरह का साग) लगभग तैयार है। इसके साथ ही लोग भी यहां तैयार हो रहे हैं, कोई उत्सव या त्योहार मनाने के लिए नहीं बल्कि एक बड़े आंदोलन के लिए...

पिछले मार्च से यहां हरिहरपुर, फतेहपुर, मदनपुर, घाटबर्रा, साल्ही, तारा जैसे कई गांवों के आदिवासी ‘हसदेव बचाओ’ के नारे के साथ सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार और अडाणी समूह के खिलाफ धरने पर बैठे हुए हैं। दरअसल, इस वन क्षेत्र के परसा ईस्ट केते बासन के दूसरे चरण और परसा ब्लॉक में खनन करने की इजाजत दे दी गई है। राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड को आवंटित छत्तीसगढ़ के परसा कोयला खदान को राजस्थान की कांग्रेस सरकार ने एमडीओ अनुबंध पर अडाणी समूह को सौंप दिया है। उसके विरोध में उतरे आदिवासियों का कहना है कि इस खदान की स्वीकृति फर्जी ग्रामसभा के आधार पर ली गई है और इन खदानों के लिए लगभग साढ़े चार लाख पेड़ों की कटाई होगी। विशेषज्ञ भी इसके विनाशकारी परिणाम को रेखांकित कर रहे हैं। इन तमाम आपत्तियों के बावजूद परसा कोयला खदान को मंजूरी दी गई और पेड़ों की कटाई भी शुरू कर दी गई। हालांकि विरोध तेज होने पर फिलहाल पेड़ों की कटाई रोक दी गई है।

आंदोलन करते आदिवासी

खनन के विरोध में आंदोलन करते आदिवासी

साल्ही गांव की रहने वाली दुबली सिंह भी पिछले दो महीने से धरना स्थल पर डटी हुई हैं। एक सांस में वे कहती हैं, “हमला बिकास नई चाही... हम अपन जघा, जमीन अउ जंगल ल नई देवन। हम एखर बिना नई रहे सकन। भले हमर जीव जाए फेर ए जंगल ल कटे नई देवन।” (हमको विकास नहीं चाहिए, हम अपनी जगह, जमीन और जंगल नहीं देंगे। हम इसके बगैर नहीं रह सकते। भले हमारी जान चली जाए लेकिन इस जंगल को हम कटने नहीं देंगे।) वे मुस्कराते हुए दृढ़ता के साथ कहती हैं, “हम दो महीने से ज्यादा समय से यहां बैठे हैं और अंतिम दम तक इस लड़ाई को लड़ने के लिए तैयार हैं।”

तेंदू पत्ते की गड्डियां तैयार कर रहीं हरिहरपुर की ही रहने वाली संपतिया कहती हैं कि वे लोग तेंदू पत्ते, महुआ वगैरह बीनकर पर्याप्त पैसे कमा लेती हैं, इसलिए उनको इस तरह का विकास नहीं चाहिए। लगभग 60 वर्षीय संपतिया विस्थापन के अनुभव को साझा करते हुए बताती हैं, “केते मेरा मायका है, वहां जब खदान खुली तो पूरा गांव विस्थापित हो गया। सब तहस-नहस हो गया। अब ये लोग हरिहरपुर को भी इसी तरह बर्बाद करना चाहते हैं। लेकिन इस बार हम ये नहीं होने देंगे।” संपतिया कहती हैं, “न हमें जमीन देनी है, न ही हमें मुआवजा चाहिए। जो भी हमारा जंगल छीनने की कोशिश करेगा हम उसे यहां से भगा देंगे। लेकिन हम यहां से टस से मस नहीं होंगे।”

आंदोलनकारी ग्रामीण धरना स्थल पर चुनाव पूर्व, हसदेव अरण्य के इलाके में राहुल गांधी के दिए पुराने भाषण को याद दिलाते हैं, “राहुल गांधी ने आदिवासियों को भरोसा दिया था कि वे उनको उजड़ने नहीं देंगे। गांधी ने कहा था कि इस लड़ाई में वे और कांग्रेस उनके साथ खड़ी है। जंगल हैं तो आदिवासी हैं। विकास वे भी चाहते हैं मगर उस विकास में जंगल के बारे में, आदिवासियों के बारे में, उनके जीवन के बारे में भी सोचना है।”

हसदेव अरण्य को बचाने की कवायद कोई नई नहीं है। आदिवासी पिछले एक दशक से इस जंगल के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं। पिछले साल केंद्र सरकार की मुहर के बाद छत्तीसगढ़ सरकार ने हसदेव अरण्य के परसा कोयला खदान को अप्रैल में मंजूरी दे दी। सरगुजा और सूरजपुर जिले के 1252.447 हेक्टेयर क्षेत्र में फैले परसा कोयला खदान का 841.538 हेक्टेयर जंगल का इलाका है, जबकि 410.909 हेक्टेयर क्षेत्र जंगल क्षेत्र से बाहर का इलाका है।

विरोध में लगा पोस्टर

हसदेव अरण्य के घने जंगल में राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड को पहले ही 2711.034 हेक्टेयर में फैले परसा इस्ट केते बासन का क्षेत्र खनन के लिए आवंटित है। इसके बाद इस वर्ष मार्च में इसी कोल ब्लॉक के समीप 1762.839 हेक्टेयर में फैले राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड को आवंटित केते एक्सटेंशन को राज्य सरकार ने अपनी अंतिम मंजूरी दे दी और करीब 10 दिन के अंतराल में सरकार ने परसा कोयला खदान को भी स्वीकृति दे दी।

हालांकि छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस संचार विभाग के प्रमुख सुशील आंनद शुक्ला कहते हैं, “सरकार का पूरा प्रयास है कि आदिवासियों का विस्थापन न हो। राजस्थान सरकार ने कहा कि यहां कोयला खनन रुकने से उनके राज्य में बिजली का संकट पैदा हो जाएगा। उनके इस तर्क के बाद छत्तीसगढ़ सरकार ने इस आधार पर खनन के लिए सहमति दी है कि आदिवासियों का कम से कम नुकसान हो। हम चाहते हैं वहां खनन हो मगर आदिवासियों के हितों को ध्यान में रखकर।”

दूसरी ओर बीटेक की पढ़ाई पूरी कर चुके युवक संबल सिंह खनन की मंजूरी को आदिवासी संस्कृति के लिए विनाशकारी बताते हैं। वे कहते हैं कि सरकार के इस कदम से बड़ी संख्या में विस्थापन होगा,  विस्थापन के बाद पहचान का संकट पैदा हो जाता है। रिश्तेदारी वगैरह भी छूट जाती है। रीति, रिवाज, परंपराएं, संस्कृति सब नष्ट हो जाती हैं। वे कहते हैं, “हमारे पूर्वज यदि बगैर बिजली के ही रह लिए तो हम भी उनके ही वंशज हैं। हम भी बिना विकास के रह सकते हैं।”

कोल ब्लॉक को मंजूरी मिलने के बाद एक तरफ जहां विस्थापन और उससे जुड़े खतरों की आशंकाओं से आदिवासी चिंतित हैं तो दूसरी ओर सरकार पर ‘फर्जी ग्राम सभा’ के जरिए वन स्वीकृति देने के भी आरोप लगाए जा रहे हैं। आंदोलनकारी ग्रामीण इस बात को बार-बार दोहरा रहे हैं कि उन्होंने कभी यहां कोल ब्लॉक के लिए अनुमति नहीं दी है। ग्रामीणों का यह भी दावा है कि भूमि अधिग्रहण के लिए कोल बेयरिंग एक्ट का इस्तेमाल किया गया है, जबकि इसके लिए भूमि अधिग्रहण कानून का इस्तेमाल किया जाना चाहिए था।

जुटो रे साथीः आदिवासियों की मांग है कि खदान आवंटन को तुरंत रद्द किया जाए

जुटो रे साथीः आदिवासियों की मांग है कि खदान आवंटन को तुरंत रद्द किया जाए

छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के आलोक शुक्ला कहते हैं कि परसा कोल ब्लॉक खुलने से हरिहरपुर गांव और फतेहपुर गांव पूरी तरह विस्थापित हो जाएंगे। विवाद का मसला यह है कि लगभग 170 हजार हेक्टेयर का यह जंगल संविधान की पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत आता है। यहां बिना ग्राम सभा की सहमति के न तो वनभूमि का डायवर्जन हो सकता है न ही भूमि अधिग्रहण हो सकता है। पांचवीं अनुसूची ग्राम सभाओं और वहां हजारों साल से रह रहे आदिवासी समुदायों को उनकी परंपरा, रीति-रिवाजों और धार्मिक मान्यताओं को ‘वैधानिक बल’ प्रदान करती है। शुक्ला दावा करते हैं कि हरिहरपुर, फतेहपुर और साल्ही ने कभी भी ग्राम सभा में सहमति नहीं दी। फर्जी ग्राम सभा के आधार पर वन स्वीकृति दी गई है, इसलिए आदिवासी आंदोलन कर रहे हैं। हरिहरपुर के ही ठाकुर राम भी कहते हैं कि फर्जी ग्राम सभा के जरिए कंपनी परसा कोल ब्लॉक को चालू करने जा रही है। वे सख्त लहजे में कहते हैं, “हम 2 मार्च से यहां बैठे हैं। लेकिन सरकार ने एक बार भी हमसे पूछने की कोशिश नहीं की कि हमारी क्या समस्याएं हैं, हम क्यों धरने पर बैठे हैं।”

हरिहरपुर से तीन किलोमीटर दूर घाटबर्रा के सरपंच जयनंदन सिंह पोर्ते भी इस आंदोलन को समर्थन दे रहे हैं। वे कहते हैं, “सरकार अपनी पूरी बात हमारे सामने पारदर्शिता के साथ नहीं रखती, इसलिए भी आदिवासियों के मन में विभिन्न तरह की आशंकाएं हैं। दूसरी बात, खदान खुलने को लेकर आदिवासियों का पिछला अनुभव बेहद खराब रहा है। उन्होंने देखा है कि किस तरह उन क्षेत्रों में बदहाली आई है। इसलिए ग्रामवासियों ने यहां कोल ब्लॉक नहीं खुलने देने का निर्णय लिया है।”

किसने की पेड़ों की कटाई?

राज्य सरकार की ओर से खनन की मंजूरी के बाद 26 अप्रैल को तड़के बड़ी-बड़ी मशीनों ने हसदेव अरण्य के जंगलों में 300 से अधिक पेड़ों को काट दिया। मशीनों की आवाज सुन कर लोग जंगल की ओर भागे। पेड़ काटने के लिए पुलिस के साथ आए निजी कंपनी के लोगों से पेड़ों की कटाई की अनुमति से जुड़े दस्तावेज मांगे गए। भारी विरोध के बाद पेड़ काटने वालों को वापस लौटना पड़ा। लेकिन इस पूरे मसले पर अब छत्तीसगढ़ सरकार ने केंद्र सरकार से कहा है कि पेड़ों की कटाई की अनुमति वर्तमान में नहीं दी गई है। दरअसल, परसा कोयला खदान के आवंटन और पेड़ों की कटाई को लेकर केंद्र सरकार के पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन विभाग से संबद्ध नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी ने छत्तीसगढ़ सरकार से जवाब तलब किया था। जिस पर राज्य सरकार ने कहा है कि वहां अभी पेड़ों की गणना चल रही है, पेड़ों की कटाई की अनुमति नहीं दी गई है। नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी ने अपनी एक रिपोर्ट में हसदेव के इलाके को बाघ के मूवमेंट वाले इलाकों में शामिल कर रखा था। लिहाजा कानूनन कोयला खदान की स्वीकृति से पहले नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी और नेशनल वाइल्ड लाइफ बोर्ड से अनुमति ली जानी आवश्यक थी। मगर छत्तीसगढ़ सरकार ने नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी और नेशनल वाइल्ड लाइफ बोर्ड को इस संबंध में सूचना तक नहीं दी।

अगर यह कोल ब्लॉक खुलता है, तो पूरा गांव न सिर्फ विस्थापित होगा बल्कि तेंदूपत्ता बीनने का रोजगार भी संकट में पड़ जाएगा

अगर यह कोल ब्लॉक खुलता है, तो पूरा गांव न सिर्फ विस्थापित होगा बल्कि तेंदूपत्ता बीनने का रोजगार भी संकट में पड़ जाएगा

छत्तीसगढ़ हाइकोर्ट ने भी पेड़ों की कटाई पर नाराजगी जाहिर करते हुए कहा था कि इस खदान के भूमि अधिग्रहण को लेकर मामला दायर है। अगर यह भूमि अधिग्रहण ही रद्द हो गया तो क्या काटे गए पेड़ों को पुनर्जीवित किया जा सकता है? अब ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि राज्य सरकार की इजाजत के बगैर हसदेव अरण्य के परसा कोयला खदान में पेड़ों की कटाई कैसे हो रही थी? फिलहाल आदिवासियों ने तय किया है कि जहां 300 पेड़ काटे गए हैं, वहां 3000 पौधे लगाएंगे।

मानव-हाथी द्वंद्व बढ़ने का खतरा?

हसदेव अरण्य में खनन की मंजूरी के बीच पर्यावरण संबंधी चिंताएं प्रमुख रूप से उभर कर सामने आ रही हैं। हसदेव अरण्य हाथियों सहित दूसरे वन्य जीवों का रहवास और आवाजाही का रास्ता है। उत्तरी कोरबा, दक्षिणी सरगुजा और सूरजपुर जिले में फैली हसदेव अरण्य की विपुल जैव विविधता और उच्च पारिस्थितिकी की वजह से कोयला मंत्रालय और वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने 2010 में एक संयुक्त अध्ययन के बाद, इस क्षेत्र को किसी भी तरह के खनन के लिए प्रतिबंधित करते हुए इसे ‘नो गो एरिया’ घोषित किया था। इसके साथ ही यह इलाका हसदेव बांगो बांध का कैचमेंट एरिया भी है।

आलोक शुक्ला कहते हैं, “यह सघन वन क्षेत्र है। यह जैव विविधता से समृद्ध इलाका है। वन्य प्राणियों विशेष तौर पर हाथियों का कॉरीडोर है। हसदेव नदी और बांगो मिनीमाता डेम का कैचमेंट है इसलिए यह क्षेत्र नो गो इलाका था। वर्ल्ड वाइड इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (डब्ल्यूडब्ल्यूआइ) ने भी अपनी चिंता जाहिर की है कि अगर यहां खनन शुरू होता है तो मानव-हाथी द्वंद्व विकराल रूप ले लेगा।” वे आरोप लगाते हैं कि सिर्फ कॉरपोरेट हित में आदिवासी और पर्यावरणीय हितों की अनदेखी की जा रही है।

अदालत से आस

सरकार से बार-बार अपील कर रहे आदिवासियों की आस अब अदालत से है। इस संबंध में 11 मई को छत्तीसगढ़ हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से अलग-अलग परिणाम सामने आए हैं। छत्तीसगढ़ हाइकोर्ट ने ‘हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति’ की ओर से दायर उस याचिका को खारिज कर दिया है, जिसमें कहा गया था कि छत्तीसगढ़ सरकार परसा कोल ब्लॉक के लिए भूमि-अधिग्रहण में ‘पेसा कानून’ को दरकिनार कर रही है। एक अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने अधिवक्ता सुदीप श्रीवास्तव की याचिका पर केंद्र सरकार, छत्तीसगढ़ सरकार, राजस्थान राज्य विद्युत निगम और अडाणी के स्वामित्व की कंपनी ‘परसा केते कोलरीज लिमिटेड’ को नोटिस जारी किया। वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने इस मामले में पैरवी की। उन्होंने अदालत को बताया, हसदेव अरण्य जंगल नो गो एरिया घोषित था। इसमें परसा ईस्ट केते बासन खदान को दी गई अनुमति को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने 2014 में ही रद्द कर दिया था। ट्रिब्यूनल ने भारतीय वन्यजीव संस्थान और इंडियन काउंसिल ऑफ फारेस्ट्री रिसर्च से इस क्षेत्र में खनन के प्रभावों का विस्तृत अध्ययन करने को भी कहा था। केन्द्र ने ऐसा अध्ययन कराए बिना ही अन्य खदानों को इजाजत देना जारी रखा। अब सात साल बाद वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट की अध्ययन रिपोर्ट आई है, जिसमें स्पष्ट कहा है कि हसदेव के जितने हिस्से में खनन हो गया उसके अलावा अन्य इलाकों में खनन न किया जाए। इसके बाद भी छत्तीसगढ़ सरकार ने परसा ईस्ट केते बासन खदान के दूसरे चरण और परसा खदान को अनुमति दे दी है। इसके लिए चार लाख 50 हजार पेड़ काटे जाएंगे। इससे इस क्षेत्र में हाथियों और इनसानों के बीच संघर्ष बढ़ेगा।

राजस्थान विद्युत उत्पादन कंपनी और खनन कंपनी की कोयले की आवश्यकता वाले तर्क के जवाब में प्रशांत भूषण ने कहा कि नो गो एरिया के बाहर बहुत से कोल ब्लॉक हैं और वहां पर्याप्त कोयला भी उपलब्ध है। ऐसे में जैव विविधता से भरपूर एक जंगल में खनन की इजाजत नहीं मिलनी चाहिए। सुनवाई के बाद खंडपीठ ने चार हफ्ते में सभी पक्षों को जवाब देने के निर्देश दिए हैं।

विपक्ष शांत, जनता अशांत

सोशल मीडिया पर 'सेव हसदेव' काफी दिनों से ट्रेंड कर रहा है। देश और विदेशों में भी हसदेव अरण्य को बचाने के लिए कई प्रदर्शन हो चुके हैं। वहीं राज्य में भी कई आदिवासी संगठन और राजनीतिक दल इस आंदोलन के साथ-साथ कदमताल करते दिख रहे हैं। पिछले दिनों सर्व आदिवासी समाज ने सरगुजा में रेल रोको आंदोलन चलाया। वहीं आम आदमी पार्टी ने भी बड़े आंदोलन की चेतावनी दी है। कई कलाकार गीतों और रैप के जरिए भी इस आंदोलन के प्रति अपनी एकजुटता दिखा रहे हैं। मगर राज्य में मुख्य विपक्षी दल भाजपा की ओर से अभी तक कोई खास प्रतिक्रिया नहीं देखी गई।

हालांकि भाजपा नेता और अनुसूचित जनजाति आयोग के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष नंदकुमार साय आउटलुक से कहते हैं, “आज ग्लोबल वार्मिंग का खतरा बढ़ा हुआ है, इसलिए कोई बीच का रास्ता निकाला जाए जिससे कोयले की भी आपूर्ति हो जाए और पेड़ पौधे भी बचे रहें।”

पद्मश्री से सम्मानित लोक संगीत के जानकार अनूप रंजन पांडेय ने भी अपना समर्थन इस आंदोलन को दिया है। वे जंगल की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, “ये देखिए यहां गीत पनपते हैं, नृत्य को पदविन्यास और भाव-भंगिमाएं मिलती हैं। चिड़िया और नदी बातें करती हैं, संवाद करती हैं। लेकिन अंधाधुंध विकास की चरम अभिलाषा में आपने हजारों जीव-जंतुओं, मानवों, आदिवासियों को, हजारों साल की विकास यात्रा को नष्ट कर दिया। अब इस हसदेव को बचाना बेहद जरूरी है।”

संपतिया देवी

केते मेरा मायका है, वहां जब खदान खुली तो पूरा गांव विस्थापित हो गया। सब तहस-नहस हो गया। अब ये लोग हरिहरपुर को भी इसी तरह बर्बाद करना चाहते हैं। लेकिन इस बार हम ये नहीं होने देंगे

संपतिया देवी, हरिहरपुर निवासी

ठाकुर राम

फर्जी ग्राम सभा के जरिए कंपनी परसा कोल ब्लॉक को चालू करने जा रही है। हम 2 मार्च से यहां बैठे हैं। लेकिन सरकार ने एक बार भी पूछने की कोशिश नहीं की कि हमारी क्या समस्याएं हैं, हम क्यों धरने पर बैठे हैं

ठाकुर राम, हरिहरपुर निवासी

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