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क्या प्राइवेट के नाम पर भेंट चढ़ जाएगा बीएसएनएल? सरकारी नीतियों ने पहुंचाया बंदी के कगार पर

“बेहद फायदेमंद और सुरक्षा मामलों के लिए जरूरी सार्वजनिक उपक्रम की सरकारी नीतियों और बेतुके फैसलों...
क्या प्राइवेट के नाम पर भेंट चढ़ जाएगा बीएसएनएल? सरकारी नीतियों ने पहुंचाया बंदी के कगार पर

“बेहद फायदेमंद और सुरक्षा मामलों के लिए जरूरी सार्वजनिक उपक्रम की सरकारी नीतियों और बेतुके फैसलों से बर्बादी की दास्तान”

मुख्यालय या कॉरपोरेट ऑफिस के शीर्ष पर नाम के ढहते अक्षर मानो इस ‘नवरत्न’ की खस्ताहाली और कारोबारी दुर्दशा बयां कर रहे हैं। भारत संचार निगम लिमिटेड (बीएसएनएल) आज बढ़ते घाटे, वेतन तक दे पाने की दिक्कतों, लगातार घटती बाजार हिस्सेदारी से ऐसे रू-ब-रू है कि रिवाइवल पैकेज के लिए सरकार की दया की मोह‌ताज है। इसके विपरीत ज्यादा वक्त नहीं बीते जब देश में फैले उसके विशाल नेटवर्क के कारण हर कोई उसके सिम के लिए कतारों में खड़ा दिखता था और निजी कंपनियां होड़ में हांफती नजर आती थीं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में नीतियों और कर्ताधर्ताओं ने ऐसा क्या किया, जिससे बीएसएनएल जैसा विशाल हाथी भी दम तोड़ने लगा। इसकी दुर्दशा यह भी बताती है कि कैसे सरकारी उपक्रमों की बर्बादी की राख पर निजी कंपनियों का साम्राज्य खड़ा किया जा रहा है।

फिलहाल बीएसएनएल 14 हजार करोड़ रुपये के घाटे में पहुंच गई है। उस पर 11,800 करोड़ रुपये की देनदारी है। इंडियन ब्रांड इक्विटी फाउंडेशन के अनुसार, मोबाइल सेवा में कंपनी की बाजार हिस्सेदारी मार्च 2005 में 17 फीसदी से घटकर अब 10 फीसदी पर आ गई है, जो न्यूनतम हिस्सेदारियों में एक है। तकरीबन 90 फीसदी बाजार पर निजी कंपनियों का कब्जा हो चुका है। वेंडर पैसे लेने के लिए कंपनी के दरवाजे पर धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं। कंपनी कर्मचारियों को वेतन देने में भी दिक्कतों का सामना कर रही है।

इस बीच केंद्र में यूपीए और एनडीए दोनों सरकारों ने बीएसएनएल के पुराने दिन लौटाने के बड़े-बड़े दावे जरूर किए, लेकिन कंपनी की हालत बिगड़ती ही गई। अलबत्ता हकीकत यह भी है कि कई सरकारी फैसलों ने निजी कंपनियों के आगे उसे खड़ा होने ही नहीं दिया।

कंपनी के भविष्य को लेकर आशंकाओं और असमंजस का एहसास उसका कॉरपोरेट ऑफिस भी शिद्दत से करा देता है। इस नौ मंजिला बिल्डिंग के प्रवेश द्वार पर वेंडर 2 जुलाई 2019 को अपने बकाए के लिए धरने पर बैठे थे। कर्मचारियों में अजीब-सी घबराहट है। क्या कंपनी बचेगी? उनको वीआरएस (स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति) मिलेगी या फिर कंपनी बंद कर दी जाएगी?

विडंबना देखिए कि 2000 में बनी कंपनी के पास एक समय 37 हजार करोड़ रुपये का कैश रिजर्व हुआ करता था। लेकिन फरवरी 2019 में वह हुआ जो कभी नहीं हुआ था। कर्मचारियों को वेतन देने में दिक्कतें तक आन खड़ी हुईं। कुल 1.65 लाख कर्मचारियों के कई भत्ते रोक दिए गए हैं। संचार निगम एक्जीक्यूटिव एसोसिएशन के अध्यक्ष आफताब अहमद खान कहते हैं, “कर्मचारियों का एचआरए फ्रीज कर दिया गया है। एलटीसी रोक दी गई है। यही नहीं, 4-5 महीने से मेडिकल बिल का पेमेंट नियमित नहीं हो रहा है। कई शहरों में कंपनी बिजली के बिल का भुगतान नहीं कर पा रही है। मेंटिनेंस के काम के लिए पैसे मिलने में देरी हो रही है। कुछ जगहों पर तो में‌टिनेंस का काम कर्मचारी अपने पैसे से कर रहे हैं, इस उम्मीद में कि बाद में भुगतान हो जाएगा। कंपनी में जान फूंकने के लिए सरकार को तुरंत कदम उठाना चाहिए। अगर दो-तीन महीने में हालात नहीं सुधरे तो चीजें बेकाबू हो जाएंगी। कर्मचारी हर सहयोग देने के लिए तैयार हैं।”

सेल्युलर ऑपरेटर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया के महानिदेशक राजन मैथ्यू कहते हैं, “बीएसएनएल की इस हालत की दो प्रमुख वजहें हैं। एक, कर्मचारियों के खर्च का बोझ बहुत ज्यादा है। इंडस्ट्री के मानकों के हिसाब से देखें तो यह कुल कमाई का करीब 100 फीसदी है। निजी कंपनियों में यह खर्च मात्र 15-20 फीसदी है। दूसरे, उपकरणों की खरीद प्रक्रिया जटिल है। कई बार खरीद संबंधी मामले न्यायिक प्रक्रिया में उलझ गए। कंपनी सही समय पर निवेश नहीं कर पाई और पिछड़ती गई।” लेकिन गुजरात टेलीकॉम सर्किल के संचार निगम एक्जीक्यूटिव एसोसिएशन के सर्किल सेक्रेटरी बी.जी.पटेल का सवाल है, “पूरी टेलीकॉम इंडस्ट्री पर सात-आठ लाख करोड़ रुपये का कर्ज है। एयरटेल, वोडाफोन जैसी कंपनियों पर ही एक लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का कर्ज है। बीएसएनएल की देनदारी 13,000 करोड़ रुपये ही है। फिर भी कंपनी को ही समस्याओं की जड़ क्यों माना जा रहा है?”

ऐसे गिरती गई कमाई

बीएसएनएल अपने गठन के समय मुनाफा कमाने वाली कंपनी थी। उसे 2001-02 में 6,312  करोड़ रुपये का शुद्ध लाभ हुआ था। उस वक्त वह सबसे ज्यादा मुनाफेवाली सरकारी कंपनी बन गई थी। 2004-05 में कंपनी को 10,183 करोड़ रुपये का मुनाफा हुआ था। यह कंपनी का अब तक का सबसे अधिक मुनाफा था। लेकिन जैसे-जैसे बाजार में प्रतिस्पर्धा बढ़ती गई, कंपनी का मुनाफा घटता गया। इसे 2009-10 में पहली बार 1840.7 करोड़ रुपये का घाटा हुआ। उसके बाद से यह लगातार घाटे में चल रही है। 2018-19 आते-आते घाटा 14 हजार करोड़ रुपये तक पहुंच गया।

बीएसएनएल के एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार, देनदारी लगातार बढ़ती जा रही है। कंपनी की तरफ से 17 जून 2019 को दूरसंचार विभाग को भेजे पत्र में कहा गया है, “14 जून 2019  तक कंपनी की देनदारी 11,788 करोड़ रुपये तक पहुंच गई। कर्मचारियों को जून का वेतन देना भी मुश्किल है। अगर सरकार की तरफ से कोई आर्थिक मदद नहीं मिलती है तो कामकाज जारी रखना भी मुश्किल हो जाएगा।”

 सरकारी नीतियों ने बैठाया भट्ठा

एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार, सरकारी नीतियां  ऐसी रहीं जिनकी वजह से बीएसएनएल कभी कंपनी के रूप में काम ही नहीं कर पाई। आज भी कंपनी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर के पास स्वतंत्र अधिकार नहीं है। उसे कई अहम फैसलों के लिए दूरसंचार विभाग पर निर्भर रहना पड़ता है। ऐसे दौर में जब फटाफट फैसले लिए जाते हैं, वहां एक उपकरण खरीदने की प्रक्रिया को भी लालफीताशाही से गुजरना पड़ता है। निजी कंपनियों से मुकाबला करने के लिए तकनीकी स्तर पर हम पिछड़ गए हैं। सोचिए आज भी बीएसएनएल को 4जी सेवाएं देने का लाइसेंस नहीं मिला है। कंपनी 3जी सेवाओं की बदौलत कैसे प्रतिस्पर्धा कर सकती है?

रिलायंस जियो की एंट्री भी कंपनी के लिए एक नई चुनौती लेकर आई। इस संबंध में नवंबर 2018 में बीएसएनएल कर्मचारियों ने अनिश्चितकालीन हड़ताल की धमकी दे डाली। 22 नवंबर को डिपार्टमेंट ऑफ टेलीकम्युनिकेशंस को लिखे गए पत्र में ऑल यूनियंस ऐंड एसोसिएशन ऑफ बीएसएनएल ने कहा था, “कंपनी 2005-06 तक मुनाफे में रही थी। लेकिन सभी को पता है कि सात साल तक कंपनी को विस्तार के लिए उपकरण खरीदने को नहीं मिले। इसके बाद रिलायंस जियो की टैरिफ पॉलिसी के कारण कंपनी को काफी नुकसान उठाना पड़ा है। इस वजह से एयरटेल और वोडाफोन को भी घाटा उठाना पड़ा है। इसलिए पूरी समस्या के लिए सरकार ही जिम्मेदार है।” नीतियां किस तरह असर डालती हैं, इसकी एक बानगी बीएसएनएल के पूर्व सीएमडी आर.के.उपाध्याय बताते हैं, “2010 में जब 3जी स्पेक्ट्रम का आवंटन हो रहा था तब सरकार ने इस शर्त पर कंपनी को स्पेक्ट्रम दिए कि जब 3जी स्पेक्ट्रम की नीलामी होगी, तो उस समय जो रेट तय होगा, उस आधार पर कंपनी पैसे चुका देगी। यह नहीं देखा गया कि कंपनी के लिए यह सेवाएं लाभकारी होंगी या नहीं। 3जी सेवाएं फायदेमंद नहीं रहीं लेकिन शर्त तय थी तो कंपनी को पैसे चुकाने ही थे। इसी तरह उस वक्त वाईमैक्स तकनीकी में निवेश का फैसला भी किया गया। इन दो फैसलों से ही कंपनी को सरकार को 19 हजार करोड़ रुपये चुकाने पड़े। उसके बाद से कंपनी कभी संभल ही नहीं पाई। मेरे हिसाब से ये फैसले ताबूत की आखिरी कील साबित हुए।” सूत्रों के अनुसार, सरकार को 19 हजार करोड़ रुपये लेने की ऐसी जल्दी थी कि तत्कालीन बीएसएनएल सीएमडी उस समय लद्दाख में थे और उन्हें वहीं से पैसे ट्रांसफर करने के निर्देश दिए गए।

उपाध्याय एक और बानगी बताते हैं, “टेलीकॉम सेक्टर पूरी तरह सर्विस की गुणवत्ता पर निर्भर करता है। कंपनी को सभी कामों के लिए टेंडर जारी करना पड़ता था। जब भी कोई टेंडर जारी किया जाता तो आवंटन से पहले मामला न्यायालय तक पहुंच जाता था। कंपनी के बोर्ड को टेंडर निरस्त करने पड़ते थे। इस वजह से 2005-06 से लेकर अक्टूबर 2011 तक कंपनी कोई टेंडर आवंटित नहीं कर पाई। यानी पांच-छह साल तक कंपनी मोबाइल नेटवर्क मजबूत करने के लिए कोई काम ही नहीं कर पाई। अब तेजी से बदलते टेलीकॉम सेक्टर में कोई कंपनी अगर निवेश नहीं कर सकेगी, तो उसकी सर्विस की गुणवत्ता गिरनी तय है। उसके ग्राहक उससे दूर चले ही जाएंगे। बीएसएनएल के साथ ऐसा ही हुआ। छह साल बाद 1.45 करोड़ लाइन के लिए करीब 4,000 करोड़ रुपये का टेंडर जारी हुआ। इसके बाद स्थिति में थोड़ा सुधार हुआ है। लेकिन अब फिर स्थिति वही है कि जब दूसरी कंपनियां 4जी सेवाएं दे रही हैं, बीएसएनएल 3जी सर्विस दे रही है।”

सरकार के फैसलों की देरी की एक बानगी टेलीकॉम टॉवर कंपनी की कहानी भी है। 2011 में एक प्रस्ताव कंपनी की तरफ से दिया गया। इसमें कहा गया कि कंपनी के पास करीब 66 हजार टॉवर हैं। ये सारे फाइबर से कनेक्टेड हैं। एक अलग टॉवर कंपनी बनाई जाए जो पूरी तरह प्रोफेशनल तरीके से काम करेगी। कंपनी मार्केट वैल्युएशन के आधार पर बनेगी। ऐसे में जब कभी स्ट्रैटेजिक बिक्री होगी, तो बीएसएनल को कमाई होगी। इसके लिए समिति भी बनी। कैबिनेट ने 2017 में इस कंपनी को बनाने की मंजूरी दी। यानी एक फैसला लेने में छह साल लग गए। अभी तक वह कंपनी ऑपरेशनल नहीं हो पाई है। इससे साफ है कि सरकारें कैसे काम करती हैं।

 कर्मचारियों का मामला

गठन के समय कर्मचारियों का वेतन कंपनी की कुल कमाई का करीब 22 फीसदी हिस्सा हुआ करता था। यह अब बढ़कर 75 फीसदी तक पहुंच गया है। इसकी प्रमुख वजह वेतन में बढ़ोतरी के साथ-साथ कंपनी की लगातार गिरती कमाई है। कंपनी को पहले साल में ही 25,893 करोड़ रुपये की आय हुई थी, जो 2005-06 में बढ़कर 40,177 करोड़ रुपये तक पहुंच गई। 2018-19 आते-आते आय 19,308 करोड़ रुपये रह गई, जो अब तक का न्यूनतम है।

गिरती कमाई पर उपाध्याय कहते हैं, “देखिए कपंनी के पास पहले ही दिन से काफी ज्यादा कर्मचारी थे। इनकी संख्या चार लाख से अधिक थी। समय के साथ पेशेवर लोगों की भर्तियां नहीं हो पाना भी कमाई गिरने की वजह बनी। टेलीकॉम सेक्टर में न सिर्फ बदलाव तेजी से होते हैं, बल्कि इसमें निवेश की भी बहुत जरूरत है। ऐसे लोग भी चाहिए जो नई तकनीक की बेहतर समझ रखते हैं। कंपनी इसमें मात खा गई। नए पेशेवरों की भर्तियां नहीं होने का खामियाजा सेवाओं की गुणवत्ता पर पड़ा।” पेशवरों की कमी पर मैथ्यू का कहना है, “ऐसा नहीं है कि कंपनी के पास बेहतर काम करने वाले नहीं हैं। तकनीक की समझ रखने वाला अच्छा प्रबंधन भी है, लेकिन अगर आप प्रबंधन को अधिकार नहीं देंगे तो वह अपना कौशल कैसे दिखाएगा। बीएसएनएल के साथ ऐसा ही हुआ।”

नवरत्न कंपनी से बीमार कंपनी की हालत में पहुंच चुकी बीएसएनएल शुरू से ऐसी नहीं थी। एक समय था जब उसके कनेक्शन के लिए लाइन लगानी पड़ती थी। उस दौर को याद करते हुए गोरखपुर निवासी सुरेंद्र कुमार कहते हैं, “1995 में मैंने ‘ओन योर टेलीफोन स्कीम’ के तहत 15,000 रुपये देकर लैंडलाइन कनेक्शन लिया था। उस दौर में तुरंत फोन लेने के लिए यही विकल्प था, वरना कनेक्शन मिलने में वर्षों लग जाते थे। आज ऐसा कुछ नहीं है। लेकिन निजी कंपनियों के आने के बाद कंपनी अपनी विरासत को नहीं संभाल पाई।”

गुरुग्राम के मैंनेजमेंट प्रोफेशनल रत्नेश त्रिपाठी की राय भी कुछ ऐसी ही है। वे कहते हैं, “बीएसएनएल ने जब अपनी मोबाइल सर्विस शुरू की, तो देश भर में नेटवर्क होने का उसे भारी लाभ था। कंपनी उसका फायदा उठाने में नाकाम रही। निजी कंपनियों के मुकाबले सर्विस देने में वह काफी पीछे है। आज 5जी की बात हो रही है जबकि बीएसएनएल अभी तक 4जी सर्विस भी लॉन्च नहीं कर पाई है। ऐसे में कोई कस्टमर क्यों उसकी सेवाएं लेगा?”

कंपनी क्यों पिछड़ती गई, इस पर उपाध्याय कहते हैं, “इसे समझने के लिए 19 साल पहले जाना पड़ेगा। 30 सितंबर 2000 को अधूरी तैयारियों के साथ बीएसएनएल का गठन कर दिया गया। उस समय डिपार्टमेंट ऑफ टेलीकॉम, डिपॉर्टमेंट ऑफ टेलीकॉम सर्विसेज और डिपॉर्टमेंट ऑफ ऑपरेशंस हुआ करते थे। फैसला यह हुआ था कि ऑपरेशंस और सर्विसेज विभाग को मिलाकर बीएसएनएल का गठन किया जाएगा। तब यह नहीं देखा गया कि अगर नई कंपनी का गठन किया जा रहा है तो उसकी जरूरतें क्या होंगी, उसे कैसा इन्‍फ्रास्ट्रक्चर चाहिए? दूरसंचार विभाग के तहत आने वाले चार लाख से ज्यादा कर्मचारी बीएसएनएल के जिम्मे डाल दिए गए। यह अध्ययन तक नहीं किया गया कि वास्तव में बीएसएनएल को कितने कर्मचारियों की जरूरत है।”

वे आगे कहते हैं, “ये कर्मचारी सरकार के विभाग के रूप में काम कर रहे थे, तब चीजें चल जाती थीं। लेकिन जब आप कंपनी बना रहे हैं और उसकी टक्कर निजी कंपनियों से है, तो आपको प्रोफेशनल रवैया अपनाना होगा। लेकिन बीएसएनएल में इंडियन टेलीकॉम सर्विसेज के अधिकारियों, ज्वाइंट टेलीकॉम अफसर और उसके नीचे के कर्मचारियों में तालमेल ही नहीं बन पाया। यानी इसे शुरू से ही कई बीमारियां लग गईं। जब तक कमाई हो रही थी तब तक सारी खामियां छिपी हुई थीं। लेकिन जैसे ही कमाई पर संकट आया, खामियां सामने आने लगीं। फिर उससे निकलना आसान नहीं रह गया।”

सुधार के लिए क्या?

संचार और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने लोकसभा में 3 जुलाई 2019 को दिए लिखित जवाब में कहा, “बढ़ती प्रतिस्पर्धा की वजह से घटते टैरिफ, कर्मचारियों पर ज्यादा खर्च और 4जी सेवाओं की अनुपलब्धता की वजह से बीएसएनएल का घाटा बढ़ा है।” उन्होंने एक और बयान में बताया कि सरकार कंपनी के रिवाइवल के लिए जल्द ही पैकेज का ऐलान करेगी। प्रसाद के अनुसार, बीएसएनएल और एमटीएनएल (महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड) राष्ट्रीय संपत्ति हैं। ये रक्षा और गृह मामलों में कई संवेदनशील जगहों पर काम करती हैं। आपदा के समय मुफ्त में सेवाएं देने का भी काम करती हैं। ऐसे में इनको फिर से पटरी पर लाया जाएगा।

प्रसाद के इस ऐलान के पहले भी रिवाइवल को लेकर कई कवायद हो चुकी है। आइआइएम अहमदाबाद ने अप्रैल 2018 में इस संबंध में विस्तृत रिपोर्ट तैयार की थी। उसने कंपनी को जल्दी 4जी स्पेक्ट्रम आवंटित करने और एसेट मोनेटाइजेशन की सलाह दी। इसी तरह सूचना प्रौद्योगिकी मामलों पर संसदीय समिति ने जनवरी 2019 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी। इसमें भी कंपनी को 4जी स्पेक्ट्रम आवंटन से लेकर एसेट मोनेटाइजेशन की सिफारिशें की गई हैं। साथ ही यह भी कहा गया है कि दूसरी कंपनियों को देखते हुए बीएसएनएल का घाटा कोई आश्चर्यजनक नहीं है। समिति ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना (वीआरएस) लाने की भी सलाह दी है। कंपनी के पास 15,192 प्रॉपर्टी हैं। इनमें से 1,481 फ्रीहोल्ड हैं। बीएसएनएल द्वारा दूरसंचार विभाग को लिखे पत्र के अनुसार, इन भूखंडों की मार्केट वैल्यू करीब एक लाख करोड़ रुपये है। बीजी पटेल के अनुसार, “इन तीनों सिफारिशों के संबंध में हम प्रधानमंत्री कार्यालय तक पत्र लिख चुके हैं। सरकार को जल्द ही इस दिशा में कदम उठाना चाहिए।”

कमाई से घाटे का सफर

- एक अक्टूबर 2000 को डिपार्टमेंट ऑफ टेलीकॉम ऑपरेशंस और सर्विसेज को मिलाकर भारत संचार निगम लिमिटेड का गठन किया गया

 - 2001-02 में 6,312 करोड़ मुनाफे के साथ देश की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली सार्वजनिक कंपनी बनी

- कंपनी ने 2002 में सेल वन नाम से शुरू की मोबाइल सेवाएं, हालांकि निजी कंपनियों ने 1995 -96 से अपनी सेवाएं देनी शुरू कर दी थी

- बढ़ती कमाई से 2007-08 में कंपनी के पास 37,162 करोड़ रुपये की नकदी थी

 - 2009-10 में पहली बार कंपनी को 1,822 करोड़ रुपये का घाटा हुआ

 - 2012 में कंपनी ने 3जी सेवाएं शुरू की, 3जी लाइसेंस और वाइमैक्स तकनीक के इस्तेमाल पर कंपनी को 19 हजार करोड़ रुपये खर्च करने पड़े

- गठन के समय कर्मचारियों पर कमाई का कुल खर्च 22 फीसदी था, जो अब बढ़कर 75 फीसदी तक पहुंच चुका है

- फरवरी 2019 में पहली बार कर्मचारियों की सैलरी अटकी

- केरल एकमात्र सर्किल है जो कंपनी के लिए फायदेमंद है। बाकी 21 सर्किल में कंपनी को घाटा हो रहा है

- जून 2019 तक कंपनी पर 11,788 करोड़ रुपये की देनदारी हो चुकी है

- डाटा के दौर में कंपनी के पास अभी तक 4जी लाइसेंस नहीं है

 ‌- 15 साल में कंपनी की मोबाइल ग्राहकों में हिस्सेदारी 15 फीसदी से घटकर 10 फीसदी पर आ गई है

- सरकार अब रिवाइवल पैकेज के जरिए कंपनी को उबारने की तैयारी कर रही है। 4जी लाइसेंस और कर्मचारियों के लिए वीआरएस स्कीम लाने का प्लान है।

बेचो और बचाओ का फार्मूला

संकट में घिर चुकी बीएसएनएल को बचाने के लिए सरकार का दावा है कि वह जल्द ही रिवाइवल पैकेज का ऐलान करेगी। टेलीकॉम मंत्रालय से जुड़े एक अधिकारी के अनुसार अभी तक जो पैकेज का खाका तैयार हुआ है, उसके तहत सरकार का भरोसा कंपनी की संपत्तियों को बेचकर और कर्मचारियों की संख्या में कटौती कर कंपनी को बचाने के मॉडल पर है। मंत्रियों के समूह ने 15 जून 2019 को रिवाइवल प्लान को मंजूरी दी। इसमें कंपनी को 4जी लाइसेंस देने का फैसला किया गया है। इसके लिए सॉलिसिटर जनरल से कानूनी सलाह भी ली जा चुकी है। सॉलिसिटर जनरल की राय में कहा गया है कि बीएसएनएल की सामाजिक बाध्यताओं को देखते हुए इसे बिना टेंडर जारी किए 4जी लाइसेंस दिया जा सकता है। बीएसएनएल की जरूरत रक्षा और आंतरिक मामलों में हमेशा रहती है। इसके अलावा प्राकृतिक आपदा के समय यह मुफ्त में टेलीकॉम सेवा उपलब्ध कराती है। इन बातों को देखते हुए बीएसएनएल को बिना टेंडर के 4जी लाइसेंस देने की मांग की गई थी। इसके लिए करीब 14,000 करोड़ रुपये का खर्च खुद सरकार उठाएगी।

बदहाल स्थितिः बीएसएनएल का लखनऊ स्थित उपभोक्ता सेवा केंद्र

बीएसएनएल की देनदारी खत्म करने के लिए इसकी संपत्तियों को लीज पर देने या बेचने के प्रस्ताव को भी मंजूरी दी गई है। इसके तहत 27 जगहों पर संपत्तियों की पहचान की गई है। इनसे करीब 20 हजार करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य रखा गया है। अधिकारी के अनुसार, कंपनी को कुल मिलाकर करीब 15 हजार करोड़ रुपये की देनदारी चुकानी है। संपत्तियां बेचकर या लीज पर देकर यह देनदारी चुकाई जा सकेगी। इस संबंध में वित्त मंत्रालय से भी जरूरी सलाह ले ली गई है।

रिवाइवल प्लान में एक अहम मुद्दा कर्मचारियों पर होने वाले खर्च का है। अभी बीएसएनएल की कुल कमाई का करीब 75 फीसदी हिस्सा कर्मचारियों के ऊपर खर्च होता है। इसे कम करने के लिए स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति प्लान तैयार किया गया है। कंपनी के 55 साल से ज्यादा उम्र के कर्मचारियों को स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने का विकल्प दिया जाएगा। साथ ही कर्मचारियों के लिए सेवानिवृत्ति की उम्र 58 साल कर दी जाएगी। अभी सेवानिवृत्ति की उम्र 60 साल है। यह नियम 1 जनवरी 2020 से लागू होगा। सरकार इस कदम से कर्मचारियों की संख्या में 50 फीसदी कमी लाना चाहती है। करीब 10 हजार करोड़ रुपये जुटाने के लिए गवर्नमेंट एश्योरेंस बांड भी लाने का प्लान है। वहीं, एमटीएनएल बीएसएनएल की सब्सिडियरी बन सकती है।

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