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गांधी और असहिष्णुता

दिव्या द्विवेदी और शाज मोहन असहमति का अर्थ सहिष्णुता के अर्थ में निहित है। स्थिति असहनीय होने पर हम...
गांधी और असहिष्णुता

दिव्या द्विवेदी और शाज मोहन

असहमति का अर्थ सहिष्णुता के अर्थ में निहित है। स्थिति असहनीय होने पर हम असहमत होते हैं- “अब मैं और बर्दाश्त नहीं कर सकता...बस बहुत हो गया।” किसी के पास भी असीमित सहनशक्ति नहीं है। राजनीति का उदारवादी सिद्धांत ‘असंतोष’ और ‘सहिष्णुता’ इन दो अवधारणाओं के इस तरह बने रहने की अपेक्षा करता है, कि वे कभी एक-दूसरे से न टकराएं। गांधी हमें यह पूछने की अनुमति देते हैं कि क्या “कानून” के नाम पर हर बात को मानना और पालन करना अनिवार्य है। क्या यह हमारा कर्तव्य है कि हम हर वो बात मानें जो शासक हम पर थोपता है: कारावास (यरवदा जेल), (भारत का) अवैध कब्जा, पुस्तकों पर प्रतिबंध (हिंद स्वराज), सामूहिक नरसंहार (जलियांवाला बाग) और आर्थिक तबाही (बंगाल अकाल)? गांधी के पास इनका जवाब कुछ इस तरह था, “कभी-कभार ऐसे मौके आते हैं जब वह कुछ कानूनों को इतना अन्यायपूर्ण मानते हैं कि उसका पालन नहीं करते। वह खुले तौर उसका उल्लंघन करते हैं और उसके लिए दंड भी भुगतते हैं।”

असहमति हमारे रोजमर्रा के जीवन में दिखती है, खासकर आज के दौर में। हम सरकार द्वारा लागू किसी गलत फैसले पर सार्वजनिक रूप से असहमति व्यक्त करते हैं या खुल्लम-खुल्ला न्याय प्रणाली द्वारा राजनैतिक अपराध को सहते देखते हैं। इन दिनों हम जो नारे लगा रहे हैं उसमें वर्तमान की गंभीरता और उनसे मिलने वाली प्रतिक्रियाएं देखी जा सकती हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हाल के वर्षों में तीन तर्कवादियों और एक पत्रकार की हत्या उसी तरह से की गई जिस तरह 1948 में गांधी की हिंदू राष्ट्रवादी साजिश के तहत हत्या की गई थी। असहमति और सहिष्णुता पर मृत्यु हावी है।

अनंत दुख मृत्यु है

विरोध तभी संभव है जब कोई चीज किसी दूसरी चीज को पाने या महसूस करने में सक्षम हो। असहमति के लिए कुछ हद तक सहमत होना जरूरी है। संसार को सुनने और प्रतिक्रिया देने की क्षमता को संवेदना कहते हैं। संवेदना संसार को महसूस करने की जीव की क्षमता होती है। जानवरों की संवेदना को इस बात से समझा जा सकता है कि किस तरह वे गर्मी के करीब आते हैं या उससे दूर हो जाते हैं। जैसे, कछुए सुबह के वक्त ठंडे और धीमे होते हैं और इन्हें सूरज की जरूरत होती है। यदि किसी जीव को उसकी सहनसीमा से ज्यादा कष्ट होता है तो वह नष्ट हो जाता है, क्योंकि पूर्ण सहिष्णुता जैसी कोई चीज नहीं है। दूसरी ओर एक चट्टान बिना किसी शिकायत के सब कुछ सहता है। जीव तो हर पल जो महसूस करता है, उस पर उसकी सहमति या असहमति होती है। इससे यह भी पता चलता है कि पूर्ण असहमति जैसी भी कोई चीज नहीं है। हर चीज से असहमति आत्महत्या होगी, जिस तरह दार्शनिक सिमोन वेल दुनिया से अपनी असहमति के कारण भूख से मर गईं। पूर्ण असहमति या पूर्ण सहिष्णुता, दोनों की परिणति मृत्यु है। यहां हमें गांधी से असहमत होना चाहिए जो कहते थे, “सत्याग्रही के लिए कोई समय-सीमा नहीं है और न ही दुख के लिए उसकी क्षमता की कोई सीमा है।”

सहिष्णुता को जीव की संवेदना की सीमा के रूप में समझा जा सकता है। यह सीमा हर पशु और हर मानव में भिन्न होती है। चमगादड़ ध्वनि तरंगों की जिस सीमा को प्राप्त कर सकती है, वह मनुष्य की सीमा से बिलकुल अलग है। अति-अमीर गरीबों की अपेक्षा पर्यावरणीय आपदाओं का सामना बेहतर ढंग से कर सकते हैं। 

हमने देखा कि असहमति और सहिष्णुता एक-दूसरे से संबंधित हैं। सहिष्णुता बढ़ने पर असंतोष कम हो जाता है। सहिष्णुता को बाह्य साधनों के माध्यम से बदला और नियंत्रित किया जा सकता है। यह वैसा ही है जैसे हम खाने के सुपाच्य बनाने के लिए उसे पकाते हैं। यहां खाना पकाना बाहरी साधन है। गांधी ने बाहरी साधनों के बिना पाचन की सीमा के साथ प्रयोग किया। उन्होंने लंबे समय तक कच्चे भोजन का सेवन किया। सहिष्णुता का तंत्र ऐसा ही है जैसे, जाड़े के कपड़े और आंतरिक ऊष्मा। जो लोग ये साधन जुटा सकते हैं, दुनिया उन्हीं लोगों के लिए सहनीय है। सहस्राब्दियों से मानव ने दुनिया को अधिक से अधिक सहने योग्य बनाया है, ताकि हम खुद के एटलस बन सकें। “एटलस” का अर्थ “कष्ट सहना” है, जो ग्रीक अर्थ ‘सहन करने’ के अर्थ में इस्तेमाल होता है और जिसमें लैटिन ‘सहिष्णु’ और ‘सहिष्णुता’ समाहित है।

पूर्ण असंतोष मृत्यु है

अब तक हमने जो देखा उसका संदर्भ जैविक स्तर पर जीव के सर्वाइवल से जुड़ा है। लेकिन राजनीति सिर्फ सर्वाइवल की बात नहीं है। हत्याएं और नरसंहार न केवल उन लोगों को खत्म करते हैं जिन्हें वे मारते हैं, बल्कि जीवित बचे लोगों में भय की स्थापना के माध्यम से वे किसी भी लड़ाई की संभावना को मारते हैं। मृत्यु का भय त्यागकर जब हम स्वतंत्रता के लिए लड़ने के लिए एक साथ आते हैं, तब राजनीति शुरू होती है। ऐसे व्यक्ति हमेशा रहे हैं जो डरते कम थे, प्रेरित ज्यादा करते थे। इससे यह भी पता चलता है कि जो लोग दूसरों में डर पैदा करना चाहते हैं, वे क्यों पहले राजनीतिक संस्थानों को नष्ट करते हैं। इंटरनेट जैसे किसी विचार की रचना और कार्यान्वयन उस स्थिति में असंभव है जहां सभी मौत से डरते हैं। वास्तव में विज्ञान, आध्यात्म, कविता,  गणना, मानवाधिकार, यह तब तभी संभव है जब राजनीति अपना काम करती रहे।

राजनीति एक अलग तरह की संवेदना पर निर्भर करती है जो मृत्यु के भय को त्यागने से ही संभव है। यह उन परिस्थितियों के निर्माण और रखरखाव पर स्थापित किया जाता है जिनके तहत विचारों का आदान-प्रदान सक्षम है। विचार की संवेदना विचारों के माध्यम से ही अपनी सीमाएं निर्धारित करती है, न कि जैविक परिस्थितियों के माध्यम से। ऐसे कानून या सरकारी आदेश जिनसे हम तो प्रभावित नहीं होते, लेकिन जिनसे दूसरों को नुकसान होता है, उनसे असहमति विचार की संवेदना के कारण के कारण ही उत्पन्न होती है। जैसा की गांधी ने कहा था, ऐसे मामलों में असहमति के लिए अच्छे कानून के प्रति सम्मान होना भी जरूरी है।

जिस तरह सहनीय संवेदनाओं की सीमा होती है, उसी तरह सहनीय और असहनीय विचारों की भी सीमाएं होती हैं। जनसंहार और लोगों के लोकतांत्रिक संस्थानों को खत्म करने के विचार असहनीय हैं। दूसरी ओर जब एमिली डिंकिसन लिखती हैं, “और इसलिए मैं अपना शीश झुकाती हूं/इस भरोसेमंद शब्द पर,” तब हमें विचार की इस काव्यात्मकता को स्वीकार करना पड़ता है। गांधी जानते थे कि तकनीकी बहुलताओं या हत्याओं की दुनिया में विचार विकसित हो सकते हैं। उन्होंने कहा था, “हम शब्दों द्वारा की गई हत्याओं के बारे में जानते हैं। इसलिए, जिस तरह हमारे हाथ और पैर नियंत्रण में रहने चाहिए, उसी तरह हमारी जीभ भी नियंत्रण में होनी चाहिए।”

गांधी ने दूसरों के विचारों के प्रति सहिष्णुता की अपनी सीमाओं का आकलन करने के लिए विभिन्न स्थितियों की कल्पना की। इनमें सबसे महत्वपूर्ण प्रतिज्ञा लेने की क्रिया थी। एक बार जब हम विचारों की जायज सीमा निर्धारित करते हैं, तो उसे सीमा में बांधने के लिए प्रतिज्ञा लेते हैं। प्रतिज्ञा की गांधी की परिभाषा बहुत सरल थी: “मैं जो ‘प्रतिज्ञा’ कर रहा हूं वह खुद के लिए किया गया वादा है।” हम जानते हैं कि किसी को अपना वादा नहीं तोड़ना चाहिए। ‘प्रतिज्ञा’ विचार की संवेदना की सीमा निर्धारित करती है। गांधी ने जब प्रतिज्ञा तोड़ने से इनकार किया, तब वह एक तरह की असहिष्णुता ही थी। गांधी से यह सबक सीखने लायक है कि विचारों की रक्षा के लिए असहिष्णु होना चाहिए, जैसे शांतिपूर्ण दुनिया का विचार।

उदार अंधविश्वास

राजनीति में सभी संभावनाओं के सह-अस्तित्व के अंधविश्वास पर ही उदार दृष्टिकोण स्थापित है। गांधी इस असंभव को भलीभांति जानते थे। इसलिए वह कहते हैं, “जिस तरह कोई व्यक्ति एक ही वक्त में शांत और गुस्सैल नहीं हो सकता, उसी तरह कोई एक साथ दीवानी और आपराधिक दोनों की अवज्ञा नहीं कर सकता।” अंधविश्वास के कारण ही उदारवादी कहते हैं, “हर किसी के साथ जुड़ो, यहां तक कि सामूहिक हत्यारों से भी।” यह विचारों के प्रति उनकी असंवेदना का ही परिणाम है। वे मानते हैं कि उदारवाद की राजनीतिक परिस्थितियां - संवैधानिक लोकतंत्र और कानून का शासन – अकाट्य हैं, इसलिए वे समाज को उन विचारों द्वारा जब्त करने की अनुमति देते हैं जो इसकी नींव को नष्ट कर देंगे।

फिर भी समाज अराजकता और फासीवाद जैसे विनाशकारी विचारों को प्रश्रय देता है। एक ऐसा तंत्र विकसित किया जाता है जो उन बातों को ग्रहण कर सके जो अंततः नुकसानदायक हैं। राजनीति में अतीत की ओर ले जाने वाली सोच ह्में हमें मृत्यु की तरफ ले जाएगी। इसलिए अतीत के प्रति गांधी की असहिष्णुता जगजाहिर है। उन्होंने पारंपरिक चिकित्सा के बारे में कहा, “वैद्य मानव शरीर का उतना ज्ञान नहीं रखते जितना डॉक्टर रखते हैं।”

(दिव्या द्विवेदी और शाज मोहन गांधी एंड फिलॉस्फीऑन थियोलॉजिकल एंटी-पॉलिटिक्स के लेखक हैं)

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