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लॉकडाउन में मजदूरों के बेमौत मरने की त्रासदी, पढ़ें विशेष कवरेज

"भूख, भय, लाचारी से प्रवासी मजदूरों की दर्दनाक स्थिति, कुछ की मौत जैसे दृश्य की मिसाल ढूंढ़ना...
लॉकडाउन में मजदूरों के बेमौत मरने की त्रासदी, पढ़ें विशेष कवरेज

"भूख, भय, लाचारी से प्रवासी मजदूरों की दर्दनाक स्थिति, कुछ की मौत जैसे दृश्य की मिसाल ढूंढ़ना मुश्किल

वह कौन गुनहगार है? कोरोनावायरस तो यकीनन नहीं। भूख, भय, लाचारी, राजमार्ग, रेलवे पटरियां या कुछ मामलों में खुदकुशी! बेशक ये गुनहगार हैं क्योंकि सरकारें, पुलिस-प्रशासन कैसे हो सकता है, जिनकी ताबेदारी में सब कुछ है, जिनके फैसलों से ये हालात पैदा हुए। आखिर सरकारें भूख को वजह मान लें तो अकाल संहिता लागू होने की डरावनी स्थिति पैदा हो जाती है, जिसकी एक धारा इस सिलसिले में लागू हो सकती है कि भूख से बचने के लिए बड़े पैमाने पर पलायन और लाचारी मौत की वजह बन सकती है। इसी तरह बाकी वजहें भी सरकारों के लिए मुश्किल पैदा कर सकती हैं। सो, केंद्र से लेकर राज्य सरकारें कोविड-19 को गुनहगार बताकर अपने गुनाह से हाथ झाड़ ले रही हैं। चाहे तो आप इन्हें लॉकडाउन शहीद कह सकते हैं। लेकिन हालात की भयावहता गंभीर सवाल खड़े करती है।

अपनी आजीविका गंवाकर भूख से बचने की खातिर दिहाड़ी मजदूर परशुराम और राहुल अपने घर और अपनों की सुरक्षा की आस में हैदराबाद से 1400 किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश के महाराजगंज जिले के लिए पैदल निकले। लेकिन उनकी किस्मत में घर वालों का दीदार नहीं था। घर जब महज 60-70 किलोमीटर ही दूर था, तो दोनों अपने सात साथियों के साथ ट्रक की चपेट में आ गए। पिछले डेढ़ महीने से चल रहे लॉकडाउन में दिल-दहलाने वाली ऐसी खबरें हर रोज आ रही हैं। डरावना लॉकडाउन 11 मई तक 418 से ज्यादा मजदूरों की जान ले चुका है। इन गरीबों ने केवल इसलिए जान गंवाई है, क्योंकि लॉकडाउन ने उनके जीने का जरिया छीन लिया। उनके पास खाने के लिए पैसे नहीं है और न ही घर पहुंचने का साधन है। अपनों से हजारों किलोमीटर दूर लाखों मजदूर भूखे-प्यासे पैदल ही कभी न खत्म होने वाली यात्रा पर निकल पड़े हैं।

‘न्यू इंडिया’ की यह भयावह तसवीर है, जिसमें भारत और इंडिया के बीच बढ़ती खाई पैदल चल रहे मजदूरों के पैर की बेवाई जैसी दर्दभरी है। भारत यानी वह तबका जो साधनहीन है, जो किसी भी संकट में सबसे पहले भूख और बेरोजागरी का सामना करता है। वह मौजूदा संकट में लाचार और ठगा हुआ महसूस कर रहा है।

भारत में स्वास्थ्य और सामाजिक गैर-बराबरी पर काम करने वाली शोधकर्ता, अमेरिका की एमोरी यूनिवर्सिटी की कनिका शर्मा की रिपोर्ट कई चौंकाने वाले तथ्य सामने लाती है। उनके अनुसार, “29 मार्च से उनकी टीम ने आंकड़े जुटाना शुरू किया तो मौत की वजहें आधुनिक भारत के लिए तमाचे से कम नहीं हैं। सोचिए 46 लोग केवल इसलिए मर गए क्योंकि उनके पास खाने को कुछ नहीं था, न पैसे थे। इसका दर्दनाक उदाहरण झारखंड के गढ़वा की 70 वर्षीय सोमरिया का है, जिन्होंने 3 दिनों तक खाना न मिलने से दम तोड़ दिया। इसी तरह 26 लोगों की मौत थकान से हो गई, क्योंकि उन्हें सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने घर जाने के लिए कोई साधन नहीं मिला और पैदल चलने को मजबूर हो गए। इनमें कुछ राशन लेने के लिए घंटों कतार में खड़े रहने की वजह से दम तोड़ बैठे। उत्तर प्रदेश के बदायूं की शमीम बानो, जिनके पति दिल्ली में फंसे हुए थे, दो दिन तक राशन के लिए कतार में लगी रहीं, और तेज़ धूप और थकान से कतार में ही गिर पड़ीं। बाद में अस्पताल में उन्होंने दम तोड़ दिया।” उनके हिसाब से मार्च के आखिरी हफ्ते से 11 मई तक करीब 418 लोग लॉकडाउन की दुश्वारियों से जान गंवा चुके थे।

मजदूरों की लाचारी का आलम यह है कि 83 लोगों ने तो आत्महत्या कर ली। इसी तरह 40 कामगारों ने केवल इसलिए दम तोड़ दिया, क्योंकि उन्हें पहले से मौजूद गंभीर बीमारी का इलाज कराने का मौका ही नहीं मिला। अलीगढ़ में चाय बेचकर गुजर-बसर करने वाले 45 साल के संजय राम को टीबी था, लेकिन लॉकडाउन में उनका इलाज ही नहीं हो पाया। वह अपने परिवार को छोड़कर इस दुनिया से चले गए।

ये देश के कोने-कोने में अपना घर-बार छोड़कर अपना शारीरिक श्रम बेचकर रोजी-रोटी कमाने निकले वे लोग हैं, जिनके एक राज्य से दूसरे राज्य और शहर में प्रवास को केंद्र सरकार के दस्तावेज प्रगति का परिचायक कहते हैं। वर्ष 2016-17 का आर्थिक सर्वेक्षण इसे “गतिशील भारत” का प्रमाण मानता है। तत्कालीन मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम की अगुआई में आए उस आर्थिक सर्वेक्षण में श्रमिकों के इस प्रवास की तुलना चीन के विकास से की गई थी। उसके अनुसार देश में करीब 10 करोड़ लोग ऐसे हैं, जो अपना घर छोड़कर काम और बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं और शिक्षा के लिए दूसरे शहरों में जाते हैं। उनके इस प्रवास की प्रक्रिया 2011-17 के बीच काफी तेजी से बढ़ी है। इस अवधि में औसतन 8-9 करोड़ लोग हर साल दूसरी जगहों पर रोजी-रोटी की तलाश में गए। जबकि 2001-11 के दशक में औसतन हर साल 5-6 करोड़ प्रवासी मजदूर निकलते थे। हालांकि विश्व बैंक की एक रिपोर्ट का आकलन है कि कोविड-19 के संकट की वजह से 40 करोड़ प्रवासियों पर असर पड़ेगा।

हर साल 8-9 करोड़ लोग जो घर छोड़कर काम की तलाश में दूसरे शहरों में जाते हैं, वे करते क्या हैं? इसका जवाब प्रवासी मजदूरों पर काम करने वाली संस्था आजीविका देती है। उसके अनुसार, इस तरह के प्रवासियों को सबसे ज्यादा रोजगार कंस्ट्रक्शन सेक्टर देता है। इसमें करीब चार करोड़ लोग काम करते हैं। इसके बाद करीब दो करोड़ मजदूर ऐसे हैं, जो लोगों के घरों में काम करते हैं। वहीं 1.10 करोड़ लोगों को टेक्सटाइल सेक्टर रोजगार देता है। जबकि एक करोड़ लोग ईंट-भट्ठों में काम करते हैं। करीब 1.5 से दो करोड़ लोग कृषि, खनन, ट्रांसपोर्टेशन आदि क्षेत्रों में काम करते हैं। सवाल यह भी उठता है कि इतनी बड़ी तादाद में लोग आते कहां से हैं और जाते कहां हैं? आर्थिक सर्वेक्षण 2016-17 के अनुसार उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश से सबसे ज्यादा लोग दूसरे राज्यों में काम करने के लिए जाते हैं। इनमें ज्यादातर दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा और तमिलनाडु में आजीविका के लिए जाते हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार अकेले उत्तर प्रदेश और बिहार से दूसरे राज्यों में जाने वालों की संख्या करीब दो करोड़ थी। देश के चार राज्य उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश से कुल प्रवासी मजदूरों के 50 फीसदी आते हैं।

लेकिन लॉकडाउन में ये सब धंधे ठप हैं। स्टैंडर्ड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क स्वान के आंकड़े लॉकडाउन की एक और तसवीर बयां करते हैं। पहले चरण के लॉकडाउन के दौरान स्वान ने 11,159 मजदूरों से संपर्क किया। उसके अनुसार 72 फीसदी मजदूर ऐसे थे, जिनके पास दो दिन से भी कम खाने का राशन बचा हुआ था। इनमें महाराष्ट्र, कर्नाटक में मौजूद मजदूरों की काफी बुरी स्थिति थी। बेंगलूरू में तो कई जगहों पर मजदूर केवल एक वक्त ही खाना खा रहे थे। आगे खाना मिलेगा कि नहीं, इसकी गुंजाइश नहीं दिखती है। ऐसे में थोड़ा खाकर काम चला रहे हैं। इसी तरह बिहार के रहने वाले सुजीत कुमार की कहानी काफी दर्दनाक है। पंजाब में बठिंडा में फंसे सुजीत को चार दिन से खाना नहीं मिला। सरकारी बयानों और जमीनी हकीकत में कितना अंतर होता है, उसकी बानगी भी यह रिपोर्ट बयां करती है। उत्तर प्रदेश में जिन 1,611 मजदूरों से स्वान ने संपर्क किया, उनका कहना था कि उन्हें सरकार की तरफ से कोई राशन नहीं मिला। इसी तरह राज्य सरकारें जो भोजन वितरण का दावा कर रही हैं, उसकी भी हकीकत कुछ और ही है। मसलन, कर्नाटक में 80 फीसदी लोगों को पका हुआ खाना नहीं मिला। हालांकि दिल्ली और हरियाणा में स्थिति दूसरे राज्यों के मुकाबले बेहतर रही है। दिल्ली में 60 फीसदी मजदूरों ने माना है कि उन्हें सरकार की तरफ से खाना मिल रहा है। लेकिन ऐसा नहीं है कि वहां बहुत बेहतर स्थिति है। दिल्ली के कश्मीरी गेट पर 11 अप्रैल को तीन शेल्टर होम में प्रवासी मजदूरों को खाना नहीं मिलने से तोड़-फोड़ हुई। दिल्ली में ऑटो ड्राइवर दिल मोहम्मद का कहना है कि वे चार घंटे तक अपने दो बच्चों के साथ खाने के लिए लाइन में खड़े रहे, लेकिन अंत में उन्हें केवल चार केले ही मिल पाए।

बार-बार अहमदाबाद, सूरत, मुंबई, लुधियाना या फिर हैदराबाद में पिछले डेढ़ महीने से फंसे मजदूरों के जगह-जगह जो प्रदर्शन हो रहे हैं, उसकी भी वजह रिपोर्ट बयां करती है। इन हजारों मजदूरों की केवल यही मांग है कि उन्हें घर जाने दिया जाए। ये ज्यादातर दिहाड़ी मजदूर हैं, जिनकी औसतन कमाई करीब 400 रुपये रोजाना होती है। जब लॉकडाउन हुआ तो काम छूट गया, उनके पास पैसे भी खत्म हो गए। रिपोर्ट के अनुसार सर्वेक्षण में 78 फीसदी मजदूरों के पास 300 रुपये से कम पैसे बचे थे। केंद्र और राज्य सरकारों के लाख दावों के बावजूद 89 फीसदी लोगों को उनके नियोक्ताओं ने सैलरी नहीं दी। नौ फीसदी लोगों को सैलरी का कुछ हिस्सा ही मिल पाया।

इस संकट पर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के समाजशास्त्री प्रोफेसर विवेक कुमार कहते हैं, “प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केवल चार घंटे का मौका दिया। भारत जैसे देश में जहां केवल 1.5-2 करोड़ लोग मेट्रो शहरों के स्लम में रहते हैं, 10 करोड़ से ज्यादा गरीब तबके के प्रवासी हैं, उनके लिए यह मजाक से कम नहीं था। मुझे आश्चर्य है कि सरकार में शीर्ष स्तर पर बैठे लोगों को उन लोगों की हकीकत का अंदाजा नहीं रहा होगा? जाहिर है, सरकार ने उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया।” शोधकर्ता कनिका भी लॉकडाउन के तरीके पर सवाल उठाती हैं। वे कहती हैं, “दुनिया में सबसे सख्त लॉकडाउन भारत में चल रहा है। अमेरिका में भी लॉकडाउन है, मैं इस समय वहीं हूं, लेकिन जिस तरह मजदूर और गरीब लोग बेवजह भारत में मौत के शिकार हो गए, वैसा अमेरिका में नहीं हो रहा है जबकि यहां भारत से कई गुना ज्यादा संक्रमण फैला हुआ है।”

38 दिन बाद श्रमिक ट्रेन

मजदूरों के बढ़ते विरोध और राजनैतिक दबाव के बाद केंद्र सरकार ने एक मई को श्रमिक स्पेशन ट्रेन चलाने का ऐलान किया। एक ट्रेन में सोशल डिस्टेंसिंग रखते हुए 1,200 मजदूरों को पहुंचाने की व्यवस्था की गई। रेल मंत्रालय के अनुसार रविवार, दोपहर (10 मई ) तक 366 ट्रेनें चलाई जा चुकी हैं। 44 फीसदी ट्रेन उत्तर प्रदेश, 30 फीसदी ट्रेन बिहार के लिए चलाई गई हैं। इनके अलावा मध्य प्रदेश, ओडिशा और झारखंड के लिए सबसे ज्यादा ट्रेनें चलाई जा रही हैं। इन आंकड़ों के आधार पर करीब 4 लाख मजदूरों को ट्रेन के जरिए उनके राज्यों में पहुंचाया गया है। लेकिन इसके किराए पर विवाद छिड़ गया। कई मजदूरों ने सोशल मीडिया पर टिकट दिखाकर बताया कि सामान्य समय में लगने वाले किराए से भी ज्यादा पैसा लिया जा रहा है। इस पर कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी ने बकायादा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर कहा कि कांग्रेस पार्टी मजदूरों का किराया देगी, क्योंकि ऐसे समय में भी सरकार राहत देने के बजाय, शोषण कर रही है। इस पर भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता संबित पात्रा ने भी दावा कर दिया कि किराए का 85 फीसदी केंद्र सरकार और 15 फीसदी राज्य सरकारें वहन कर रही हैं। ये आंकड़े कैसे निकले, इस पर भी विवाद है। फिर, बड़े वोट बैंक के खोने के डर से राज्य सरकारें भी सक्रिय हुईं। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह सरकार ने किराया खुद वहन करने की बात कही, तो बिहार की नीतीश सरकार ने भी कहा कि राज्य सरकार मजदूरों का किराया वहन करेगी।

राजनीति यहीं नहीं रुकी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को बकायदा पत्र लिखा कि राज्य सरकार अपने श्रमिकों को बुलाने के लिए रुचि नहीं ले रही है। इस पर ममता बनर्जी ने भी पलटवार करते हुए कहा कि गृह मंत्री सबूत पेश करें, क्योंकि आठ ट्रेनें पहले से मजदूरों को अपने गृह राज्य लाने के लिए तय हो चुकी हैं। ये ट्रेनें कर्नाटक, तमिलनाडु, पंजाब और तेलंगाना से चलाई जा रही हैं। ममता ने प्रधानमंत्री से बातचीत में इस राजनीति पर आपत्ति जताई।

अपने घर में कैसे मिलेगा काम

लॉकडाउन में अपना रोजगार गंवा चुके, लाखों मजदूर अब अपने गृह राज्य में तेजी से पहुंच रहे हैं। अकेले उत्तर प्रदेश में 10-15 लाख प्रवासी मजदूरों के आने की संभावना है, इसी तरह बिहार झारखंड में 10 लाख और छत्तीसगढ़ में दो लाख मजदूरों के वापस आने की उम्मीद है। घर लौटे इन मजदूरों में से कितनों को अपने गांव-जिले में काम मिल पाएगा, फिलहाल इसका जवाब न तो उनके पास है न ही सरकारों के पास।

इतनी बड़ी तादाद में लोगों को कैसे काम मिलेगा, इस पर यूपी के श्रम मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य कहते हैं, “संबंधित मंत्रालयों ने प्रवासी मजदूरों को रोजगार मुहैया कराने की पूरी कार्ययोजना की रिपोर्ट मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को सौंप दी है। सरकार की पूरी कोशिश है कि उनके अनुभव के हिसाब से ही प्रदेश में सभी लोगों को काम दिया जाए। इसके अलावा दूसरे प्रदेशों में छोटे-मोटे काम करके जीवनयापन करने वालों को सरकारी योजनाओं के जरिए कर्ज देकर उन्हें फिर से खड़ा करने का अवसर दिया जाएगा। प्रवासी श्रमिकों की जिलावार सूची को हम अपने सरकारी पोर्टल पर भी डालेंगे। अर्थशास्त्री राजेंद्र पी ममगाईं कहते हैं, “आधी-अधूरी कोशिशों से श्रमिकों को रोक पाना आसान नहीं है। इसके लिए ठोस कार्ययोजना पर काम करना होगा, जिसमें मजदूरों को अपना भविष्य सुरक्षित और सुनहरा दिखाई दे। सरकार को समझना होगा कि प्रवासी मजदूरों की प्रदेश वापसी भय से जुड़ी एक तात्कालिक प्रतिक्रिया है। सरकार को माइग्रेशन वेलफेयर फंड स्कीम बनाना चाहिए।

उत्तर प्रदेश की तरह झारखंड के सामने भी अपने गृह राज्य लौटे प्रवासी श्रमिकों को रोजगार देने की चुनौती है। अनुमान के मुताबिक, करीब 10 लाख श्रमिक राज्य में लौटने वाले हैं। राज्य की सबसे बड़ी समस्या है कि इनमें अधिकांश अकुशल श्रमिक हैं। इनमें करीब 15 फीसदी श्रमिकों को ही कुशल श्रेणी में रखा जा सकता है। आर्थिक रूप से खस्ताहाल राज्य के लिए इतनी बड़ी तादाद में रोजगार के अवसर पैदा करना मुश्किल भरा होगा। ऐसे में विशेषज्ञों का कहना है कि हेमंत सोरेन सरकार को परंपरागत कृषि की सोच से उपर उठ कर नए प्रयोग की आवश्यकता है। उन्हें कृषि वानिकी को बढ़ावा देना होगा। कृषि वानिकी को बढ़ावा देकर प्रति हेक्टेयर दो टन उत्पादकता को बढ़ाकर प्रति हेक्टेयर आठ टन तक किया जा सकता है।

प्रवासी मजदूरों को रोजगार देने की चुनौती छत्तीसगढ़ के भी सामने है। राज्य के दूसरे हिस्सों में करीब तीन लाख लोग प्रवासी मजदूरों के रूप में काम करते हैं। इनमें से दो लाख राज्य में वापस आ सकते हैं। राज्य के श्रम सचिव और नोडल ऑफिसर सोनमणि बोरा ने बताया, “लाकडॉउन के वक्त करीब 1.29 लाख मजदूरों ने सरकार से मदद मांगी है। उन्हें राशन के साथ नकद मदद दी गई है। अभी तक करीब 50 हजार मजदूर दूसरे राज्यों से पैदल आ गए हैं। इन्हें 14 दिन के क्वारंटीन के साथ गांवों में रोजगार गारंटी के तहत काम पर लगा दिया गया है।  करीब 30 हजार श्रमिक ट्रेन और बस से वापस आ चुके हैं। वापसी के इच्छुक प्रवासी मजदूरों को लाने के लिए राज्य सरकार ने 18 ट्रेनों की मांग की है। कुछ को अनुमति मिल गई है, जबकि कुछ प्रक्रियाधीन हैं। राज्य में 1,200 से अधिक लघु और माध्यम उद्योग चालू करा दिए गए हैं।” श्रम सचिव का कहना है कि 92 हजार लोगों को रोजगार मिल गया है। इसमें 60 फीसदी से अधिक मजदूर दूसरे राज्यों के हैं। उम्मीद है कि वे अब अपने राज्य नहीं जाएंगे। अभी तक समस्या यह थी कि प्रवासी मजदूर अपने घर पहुंचना चाहते थे, अब उनके सामने काम-धंधे की चिंता है। इसे दूर करना राज्य सरकारों का ही काम है, देखना है, इस चुनौती ने निपटने में सरकारों के दावे हवाई-हवाई रहेंगे या हकीकत में बदलेंगे। यह वक्त ही बताएगा।

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दुखदायी घटनाएं

जमलो मड़कम

(12 साल)

बीजापुर, छत्तीसगढ़

अप्रैल की 16 तारीख को छत्तीसगढ़ के आदेड़ गांव की रहने वाली 12 साल की बच्ची जमलो मड़कम की मौत तेलंगाना से अपने घर पैदल आने के दौरान हो गई थी। जमलो की मां सुकमति और पिता आंदोराम मड़कम खेती कर अपना जीवनयापन करते हैं। मां सुकमति सिर्फ वहां की स्थानीय भाषा गोंडी में ही बोल पाती हैं। पंचायत के सरपंच प्रतिराम उनकी बात हिंदी में बताते हैं, “वह फरवरी की पहली तारीख को तेलंगाना मिर्च तोड़ने के काम से गांव के अन्य लोगों के साथ गई थी। मिर्च तोड़ाई का काम पूरा हो गया था और लॉकडाउन की वजह से खाने-पीने को कुछ नहीं था, इसलिए जमलो ने दूसरे लोगों के साथ 200 किमी. दूर अपने गांव तक पैदल चलने का फैसला किया।”  पुलिस के डर से सभी जंगल के रास्ते आ रहे थे। किसी के पास न मोबाइल था न टॉर्च। खेत की मेड़ पर जमलो का पैर फिसल गया और वह गिर गई। इस तरह वह कई बार गिरी। पोस्टमार्टम रिपोर्ट के मुताबिक उसकी पसली टूट गई थी। कोई चिकित्सा सुविधा न मिलने से उसकी मौत हो गई। उसकी मां कहती हैं, “अगर समय से इलाज मिलता तो मेरी बेटी बच सकती थी। गांव से महज 15 किमी. दूर उसने सांस तोड़ दी। मैं उसकी न आखिरी आवाज सुन पाई और न उसका चेहरा देख पाई। तीन दिन बाद उसका पार्थिव शरीर गांव लाया गया। बर्फ में नहीं रखे जाने के कारण उसका पूरा चेहरा खराब हो गया था, मेरी बच्ची मुझे छोड़कर चली गई।”

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श्याम बहादुर

(52 साल)

बलिया, उत्तर प्रदेश

उत्तराखंड में गेहूं की कटाई कर अपने परिवार का भरण-पोषण कर रहे श्याम बहादुर 26 अप्रैल को यूपी के बलिया अपने घर तो पहुंचे लेकिन चार दिन बाद ही उनकी मौत हो गई। पत्नी भानवा देवी कहती हैं, “22 अप्रैल को करीब 150 किमी पैदल चलने के बाद वो बरेली पहुंच चुके थे लेकिन उनकी तबीयत खराब हो गई। उसके बाद वहां के ग्रामीणों ने फोन कर जानकारी दी, जिसके बाद उन्हें नजदीकी अस्पताल में भर्ती कराया गया। डॉक्टरों ने लकवा की शिकायत बताई। 17,000 में एंबुलेंस कर उनको घर लाया गया लेकिन ठीक से उपचार न मिलने और पैसे की तंगी की वजह से उनकी मौत हो गई।” मुआवजे की बात पूछने पर वो रोते हुए कहती हैं, ‌“राशन तो मिलता नहीं, मुआवजा तो दूर की कौड़ी है।”

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मोतीलाल साहू

(38 साल)

सीधी, मध्य प्रदेश

प्राइवेट एंबुलेंस को 35,000 रुपये देकर पिछले महीने 25 अप्रैल को 38 साल के मोतीलाल साहू का मृत शरीर मध्य प्रदेश के सीधी लाया गया। वह मुंबई में काम करते थे। उनके भाई राकेश का कहना है कि सरकार से कोई सहायता नहीं मिली। वो अपने गांव हटवा के लिए अन्य लोगों के साथ 21 अप्रैल को चले थे लेकिन 200 किमी. चलने के बाद उनकी मौत हो गई और 1,300 किमी. का अधूरा सफर कफन के साथ दफन हो गया। राकेश बताते हैं, “कोई व्यक्ति 24 घंटे बिना खाए चलेगा तो वो कैसे जीवित रह पाएगा।” वो आगे कहते हैं, “शाम पांच बजे एंबुलेंस को फोन किया था लेकिन एंबुलेंस तीन घंटे बाद रात आठ बजे आई।” मोतीलाल अपने पीछे तीन बेटी और पत्नी को छोड़ गए हैं।

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धर्मवीर शर्मा

(32 साल)

खगड़‌िया, बिहार

‌दिल्ली में सीमेंट बोरियों की लोडिंग का काम करने वाले 32 साल के धर्मवीर को डर था कि लॉकडाउन के पहले चरण की समाप्ति यानी 14 अप्रैल के बाद वे जहां रह रहे थे वो पूरा इलाका सील हो जाएगा और खाने को कुछ नहीं मिलेगा। इसी डर से 27 मार्च को उन्होंने साइकिल से ही अन्य साथियों के साथ 1,300 किमी. दूर अपने गांव बिहार के खगड़िया जाने का फैसला किया। लेकिन यूपी के शाहजहांपुर में उनकी तबीयत बिगड़ गई और अस्पताल ले जाते हुए उन्होंने दम तोड़ दिया। उनके बड़े भाई विकास बताते हैं, “घर में गुजारा करने लायक ही जमीन है। हमें आज तक इंदिरा आवास योजना के तहत लाभ नहीं मिला। अब आगे की जिंदगी कैसे कटेगी यह सोच रहा हूं। तीन छोटे-छोटे बच्चे हैं। गुजर-बसर मुश्किल हो रही है। सरकार की तरफ से एक हजार रुपये की सहायता राशि मिलने की बात कही गई लेकिन यह राशि अभी तक नहीं मिल पाई है, क्योंकि बैंक खाते में पैसे न होने की वजह से वह बंद हो गया है। एक महीने से ज्यादा समय गुजर जाने के बाद भी हमें पोस्टमार्टम रिपोर्ट नहीं मिली है। मैं भी गांव में ही दूसरों के खेतों में मजदूरी करता हूं। वो भाई था, अब अपना पेट काटकर उसके बच्चों को भी पालूंगा। जितना हो पाएगा करूंगा और क्या कर सकता हूं?”

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किसी को निराश न होने देंगे

लॉकडाउन में प्रवासी मजदूरों का बड़ा बोझ उत्तर प्रदेश पर पड़ा है। ऐसा अनुमान है कि प्रदेश में 10-15 लाख प्रवासी मजदूर देश के दूसरे राज्यों से वापस आएंगे। ऐसे में प्रदेश सरकार इस चुनौती से निपटने के लिए कितनी तैयार है, इस पर आउटलुक के कुमार भवेश चंद्र ने डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य से बातचीत की है। कुछ अंश:

राज्य में बड़ी तादाद में प्रवासी मजदूर लौट रहे हैं, ऐसे में इनको लेकर क्या योजना है?

लॉकडाउन की वजह से प्रदेश के कई सारे प्रोजेक्ट बंद हो गए थे। हमारी प्राथमिकता थी कि उसे शुरू किया जाए। हमने उस काम को आगे बढ़ा दिया है। लगभग 50 फीसदी काम फिर से शुरू हो गए हैं। आगे इसमें और तेजी आएगी। प्रदेश के काफी लोग रोजगार और छोटी-मोटी नौकरियों के लिए दूसरे प्रदेशों में थे। आपदा की इस स्थिति में दूसरे प्रदेशों से वे लौटकर कर आ रहे हैं। उन्हें प्रदेश में रोजगार देने के लिए एक समिति बनाई गई है, जो उनके लिए रोजगार के संभावित क्षेत्रों और संभावनाओं को लेकर खाका तैयार कर रही है।

इतनी संख्या में आए लोगों को रोजगार देना संभव होगा?

देखिए प्रदेश में काम की अपार संभावनाएं हैं। अभी तक आए मजदूरों को 14 दिन के आवश्यक क्वारंटीन में रखने के बाद उनके लिए काम की संभावनाएं तलाशी जा रही हैं। जो भी श्रमिक आ रहे हैं उनका पूरा उपयोग किया जाएगा। फिलहाल, हमारे पास बाहर से आने वाले श्रमिकों की संख्या को लेकर कोई पुख्ता जानकारी नहीं है। लेकिन सरकार ने इस दिशा में भी काम शुरू कर दिया है, जो पहले कभी नहीं किया गया। आने वाले समय में हमारे पास श्रमिकों के बारे में पूरा ब्यौरा उपलब्ध होगा। वे किस तरह का काम करते हैं कितना पढ़े-लिखे हैं, किस तरह के काम का प्रशिक्षण या अनुभव उनके पास है, ये सारी जानकारी सरकार के पास उपलब्ध होगी। एक ऐप के माध्यम से प्रवासी श्रमिक भाई-बहनों का डेटाबेस तैयार किया जा रहा है।

किन क्षेत्रों में रोजगार की संभावना दिख रही है?

हम मनरेगा के अतिरिक्त ग्रामीण क्षेत्र में लघु उद्योगों को बढ़ाना देने की योजना पर काम कर रहे हैं। डेयरी और कृषि आधारित छोटे उद्योगों को बढ़ावा देने की नीति पर भी काम करने का विकल्प है। इसके अलावा भी अनंत संभावनाएं हैं। निर्माण क्षेत्र में भी काम की असीमित संभावनाएं हैं। इस संकट से उबरने के बाद पंचायत से लेकर जिला स्तर पर निर्माण क्षेत्र में रुके कामों को तेजी से आगे बढ़ाया जाएगा और उनमें उनके लिए रोजगार के इंतजाम किए जाएंगे। प्रयास यही है कि विपदा की घड़ी में अपने प्रदेश लौटने वाले हमारे किसी भी भाई-बहन को निराश न होना पड़े। वक्त जरूर लग सकता है। हमारी कोशिश है कि प्रदेश में पहले से जिन लोगों की रोजगार की दिक्कतें हैं उनकी समस्याओं का समाधान हो और जो बाहर से बड़ी उम्मीद लेकर आ रहे हैं, उन्हें भी निराशा नहीं हो।

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काम पर लौटना मुश्किल

चंडीगढ़ से हरीश मानव

प्रवासी मजदूरों के पलायन ने औद्योगिक राज्य हरियाणा, पंजाब और हिमाचल के लिए नई मुसीबत खड़ी कर दी है। तीनों राज्यों से करीब 50 लाख मजदूरों ने अपने घर जाने के लिए आवेदन किया है। इन मजदूरों में ज्यादातर उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल के रहने वाले हैं। इन राज्यों सरकारों की सबसे बड़ी चिंता, इस बात को लेकर है कि अगर इतनी बड़ी संख्या में मजदूर वापस चले गए तो लॉकडाउन के बाद औद्योगिक गतिविधियां सामान्य करने में मुश्किले आएंगी।

लॉकडाउन 3 के आखिरी चरण में पंजाब, हरियाणा और हिमाचल की 5.5 लाख औद्योगिक इकाइयों में से करीब 80,000 से अधिक औद्योगिक इकाइयों में उत्पादन आंशिक रूप से शुरू हो गया है। लौटने के लिए आवेदन करने वालों में 80 फीसदी से अधिक श्रमिक ऐसे हैं जो औद्योगिक इकाइयों में अस्थाई रूप से ठेकेदार के यहां काम करते हैं और सामाजिक सुरक्षा स्कीम से वंचित हैं।

हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने आउटलुक को बताया कि राज्य में लगभग 35,000 फैक्टरियों में 24 लाख मजदूर कार्य करते हैं जिनमें से 14 लाख औद्योगिक श्रमिक काम पर वापस लौट आए हैं। इधर कोरोना संकट के बीच पंजाब से वापस अपने राज्य जाने के लिए आवेदन करने वाले श्रमिकों की संख्या 11 लाख के पार पहुंच गई है। सभी श्रमिकों को भेजने में चार महीने से भी ज्यादा का समय लगेगा। श्रमिकों को जब यह बताया गया तो बहुत से श्रमिकों ने जाना स्थगित कर औद्योगिक इकाइयों में काम शुरू कर दिया। सेंटर फॉर रिसर्च इन रूरल ऐंड इंडस्ट्रियल डवलपमेंट(क्रिड)के पूर्व महानिदेशक सुच्चा सिंह गिल का कहना है, “2011 की जनगणना के अनुसार, पंजाब में प्रवासी श्रमिकों की संख्या लगभग 25 लाख थी। अब महामारी के डर से पंजाब छोड़ने वाले श्रमिकों में से कितने वापस लौटेंगे यह कहा नहीं जा सकता।”

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(साथ में लखनऊ से कुमार भवेश चंद्र, रायपुर से रवि भोई और रांची से महेंद्र कुमार; मजदूर प्रोफाइलः नीरज कुमार झा)

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