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कोरोना के आगे दिल्ली और मुंबई लाचार, बिगड़ते हालात ने उठाए कई सवाल

“महामारी की तेजी मुंबई में घटी लेकिन दिल्ली में संक्रमण मामले देश में सबसे अधिक हुए, क्या है...
कोरोना के आगे दिल्ली और मुंबई लाचार, बिगड़ते हालात ने उठाए कई सवाल

“महामारी की तेजी मुंबई में घटी लेकिन दिल्ली में संक्रमण मामले देश में सबसे अधिक हुए, क्या है फर्क"

महामारी की गति देख ऐसा लगता है कि मानो कोरोनावायरस आधुनिक ताकत और इंतजामात पर इतराने वाले शिखर केंद्रों का इम्तहान ले रहा है। चीन के अहम औद्योगिक केंद्र और राष्ट्रपति शी जिनपिंग के राज में बेहद सराहे वुहान की कथित तौर पर सबसे पहले परीक्षा लेने वाला कोविड-19 अब बीजिंग में उसकी राजनैतिक पीठ में धावा बोल चुका है। फिर दुनिया भर के ताकतवरों अमेरिका, इटली, ब्रिटेन, फ्रांस, स्पेन, ब्राजील, जापान, रूस और तमाम देशों के आधुनिक सत्ता केंद्रों में सबसे अधिक आक्रामक रुख के साथ प्रकट हुआ और कई जगह उसकी आक्रामकता अब भी जारी है। हमारे देश में भी वह सबसे पहले कथित तौर पर जनवरी के आखिरी दिनों में हवाई यात्रियों के जरिए पहुंचा तो धुर दक्षिण के केरल में, लेकिन थोड़े ही दिनों में मौजूदा वक्त के ताकत के केंद्रों अहमदाबाद, मुंबई और दिल्ली में विकराल रूप दिखाने लगा। तो, मुद्दा यही नहीं है कि अनजान बीमारी की काट के उपाय ढूंढ़ने में वक्त लगता है, बल्कि सवाल यह है कि मौजूदा वक्त के तमाम इंतजामात-स्वास्थ्य ढांचा, समाज व्यवस्था, अर्थव्यवस्था-सभी इतनी जल्दी पस्त क्यों हो गए?

यह भी सही है कि जिन देशों या अपने देश में भी जिन राज्यों, मसलन केरल, में आधुनिक स्वास्थ्य ढांचे के बनिस्बत सामुदायिक सहयोग पर आधारित सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचा है, वहां संक्रमण पर अपेक्षाकृत कम क्षति के साथ काबू पा लिया गया। हमारे दो सबसे अहम महानगरों मुंबई और दिल्ली की दास्तान भी यही संकेत देती है, जिनमें एक वित्तीय राजधानी कही जाती है तो दूसरी राजनैतिक ताकत की पीठ है। ये दोनों अपने विकास, स्वास्थ्य और तमाम ढांचे पर इतराते हैं। यहीं नब्बे के दशक के बाद सबसे अधिक उदारीकरण और निजी क्षेत्र बढ़ा है।

आधुनिक स्वास्थ्य ढांचे की बेबसी का सबसे नायाब नमूना अमेरिका के न्यूयॉर्क में दिखा, जहां गरीब और निम्र मध्यवर्गीय लोग इलाज के पैसे के अभाव में सबसे अधिक तकलीफ झेल रहे हैं। लेकिन दुनिया के किस्से बाद में, पहले अपने देश की दशा पर गौर करें। हाल तक कोरोनावायरस संक्रमण के मामले में अहमदाबाद और मुंबई में होड़ चल रही थी। लेकिन अब दिल्ली कोविड-19 संक्रमण के रिपोर्ट हुए कुल 70,390 मामलों (24 जून तक) के साथ वैसे ही शिखर पर पहुंच गई, जैसे वह देश की राजनैतिक सत्ता और आधुनिक तंत्र की चोटी पर बैठी है। लेकिन मुंबई में संक्रमण के कुल मामले 69,528 (24 जून तक) थे। मुंबई में रोजाना नए मामलों की रफ्तार भी घट गई है। सबसे चमत्कार तो कभी एशिया की सबसे बड़ी झुग्गी-झोपड़ी रही धारावी में हुआ। वहां 24 जून को महज आठ नए सक्रिय मामले आए।

धारावी मॉडलः स्‍थानीय लोगों के सहयोग से जांच वगैरह की गई, तो हालात काबू में आए

अप्रैल, मई और जून के पहले हफ्ते तक धारावी और मुंबई तथा थाणे की सघन बस्तियों में ये हालात थे कि शिवसेना-राकांपा-कांग्रेस गठबंधन सरकार के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे निराश हो गए थे। भाजपा हमलावर थी। पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने मुंबई में राज्य सचिवालय के सामने धरना-प्रदर्शन का नेतृत्व किया। राष्ट्रपति शासन तक की मांग उठी। सरकार की सहयोगी पार्टियों में अनबन की खबरें चलती रहीं। केंद्र से भी दबाव बढ़ा। लेकिन अब हालात काबू में आते दिख रहे हैं। यह कैसे हुआ? इसकी एक मोटी व्याख्या तो यह है कि संक्रमण की लहर थोड़े समय बाद मंद पड़ने लगती है। लेकिन बड़ी बात उन उपायों की है, जो स्थानीय स्तर पर उठाए गए। इसकी चर्चा के पहले फिर दिल्ली की ओर रुख करते हैं।

दिल्ली में हालात इस कदर बेकाबू होते जा रहे हैं कि अब यहां दो-दो सरकारें अपने तरह-तरह के मॉडल के साथ संक्रमण की रोकथाम में जुट गई हैं। इसमें सत्ता के टकराव भी हैं। 24 जून को दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार के उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने केंद्र में भाजपा नीत एनडीए सरकार के सबसे ताकतवर गृह मंत्री अमित शाह को चिट्ठी में लिखा, “मामला ‘अमित शाह मॉडल’ बनाम ‘केजरीवाल मॉडल’ का नहीं है, बल्कि लोगों की सहूलियत का है। सबको सरकारी व्यवस्था वाले क्वारंटीन और आइसोलेशन में डालने से दिल्ली का स्वास्थ्य ढांचा एकदम पस्त हो जाएगा। हम कहां से इतने एंबुलेंस लाएंगे।” दिल्ली सरकार कम गंभीर और बिना लक्षण वाले मामलों में घर में क्वारंटीन और आइसोलेशन का उपाय अपना रही थी। अब केंद्र की बैठक में हर घर की जांच 30 जून या 6 जुलाई तक करने के निर्देश सीधे मुख्य सचिव और जिला मजिस्ट्रेटों को दिए गए हैं।

इसके पहले दिल्ली के अस्पतालों को सिर्फ दिल्लीवालों के लिए सीमित रखने का मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का ऐलान उप-राज्यपाल अनिल बैजल ने फौरन खारिज कर दिया था। कहते हैं, वही वह मोड़ था, जब केंद्र सरकार को सीधे हस्तक्षेप का मौका मिला। अमित शाह के साथ बैठकें हुईं। केजरीवाल की तबीयत नासाज होने के बाद की बैठकों में सिसोदिया और दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन की, दिल्ली में ‘कम्युनिटी स्प्रेड’ का ऐलान करने की मांग नकार दी गई। हालांकि, कई विषाणु विशेषज्ञों का मानना है कि यह बहस बेमानी है, क्योंकि अगर संक्रमण विदेश से आए किसी से न लगा हो तो समझिए कि कम्युनिटी स्प्रेड हो चुका है। उधर, सत्येंद्र जैन खुद भी बीमार हुए और स्वास्थ्य लाभ कर रहे हैं।

दरअसल, 4 मई तक केजरीवाल बड़े भरोसे से कहते रहे थे कि दिल्ली में इलाज के सारे इंतजाम कर लिए गए हैं और संक्रमण की चक्रवृद्धि दर घटती जा रही है, इसलिए वे लॉकडाउन खोलने के हक में थे। इसमें एक बात यह भी हो सकती है कि सबसे अधिक कमाई वाले इस शहर-राज्य की थैली छोटी पड़ने लगी थी। इसी वजह से शराब की बिक्री की इजाजत भी दी गई और उस पर 70 फीसदी आपदा कर भी लगा दिया गया था, जो अब हटा लिया गया है पर वैट पांच फीसदी बढ़ा दिया गया है। लेकिन सवाल है कि उसके बाद क्या हुआ कि संक्रमण में तेजी आ गई और पूरा स्वास्थ्य ढांचा चरमराने लगा? इसकी एक वजह टेस्टिंग में ढिलाई हो सकती है। उसके बाद दिल्ली में बिना लक्षण वाले मामलों का टेस्ट न करने की नीति अपनाई गई।

दिल्ली में 24 जून तक 4.2 लाख टेस्ट हुए (प्रति दस लाख 22,142) जबकि मुंबई में 2.94 लाख टेस्ट हुए (प्रति दस लाख 22,668)। हालांकि मुंबई में संक्रमण की दर (23.2 फीसदी) और मृत्यु (3,964) दिल्ली से अधिक है। दिल्ली में यह क्रमश: 16.7 फीसदी और 2,365 है। इसके अलावा, मुंबई और दिल्ली की कहानी में फर्क शायद दो वजहों से ज्यादा आया। एक, निजी अस्पतालों की भागीदारी और दूसरे सामुदायिक सहयोग। मुंबई में शुरू में निजी अस्पाताल या तो मरीजों का इलाज करने से बच रहे थे या काफी महंगे इलाज की पेशकश कर रहे थे। मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने उनके एसोसिएशन की बैठक बुलाई और उनके शिकायती लहजे पर आंकड़ा दिखा दिया कि पिछले साल कैसे उन सबने करोड़ों की कमाई की है। यह चाल काम कर गई और सरकार की निर्धारित दर पर वे इलाज करने को तैयार हो गए। फिर धारावी जैसी सघन बस्ती में, जहां 2.5-3 किमी. के क्षेत्र में तकरीबन 50 लाख से ऊपर आबादी बसती है, वहां के लोगों, मोहल्ला कमेटियों, निजी प्रैक्टिस करने वाले डॉक्टरों-स्वास्थ्यकर्मियों की मदद ली गई और घर-घर जाकर रैपिड टेस्टिंग की गई। जिनमें हल्के लक्षण भी पाए गए, उन्हें वहां के स्थानीय स्कूलों वगैरह में क्वारंटीन की व्यवस्था की गई। सामुदायिक सहयोग का असर दिखा और अब धारावी के स्कूल वगैरह भी खुलने लगे हैं।

दिल्ली में मुख्यमंत्री केजरीवाल ने शुरू में निजी अस्पतालों पर दबाव डालने और एकाध एफआइआर भी करवाने के कदम उठाए, लेकिन वे कारगर नहीं हुए। मोहल्ला क्लीनिक या मोहल्ला कमेटियों को भी सक्रिय करने की कोशिश हुई, पर वह भी कारगर नहीं हो पाई। जरूरी नहीं कि यही फर्क हो, इसके इतर भी वजहें हो सकती हैं। लेकिन केरल का उदाहरण भी सामने है, जहां बेहतर सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे, सरकारी सक्रियता और समाज का सहयोग हासिल करने के तरीके से कोरोनावारस पर काफी हद तक काबू पाया जा सका है। वहां की स्वास्थ्य मंत्री के.के. सैलजा को संयुक्त राष्ट्र के एक फोरम में ‘केरल मॉडल’ का अनुभव साझा करने को आमंत्रित किया गया।

बहरहाल, देश में लॉकडाउन के 92 दिन तक 4,56,183 संक्रमण के मामले आ चुके हैं और मामलों के दोगुना होने की दर भी 19.53 फीसदी पर पहुंच गई है। वायरोलॉजिस्टों के मुताबिक दोगुना होने की दर 10 फीसदी से ऊपर चली जाए तो समझिए काबू करना आसान नहीं है।

 

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देश में लॉकडाउन के 92 दिन तक 4,56,183 संक्रमण के मामले आ चुके हैं और दोगुना होने की दर भी 19.53 फीसदी पर पहुंच गई है, जो खतरे का संकेत है

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