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सरकार ने एक झटके में कश्मीरियों को कर लिया खिलाफ

भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने जैसे अनुच्छेद 370 में बदलाव किया है, वह पूरी तरह...
सरकार ने एक झटके में कश्मीरियों को कर लिया खिलाफ

भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने जैसे अनुच्छेद 370 में बदलाव किया है, वह पूरी तरह असंवैधानिक कदम है। सरकार ने संसद के जरिए उसके दो-तिहाई हिस्से को रद्द कर दिया है। यह कदम एक झटके में कश्मीरियों को आपके खिलाफ कर देगा। आजादी के बाद हमने कश्मीरियों का दिल जीता था, उसे इस सरकार ने खत्म कर दिया। असल में कश्मीर की समस्या एक ऐतिहासिक समस्या है। उसे समझने के लिए उस समय की परिस्थितियों को समझना होगा। जो लोग यह कहते हैं कि जूनागढ़, हैदराबाद रियासतों के विलय के वक्त 370 जैसा प्रावधान क्यों नहीं किया गया, उन्हें इतिहास की समझ नहीं है।

कश्मीर का विलय विशेष परिस्थितियों में हुआ था। इसी वजह से उसके विलय के लिए संविधान में अनुच्छेद 370 को शामिल करना पड़ा। दूसरी रियासतों के साथ ऐसा नहीं था। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने जिस तरह से यह कदम उठाया है, उससे कई तरह के संवैधानिक सवाल खड़े होते हैं। एक, जिस तरह से अनुच्छेद 370 के जरिए कश्मीर के विशेष दर्जे को खत्म किया गया, क्या वह संवैधानिक है? दूसरे, क्या किसी प्रदेश को केंद्रशासित राज्य में परिवर्तित किया जा सकता है? ऐसा पहली बार हुआ है। तीसरे, क्या विधानसभा की राय लिए बिना राज्य का पुनर्गठन किया जा सकता है? चौथा सवाल यह कि क्या स्थगित विधानसभा की परिस्थितियों में राष्ट्रपति किसी राज्य के संबंध में ऐसा फैसला ले सकता है? ये सब बहुत पेचीदा मसले हैं।

लेकिन इन मामलों पर जल्द फैसला होने की गुंजाइश बहुत कम है। मेरा मानना है कि अगर इन फैसलों की समीक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट में कोई याचिका दायर भी की जाती है तो उस पर फैसला आने में काफी समय लग जाएगा। ऐसे में जब तक फैसला आएगा, उस वक्त तक जम्मू-कश्मीर की पूरी तसवीर ही बदल चुकी होगी। इसलिए मुझे लगता है कि फैसले को चुनौती देने के बहुत मायने नहीं हैं।

कई मुद्दे ऐसे होते हैं जिन पर हम चर्चा तो कर सकते हैं लेकिन उस पर बहुत ज्यादा कुछ किया नहीं जा सकता है। ऐसा इसलिए है कि मौजूदा सरकार के पास लोकसभा में प्रचंड बहुमत है और राज्यसभा में कई दल सत्ता पक्ष के साथ चले गए हैं। इन परिस्थितियों में बहुत कुछ नहीं किया जा सकता है। जिस तरह से सरकार संसद में कानून पारित करा रही है, उससे साफ है कि उसके लिए लोकतंत्र कोई मायने नहीं रखता है। लोकतंत्र का मतलब होता है कि मुद्दों पर चर्चा हो, सभी पक्षों की राय सुनी जाए। लेकिन यहां तो ऐसा कुछ नहीं हो रहा है। सरकार सुबह 11 बजे संसद में विधेयक लेकर आती है और कहती है कि इस पर चर्चा कर लीजिए, इस पर आज ही वोटिंग करेंगे। विधेयक को समझने और पढ़ने के लिए वक्त नहीं दिया जाता है। सभी विधेयकों के मामले में इस सरकार का यही रवैया है। हम सरकार से पूछना चाहते हैं कि उसे विपक्ष की जरूरत है या नहीं? जब सरकार को ऐसा ही करना है तो क्यों न वह बिना विपक्ष के ही सारे विधेयक पारित करा ले।

सरकार जैसा कर रही है, उसके लिए तो संविधान नहीं बना था? जब संविधान बना, संसद का गठन हुआ और उसके नियम बने थे, उस वक्त विपक्ष की भूमिका को काफी अहमियत दी गई थी। लेकिन अभी सरकार का रवैया पूरी तरह से संविधान की भावना के उलट है। जब सरकार जम्मू-कश्मीर के लिए इतना बड़ा फैसला करने जा रही थी, तो उस पर इतनी गोपनीयता क्यों बरती गई? सरकार ने विपक्ष से कोई बात नहीं की, संबंधित राज्य के प्रमुख राजनैतिक दलों से कोई बात नहीं की, वहां के विधायकों से कोई बात नहीं की, यहां तक कि अपनी पार्टी में बहुत से लोगों को नहीं बताया। सीधी-सी बात है कि ये तरीके संविधान की भावना के पूरी तरह खिलाफ हैं। अगर संविधान की भावना यही थी, तो फिर संसद की क्या जरूरत है?

भाजपा खुद कहती है कि राज्यसभा की जरूरत नहीं है। उसने इसे सिद्ध भी कर दिया है। मैं तो कहता हूं कि लोकसभा की भी जरूरत क्या है? यह ऐलान कर देना चाहिए कि अगले 30 साल मैं प्रधानमंत्री रहूंगा, क्योंकि मुझे विपक्ष की जरूरत नहीं है। जहां तक सरकार का यह दावा है कि विशेष दर्जा खत्म होने के बाद कश्मीर की स्थिति सुधर जाएगी, यह तो भविष्य ही बताएगा।

लेकिन याद कीजिए जब 2014 में नरेंद्र मोदी चुनाव प्रचार कर रहे थे, तो जनता से कहते थे कि आपने कांग्रेस को 60 साल दिए, हमें 60 महीने दीजिए हिंदुस्तान की तसवीर बदल जाएगी। क्या तसवीर बदली है? इसी तरह अब केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा है कि हम कश्मीर की तसवीर बदल देंगे। ऐसे ही ऊंचे दावे नोटबंदी के समय भी किए गए थे। कहा गया था कि जाली नोट की समस्या खत्म हो जाएगी। आतंकवाद खत्म हो जाएगा। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। स्थिति और बदतर हो गई। ऐसी भविष्यवाणियां तो केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह ही कर सकते हैं। लेकिन एक बात तो स्पष्ट है कि इस सरकार की संवैधानिक मूल्यों में कोई आस्था नहीं है।

(लेखक कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और जाने-माने वकील हैं। लेख प्रशांत श्रीवास्तव से बातचीत पर आधारित है)

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