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चर्चाः इतना डिजिटल न हो जाओ कि पास जाना हो मुश्किल

राजीव गांधी की कंप्यूटर क्रांति या नरेन्द्र मोदी-राहुल गांधी की डिजिटल क्रांति से दिख रही प्रगति को सलाम ही किया जाएगा। हां, राजीव युग में बदलाव के साथ नए-पुराने लोगों और टेक्नोलॉजी का समन्वय था। मोदीजी की डिजिटल क्रांति में सब कुछ बदला हुआ दिखना जरूरी है।
चर्चाः इतना डिजिटल न हो जाओ कि पास जाना हो मुश्किल

मोदीजी के निकटस्‍थ सेनापति भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने इस सप्ताह सांसदों और उ.प्र. के नेताओं को प्रेमपूर्वक चेतावनी दे दी है कि उनके भविष्य का फैसला बहुत हद तक फेसबुक पर जुड़ने वाले समर्थकों की संख्या पर निर्भर करेगा। फरमान सुनकर भाजपा के कई बड़े नेता ही सकते में आ गए। दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्‍थान, हरियाणा, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड जैसे राज्यों में पुरानी पीढ़ी के अधिकांश नेता, मंत्री अपने दरवाजे खुले रखते हैं।

स्‍थानीय नेता, कार्यकर्ता ही नहीं सामान्य लोग भी सुबह-शाम मिलने पहुंचते हैं। समर्थकों के पास मोबाइल, घोड़ागाड़ी, मोटरसाइकिल होने पर भी फेसबुक, टि्वटर ही नहीं इंटरनेट पर ई मेल लिखने की सुविधा या आदत नहीं है। वे जीवंत संपर्क से ही निश्चिन्त होते हैं। काम हो या न हो, नेता के दर्शन और आशीर्वाद से धन्य हो जाते हैं। डिजिटल टेक्नोलॉजी तत्काल संदेश भले ही पहुंचा देती है, राहत नहीं देती। पढ़ी लिखी नई पीढ़ी के लोग अवश्य डिजिटल संदेशों के आदान-प्रदान से खुश होते हैं, लेकिन कार्यकर्ता अपना रुतबा बनाने के लिए बड़े नेता से सीधे मिलने की अपेक्षा करता है।

सो, मोदी-शाह की जोड़ी और आधुनिक टीम तार भले ही जोड़ ले, टी.वी. पर दिख जाएं- देर-सबेर चुनाव के मौके पर उन्हीं प्रादेशिक-स्‍थानीय नेताओं पर निर्भर करेंगे, जो मतदाताओं के हितों का संरक्षण करते हों और उनके सुख दुख में शामिल हों। इसी तरह राजीव गांधी से अटल बिहारी वाजपेयी तक कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी शीर्षस्‍थ नेता तक अपना सुख-दुख पहुंचा देते ‌थे। मनमोहन सिंह युग में कार्यकर्ता तो दूर की बात है, सांसदों और संगठन के पदाधिकारियों के लिखित पत्रों के उत्तर नहीं मिलते थे। हां, उनके दफ्तर में ई-मेल पहुंचते थे और कई मंत्री मोबाइल से जुड़े रहे। लेकिन कांग्रेस पार्टी बुरी तरह पराजित हुई। केवल फेसबुक पर शाइनिंग होने के बाद चुनाव में पास जाने पर मतदाता अपना ‘फेस’ दूसरी तरफ मोड़ देंगे।

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